एक पखवाड़ा मौत के साथ-6
आप कल्पना नहीं कर सकते कि जब NIMHNS की रिपोर्ट आई तो परिवार ने कितनी बड़ी राहत महसूस की होगी। दरअसल अब तक सारे डॉक्टर ममता को ‘रेबीज’ का मरीज घोषित कर उसकी मौत की तारीख तक का ऐलान कर चुके थे। ऐसे में निमहंस की रिपोर्ट का निगेटिव आना हमारे लिए तो मानो किस्मत ही पलट जाने जैसा था।
इस रिपोर्ट का महत्व इसलिए भी था क्योंकि डॉक्टरों के अनुसार वे ममता के इलाज में NIMHNS के प्रोटोकॉल का ही पालन कर रहे थे। अब जब उस संस्थान ने ही अपनी रिपोर्ट में कह दिया था कि रेबीज ‘निगेटिव’ है तो परिवार की खुशी का पारावार नहीं रहा। रिपोर्ट दिन में आई थी और हम इंतजार कर रहे थे कि शाम को डॉक्टर अब क्या कहते हैं।
रिपोर्ट देखने के साथ परिवार के सदस्य ममता से मिलने को बेताब हो गए। हालांकि डॉक्टरों की मनाही के बावजूद, मन नहीं मानने के कारण, परिवार का कोई न कोई सदस्य चुपके से आईसीयू में बने कांच के उस कमरे तक पहले भी हो आया करता था जिसमें ममता को ‘आइसोलेशन’ में रखा गया था। लेकिन उस तरह जाना ममता की एक झलक भर देख आने तक ही सीमित रहता था।
निमहंस की निगेटिव रिपोर्ट ने रेबीज के पेशेंट के निकट न जाने के सारे प्रोटोकॉल तोड़ दिए। सबसे पहले ममता के बच्चे उसे देखने पहुंचे। अब यह मां के प्रति प्यार से उपजी ‘मृगमरीचिका’ थी या वास्तव में पेशेंट की हालत में सुधार कि डॉक्टरों ने दवाओं के बहुत ही हाई डोज देकर जिसे पूरी तरह ‘पेरेलाइज्ड’ कर रखा था, बच्चों को उसी पेशेंट के चेहरे और हाथ में थोड़ी हरकत होती दिखी।
गूगल की कृपा और अपने पेशेंट को हर हाल में ठीक करवाने की कोशिशों के चलते जाने कहां कहां के डॉक्टरों से होने वाली बातचीत के अलावा लोगों से मिलने वाले तरह तरह के फीडबैक ने परिवार के लोगों को खुद आधे से ज्यादा डॉक्टर बना दिया था। ऐसे ही माहौल में परिवार के एक सदस्य ने याद दिलाया कि, ममता को सिर्फ पानी गटकने में हो रही तकलीफ को ही डॉक्टर ‘हाइड्रोफोबिया’ अथवा ‘रेबीज’ का लक्षण मान ले रहे हैं यह तो ठीक नहीं है, उस तकलीफ का कारण कुछ और भी हो सकता है।
मेरे सामने जब यह दलील दी गई तो मैंने दिलासा देते हुए कहा, हम लोग इस पर भी डॉक्टरों से डिस्कस कर लेंगे। अपनी बात में और वजन लाते हुए ममता के देवर ने कहा कि ‘हाइड्रोफोबिया’ में तो मरीज पानी देखते ही डरता या आक्रामक हो जाता है। लेकिन भाभी ने पिछले अस्पताल में तो मुझसे यह कहते हुए खुद पानी मांगा था कि बहुत प्यास लग रही है। मैंने उन्हें पानी दिया भी था, हां एक घूंट लेने के बाद उनका कहना था कि मुझसे पानी पिया नहीं जा रहा। उन्होंने तो एक घूंट चाय भी पी थी। तो फिर ‘हाइड्रोफोबिया’ कैसे हुआ?
हमसे मिलने आए एक पारिवारिक मित्र ने अपने एक डॉक्टर मित्र से हुई बातचीत का हवाला देते हुए कहा कि हम लोग क्यों न ममता को किसी ईएनटी यानी नाक, कान गला रोग विशेषज्ञ को भी दिखा लें? क्या जरूरी है कि पानी न निगल पाना सिर्फ और सिर्फ ‘हाइड्रोफोबिया’ का ही लक्षण हो, गले में कोई इन्फेक्शन या कोई और बात भी तो हो सकती है जिसकी वजह से वह पानी न निगल पा रही हो।
इसके बाद सहमति बनी कि ममता को किसी ईएनटी वाले को दिखाया जाए। हमें नहीं पता कि यह जो ‘कॉमन सेंस’ की बात हमें सूझी थी वह अस्पताल के डॉक्टरों को इतने दिनों में सूझी थी या नहीं, लेकिन इस मसले को एक तरफ रखते हुए हम वहीं अस्पताल के ओपीडी में बैठे उनके ईएनटी विशेषज्ञ के पास चले गए।
पूरी बात सुनने के बाद ईएनटी वाले डॉक्टर ने कहा कि वे ओपीडी का काम खत्म करने के बाद ममता को चैक कर लेंगे। हम उनकी राय का इंतजार करने लगे। काफी देर बाद जब वे नीचे उतरे तो पूछ लिया, क्या हुआ डॉक्टर साहब, आपने देखा ममता को? वे बोले, वह बेहोश है इसलिए मैं ठीक से चैकअप नहीं कर पाया। कल यदि स्थिति थोड़ी ठीक हुई तो देख लूंगा…
हमने प्लान बनाया कि बाहर से किसी ईएनटी वाले को बुलवाकर दिखवा लें लेकिन वह संभव नहीं हो पाया। उधर हम अस्पताल के डॉक्टरों की राय का इंतजार कर रहे थे कि निमहंस की रिपोर्ट निगेटिव आने के बारे में वे क्या कहते हैं। हमारे पास बहुत सारे सवाल थे। वैसे भी आमतौर पर आपके परिवार का कोई व्यक्ति अस्पताल में ज्यादा दिन तक भरती रहे तो परिवार का हर सदस्य थोड़ा थोड़ा डॉक्टर हो ही जाता है और उसके पास बहुत सारे सवाल भी इकट्ठा हो जाते हैं।
बेंगलुरू की रिपोर्ट में ‘रेबीज’ निगेटिव आने के बाद परिवार के लोग कई दिशाओं में अपना दिमाग दौड़ा रहे थे। कोई कहता इसे वायरल इंफेक्शन ही होगा तो कोई दिमाग में किसी पुरानी चोट को कारण बताता। जितने मुंह उतनी बातें हो रही थीं।
इसी बीच डॉक्टरों ने हमें बुलाकर एक तरह से हमारी तमाम उम्मीदों और कयासों पर जैसे पानी फेर दिया। उन्होंने कहा- सिर्फ लार (सलाइवा) की रिपोर्ट निगेटिव आने से कुछ नहीं होता, जब तक रीढ़ की हड्डी से लिए गए द्रव (सीएसएफ) की विस्तृत रिपोर्ट नहीं आ जाती,रेबीज को ‘रूल आउट’ नहीं किया जा सकता। एक वही रिपोर्ट है जिसे देखने के बाद पेशेंट में रेबीज के होने या न होने के बारे में कुछ कहा जा सकता है।
इस सूचना ने चेहरों पर आई चमक को एक पल में धो डाला। हमने पूछा वो रिपोर्ट कब आएगी? तो बताया गया कि उसमें कम से कम तीन दिन लगते हैं। यानी हमारा मरीज अब भी ‘जांच और रिपोर्ट’ के जाल में फंसा था। हमें और तीन दिन तक आशंका के फंदे पर यूं ही लटके रहना था। कभी मन कहता जब ये रिपोर्ट निगेटिव आई है तो वो भी निगेटिव ही आएगी, लेकिन तभी दूसरा मन शंका उठाता, और यदि रिपोर्ट पॉजिटिव आ गई तो…?
कल पढ़ें- तीन दिन बाद बेंगलुरू से जब वो रिपोर्ट आई तो…