अजय बोकिल
‘अण्णा पार्ट-टू’ की अगर नैतिक समीक्षा की जाए तो निष्कर्ष निकलेगा कि अब इस देश में केवल नैतिक बल के दम पर कोई आंदोलन खड़ा करना लगभग असंभव है और दूसरा यह कि खुद की विश्वसनीयता संदिग्ध होने के बाद व्यापक जनसमर्थन की उम्मीद किसी को नहीं रखनी चाहिए। खुद को गांधीवादी मानने वाले अण्णा हजारे जनलोकपाल व किसानों की मांगों को लेकर दिल्ली के रामलीला मैदान में 7 दिन तक अनशन पर बैठे रहे, लेकिन उनके समर्थन में हजारों लोग तो दूर रामलीला मैदान के अगल-बगल रहने वाले बाशिंदे तक पंडाल में नहीं फटके। उनके ‘अपने’ तो कब के पराए हो चुके थे।
आंदोलन के शुरू में खुद अण्णा ही अकेले मंच पर तिरंगा लहराते दिखे। मीडिया भी आंदोलन को लेकर खास उत्सुक नहीं था। राजनीतिक दल भी अण्णा के आंदोलन को सड़क पर होने वाले नटों के तमाशे की तरह तटस्थ भाव से देख रहे थे। शुरू से माहौल अस्पताल के आईसीयू की तरह था कि मरीज वेंटीलेटर पर है, जितने दिन जी जाए।
हुआ भी यही। अण्णा की लाज उस मोदी सरकार ने ही रख ली, जिसके खिलाफ अण्णा खम ठोंक कर मैदान में उतरे थे। सरकार ने अण्णा को उनकी घोषणा के मुताबिक रामलीला मैदान में अनशन करने दिया। साथ ही इस बात पर नजर भी रखी कि कहीं यह जन आंदोलन में तब्दील न होने लगे। केन्द्र सरकार ने अण्णा को मनाने के लिए उनके गृह राज्य महाराष्ट्र के नेताओं को ही लगाया था। संदेश भी गया कि अण्णा वास्तव में स्टेट लेवल की हस्ती हैं। उनका अनशन तुड़वाने महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री देवेन्द्र फडणवीस को बुलाया गया।
कहने को साथ में केन्द्रीय कृषि राज्य मंत्री गजेन्द्र सिंह शेखावत भी थे। लेकिन वह उपस्थिति प्रतीकात्मक थी। देश भी अण्णा की सेहत को लेकर कुछ खास चिंतित नहीं था। क्योंकि पेपर लीक, आर्थिक घोटाले, कई राज्यों में साम्प्रदायिक दंगे, कर्नाटक के चुनाव और मीडिया कर्मियों की हत्याएं जैसी कई घटनाओं से मुद्दों का आसमान भरा पड़ा था, जिनके आगे अण्णा की जनलोकपाल और किसानों की बेहतरी की मांगें टीआरपी के हिसाब से भी नगण्य थीं।
कहने को अण्णा ने दावा किया कि उनकी 11 में से अधिकांश मांगें मान ली गई हैं, लेकिन हकीकत में कोई ठोस आश्वासन भी अण्णा को सरकार की ओर से नहीं मिला। सरकार का रवैया कुछ वैसा ही था कि मानो किसी मचले बच्चे की जिद पूरी करने के बाद मां-बाप कहें कि चलो हो गया न! अब घर चलो।
ऐसे में अण्णा पार्ट-टू सीक्वल का जनसमर्थन के बॉक्स ऑफिस पर फ्लॉप होना तयशुदा था। कारण अण्णा असल में किस खेमे में हैं, यही साफ नहीं था। भ्रष्टाचार के खिलाफ उन्होंने 2011 में जो आंधी उठाई थी, उसके पर्दे में आरएसएस का समर्थन और कई जनसंगठनों का हाथ था। तब अण्णा नौजवानों को गांधी का अंशावतार लगे थे। लेकिन बाद में कहानी की पर्तें अपने ढंग से खुलती गईं। सो, इस बार सभी ने हाथ खींच लिए।
संघियों का मानना रहा कि अण्णा वामपंथियों का खड़ा बीजूका थे तो वामियों की नजर में अण्णा संघियों का सफेद टोपीधारी चेहरा साबित हुए। इसको लेकर सोशल मीडिया में जमकर आरोप-प्रत्यारोप भी चले। कांग्रेसी तो शुरू से ही अण्णा के आंदोलन में छिपी राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं को पहचान कर उनसे दूरी बना चुके थे। यूं नैवेद्य की तरह कुछ किसान अण्णा के आंदोलन में आए भी, लेकिन उनमें कर्ज के कारण आत्महत्या के लिए मजबूर तथा प्रकृति और सरकार की मार से परेशान लगने वाला कोई किसान चेहरा नहीं था। जो आए वो भी शोकसभा में बैठने की नीयत से आए ज्यादा लग रहे थे। ऐसे में अण्णा का यह शुरुआती आरोप कि किसानों को दिल्ली आने से रोका जा रहा है, भी बेदम था।
अण्णा को अहसास हो गया था कि जिस गुब्बारे को फुलाने की वो जी तोड़ कोशिश कर रहे थे, वह पहले ही पंचर हो चुका है। फिर भी दिलासे के लिए उन्होंने कहा कि उनकी ज्यादातर मांगें सरकार ने मान ली हैं। इसीलिए वो अपना आंदोलन समाप्त कर रहे हैं। सरकार को चिंता केवल इस बात की थी कि सात दिन में अण्णा का साढ़े पांच किलो वजन कम हो गया था। अनशन और चलता तो मामला गंभीर हो सकता था।
मुद्दा केवल यह है कि अण्णा का आंदोलन फ्लॉप क्यों हुआ? क्या अण्णा ने खुद का ओवर असेसमेंट कर लिया था या फिर पिछले आंदोलन में उठे हाथों को अण्णा अभी भी अपनी पालकी का कहार माने बैठे थे? जबकि इस दौरान देश का राजनीतिक, सामाजिक और नैतिक परिदृश्य लगभग यू-टर्न ले चुका है। अब सियासत सपनों के महल से संचालित हो रही है। समाज में भ्रष्टाचार शिष्टाचार का रूप ले चुका है। नैतिकता पूरी तरह स्वार्थों के हिसाब से तय हो रही है। सत्ता के विरोध में तिरंगा लहराना राष्ट्रद्रोह की श्रेणी में आ चुका है। लोगों की परेशानियां जस की तस हैं, लेकिन उनका सार्वजनिक उच्चारण आपको नास्तिकता की खाई में ढकेल सकता है।
अलबत्ता अण्णा किस्मत वाले हैं कि लोकपाल और किसानों की आवाज उठाने के बाद भी उन्हें ‘देशद्रोही’ करार नहीं दिया गया। ऐसे में बूढ़े अण्णा की बदलाव की आखिरी कोशिश भले नाकाम हो गई हो, लेकिन उनके गांधीवादी होने की लाज बच गई। जाहिर है कि अण्णा अब फिर ऐसी ‘गलती’ शायद ही करें। आंदोलन की आखिरी घड़ी में मुख्यमंत्री फडणवीस के रस्मी भाषण के दौरान किसी हताश किसान का जूता उछला था। लेकिन यहां भी निशाना चूक गया।
वास्तव में यह राजनीतिक असंवेदना का स्क्रीन शॉट था। सरकारें ऐसे गुमनाम जूतों से हिला नहीं करतीं। अण्णा की चूक यह है कि उन्होंने कभी किसी के खिलाफ साफ स्टैंड नहीं लिया। उन्होंने अपनी मांगों के लिए शरीर को तो दांव पर लगाया, लेकिन उसी शिद्दत से आत्मा को दांव पर नहीं लगाया। देश को लेकर उनका दर्द वाजिब था, परंतु इसके निदान के लिए किस पैथी का इस्तेमाल करें या करना चाहिए, इसका इल्म उनके पास न तो था और शायद है भी नहीं। अण्णा केवल इस्तेमाल होते रहे। अब तो इसकी भी जरूरत किसी को नहीं रह गई है। यही अण्णा पार्ट-टू की ट्रैजिडी है।
(सुबह सवेरे से साभार)