अजय बोकिल

मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ रिश्ता यूं तो ‘एक दिल, दो जान’ का रहा है, लेकिन एक खास किस्म के मुर्गे को लेकर दोनों राज्यों में ठन गई है। मामला नॉनवेज के शौकीनों की पसंद कड़कनाथ मुर्गे का है। मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ दोनों ही राज्य मुर्गे की इस देसी प्रजाति पर अपने लिए जीआई टैग (भौगोलिक संकेतक) मांग रहे हैं। मप्र का कहना है (जैसा कि वह है भी) कड़कनाथ हमारी दौलत है। क्योंकि राज्य के झाबुआ, धार और आलीराजपुर जिले इस मुर्गे का असली घर हैं।

उधर छत्तीसगढ़ का दावा है कि पहले यह मप्र का भले रहा हो, लेकिन अब इसकी पहचान बस्तर के दंतेवाड़ा से है। यहां उसका प्राकृतिक प्रजनन और संरक्षण किया जा रहा है। इसलिए कड़कनाथ पर छग का हक माना जाना चाहिए। दोनों पड़ोसी राज्यों ने कड़कनाथ का जीआई टैग प्राप्त करने के लिए चेन्नई स्थित भौगोलिक संकेतक पंजीयन कार्यालय में आवेदन दिए हैं। जीआई टैग एक संकेतक होता है, सम्बन्धित उत्पाद की विशिष्ट भौगोलिक उत्पत्ति और विशेषताओं को पहचान देता है। विशेषज्ञ यह टैग कृषि, प्राकृतिक और निर्माण किए जाने वाले सांस्कृतिक उत्पादों को प्रदान करते है।

सवाल पूछा जा सकता है कि कड़कनाथ में ऐसा क्या है, जो दो राज्य आमने-सामने हों। इसका कारण है कड़कनाथ मुर्गे का लजीज स्वाद और तासीर। गोया इसे खाने के बाद इंसान ‘कड़क’ हो जाता है। शाकाहार के दुराग्रही इसे नहीं समझ सकते। जमाने से मप्र का झाबुआ जिला भगोरिया के अलावा कड़कनाथ के लिए भी जाना जाता रहा है। वहां तैनात होने वाले हर सरकारी अफसर की पहली फरमाइश कड़कनाथ रहा करती आई है।

कुछ साल पहले कड़कनाथ तेजी से साफ होने लगे थे। मजाक चलता था कि झाबुआ के कड़कनाथ अफसरों ने ही डकार लिए। अब प्रश्न यह है कि कड़कनाथ में ऐसा क्या है, जो दूसरे मुर्गों में नहीं है। इसके कई कारण हैं। कड़कनाथ और दूसरे मुर्गों में बुनियादी अंतर यह है कि यह पूरी तरह काला होता है। इसकी हड्डी, मांस और खून भी काला होता है। इसलिए इसे कालीमासी भी कहते हैं। यह अकेला अश्वेत मुर्गा तमाम लाल खून वाले रंगीन मुर्गों को टक्कर देता आया है। इसके मांस में फैट और कोलेस्ट्राल बहुत कम और प्रोटीन व आयरन काफी ज्यादा होता है।

परंपरागत रूप से झाबुआ के आदिवासी इसे पालते रहे हैं। इसका अंडा भी महंगा बिकता है। यह भी काले रंग का होता है। एक कड़कनाथ की कीमत लाल खून वाले सामान्य मुर्गे के मुकाबले तीन गुना ज्यादा होती है। कड़कनाथ की मांग न केवल देश बल्कि विदेशो में भी खूब है। इसके मार्केटिंग की संभावना को देखते हुए कड़कनाथ मप्र के दूसरे जिलों में भी होने लगा है। मप्र सरकार ने इसके उत्पादन की शुरूआत सहकारी क्षेत्र में भी कर दी है।

उधर कड़कनाथ का पालन छत्तीसगढ़ के बस्तर के दंतेवाड़ा जिले में भी शुरू हुआ और देखते-देखते काफी लोकप्रिय भी हो गया। आज हैदराबाद के बाजारों में दंतेवाड़ा कड़कनाथ के नाम से खूब बिकता है। कड़कनाथ की तासीर गर्म होती है, इसलिए पहले इसे अलग से पकाकर फिर ग्रेवी के साथ बनाया जाता है। कुछ लोग इसे रोस्ट करके भी बनाते हैं।

कड़कनाथ पर छत्तीसगढ़ की छाप लगना मप्र के मुर्गा प्रेमियों और पोल्ट्री वालों के लिए खतरे की घंटी थी। क्योंकि इधर का कड़कनाथ, उधर का कड़कनाथ बन कर बिके, यह सच्चा मप्रवासी कैसे गवारा कर सकता है? यूं भी ‘हम न सही हमारा मुर्गा ही कड़क’ होने का आत्मिक संतोष शुरू से एमपी वालों में रहता आया है। इसी के मद्देनजर मध्यप्रदेश के आदिवासी परिवारों की ओर से झाबुआ के ग्रामीण विकास ट्रस्ट ने इन 2012 में कड़कनाथ मुर्गे की प्रजाति के लिए जीआई टैग के लिए आवेदन किया।

मप्र सरकार इसकी मार्केटिंग ‘झाबुआ के कड़कनाथ’ ब्रांड से करना चाहती है। यह खबर लगते ही छत्तीसगढ़ में भी बांग उठी। इस ‘कमाऊ’ मुर्गे पर छग सरकार की ओर से भी दावा ठोक दिया गया है। छत्तीसगढ़ के दंतेवाड़ा में राज्य सरकार कड़कनाथ के उत्पादन को पीपीपी मॉडल के तहत बढ़ावा दे रही है। अकेले इस जिले में 160 से अधिक कुक्कुट फार्म राज्य सरकार द्वारा समर्थित स्व-सहायता समूहों द्वारा चलाए जा रहे हैं। इनमें सालाना करीब 4 लाख कड़कनाथ मुर्गों का उत्पादन होता है।

वहां कड़कनाथ की डिमांड का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि पुलिसवाले गांवों में छापों के दौरान सबसे पहले कड़कनाथ अपने कब्जे में लेते हैं। वैसे कड़कनाथ के चूजों की मांग देश के हर कोने से आ रही है। मध्यप्रदेश पशुपालन विभाग की रिपोर्ट के मुताबिक मप्र की सरकारी हैचरीज में सालाना ढाई लाख कड़कनाथ मुर्गों का उत्पादन किया जा रहा है। इसे और बढ़ाने की योजना है। सरकार उन आदिवासियों को भी कड़कनाथ पालने के लिए प्रेरित कर रही है, जो मुर्गीपालन अब बंद कर चुके हैं। यह बात अलग है ‍मप्र सरकार खुद अंडा विरोधी है।

यूं इंसान अपने मनोरंजन के लिए मुर्गों को लड़वाता रहा है, लेकिन यहां तो एक मुर्गे की वजह दो राज्यों के रिश्तों में तनाव पैदा हो गया है। दोनो कड़कनाथ को अपना बताने का दावा कर रहे हैं। खुद कड़कनाथ को भी अपनी इस वीआईपी हैसियत का अंदाजा है या नहीं, पता नहीं। लेकिन इतनी खूबियों और बाजार की जबर्दस्त मांग को देखते हुए यह तो समझ आ ही जाना चाहिए कि ‘कड़कनाथ’ क्या मतलब है। अगर इस विवाद की तुलना बंगाल-ओडिशा के बीच रोशोगुल्ला विवाद से की जाए तो बाजी मप्र के हाथ लगनी चाहिए, क्योंकि कड़कनाथ झाबुआ के आदिवासियों की संस्कृति का हिस्सा रहा है।

दंतेवाड़ा के कड़कनाथ में वो तासीर है या नहीं, कहना मुश्किल है। क्योंकि कड़कनाथ की पहचान झाबुआ के साथ एकाकार हो चुकी है। संभव है कि कड़कनाथ के उत्पादन में छत्तीसगढ़ मप्र से आगे निकल गया हो, लेकिन वह जायके में भी एमपी से ज्यादा ‘कड़क’ निकलेगा, इसमें शक है।

(सुबह सवेरे)

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