देश में इन दिनों बस एक ही चर्चा है। पंजाब नैशनल बैंक का घोटाला। आरंभिक रूप से 11300 करोड़ रुपए के आकार का बताए जाने वाले इस घोटाले के लिए हीरा व्यापारियों नीरव मोदी और उसके मामा मेहुल चौकसी को जिम्मेदार बताया जा रहा है। इस आर्थिक अपराध को लेकर जितनी चर्चा आर्थिक जगत में नहीं है उससे ज्यादा चर्चा राजनीतिक जगत में हो रही है।
इस मामले में विपक्षी दलों ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को निशाना बनाया है और उनकी मुख्य मांग है कि इतना बड़ा घोटाला हो जाने के बावजूद पीएम अब तक एक शब्द भी नहीं बोले हैं। और पीएम तो छोडि़ए देश के वित्त मंत्री ने भी अपनी जुबान नहीं खोली है। सरकार की तरफ से कभी विधि मंत्री बोल रहे हैं तो कभी रक्षा मंत्री, कभी मानव संसाधन मंत्री बोल रहे हैं तो कभी सूचना प्रसारण मंत्री। या फिर भाजपा के प्रवक्ताओं ने मोर्चा संभाल रखा है।
हालांकि सरकार की ओर से वरिष्ठ मंत्री जैसे राजनाथसिंह, सुषमा स्वराज, नितिन गडकरी आदि भी इस विवाद में चुप ही रहे हैं। हो सकता है भाजपा या प्रधानमंत्री कार्यालय ने किसी सोची समझी रणनीति के तहत इस मामले में चुप्पी साधी हो या फिर वे उस अनुकूल मौके की तलाश में हों जब उनका मुंह खोलना सरकार और पार्टी के लिए फायदेमंद साबित हो।
प्रधानमंत्री इस मामले पर बोलेंगे या नहीं और बोलेंगे तो कब बोलेंगे, यह राजनीति का विषय हो सकता है। लेकिन इस पूरे मामले में जिस विषय पर बात होनी चाहिए उस पर शायद ध्यान ही नहीं दिया जा रहा है। यह मामला है देश को कर्ज की अर्थव्यवस्था से कैसे बाहर निकाला जाए? यह बात सही है कि कर्ज लेना और देना आधुनिक अर्थव्यवस्था का एक अभिन्न अंग है, लेकिन भारत में इसने सरकारी या जनधन को हड़प लेने के सुगठित षड़यंत्रकारी तंत्र में बदल दिया है।
यह आंकड़ा दहला देने वाला है कि पिछले 11 सालों में सरकारों ने सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों को 2.6 लाख करोड़ रुपए की पूंजी उपलब्ध कराई है। यानी बैंकों की हालत ठीक रखने के लिए सरकार ने जनता की गाढ़ी कमाई की ढाई लाख करोड़ रुपए से अधिक की राशि बैंकों की नाली में बहा दी। यह राशि कितनी बड़ी है इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि यह देश के चालू वित्त वर्ष के बजट में ग्रामीण विकास के लिए आवंटित की गई राशि की दो गुना और सड़क मंत्रालय के बजट की साढ़े तीन गुना है।
सरकार की ओर से बैंकों को खड़ा रखने के लिए की जा रही मदद के बावजूद बैंकों का घाटा लगातार बढ़ता जा रहा है। और इसमें सबसे बड़ा योगदान हजारों करोड़ रुपए के उन कर्जों का है जो बड़े आसामियों को दिए गए हैं। ऐसे अनेक बड़े कर्जदार कर्ज पटाने के बजाय या तो देश से भाग खड़े हुए हैं या फिर उन्होंने खुद को दिवालिया घोषित करवा लिया है।
ऐसे में सवाल उठता है कि आखिर कर्ज पर आधारित इस विकास को हम और कितने दिन ढो सकते हैं। सरकारें वेतनभोगी वर्ग से तो हर सूरत में टैक्स वसूल लेती हैं, लेकिन जब बड़े घरानों या उद्योगपतियों का मामला आता है तो उसके भी हाथ पैर कांपने लगते हैं। पीएनबी घोटाले में लोगों के बीच इस भावना का घर कर जाना सरकार की साख के लिए भी चिंताजनक है कि छोटे कर्जदारों से तो दादागिरी या गुंडागर्दी करके भी कर्ज वसूल लिया जाता है या फिर उन पर कानूनी कार्रवाई हो जाती है, लेकिन बड़े लोगों का कुछ नहीं बिगड़ता।
आज की अर्थव्यवस्था में कर्ज लेकर सरकार या बैंकों को चूना लगाने का चलन लगातार बढ़ता जा रहा है। सूचना के अधिकार के तहत भारतीय रिजर्व बैंक ने जो जानकारी उपलब्ध कराई है, वह चौंकाने वाली है। आरबीआई के मुताबिक वर्ष 2012-13 से सितंबर 2017 तक सार्वजनिक और निजी क्षेत्रों के बैंकों ने आपसी समझौते आदि को मिलाकर कुल 367765 करोड़ रुपए की रकम राइट ऑफ की है। इतनी बड़ी रकम राइट ऑफ करने वालों में सार्वजनिक क्षेत्र के 27 और निजी क्षेत्र के 22 बैंक शामिल हैं।
इसके अलावा चिंता का एक और विषय यह भी है कि खुद बैंकों के कर्मचारी बड़े पैमाने पर की जाने वाली जनधन की इस धोखाधड़ी में शामिल पाए जा रहे हैं। रिजर्व बैंक के एक आंकड़े के अनुसार देश में हर चार घंटे में एक बैंकर को फ्रॉड में पकड़ा जाता है और उसे सजाहोती है। एक जनवरी, 2015 से 31 मार्च, 2017 के बीच सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों के 5,200 कर्मचारियों को धोखाधड़ी के मामलों में सजा हुईहै।
आंकड़े बताते हैं कि 1 अप्रैल, 2013 से 31 दिसंबर, 2016 के बीच निजी बैंकों सहित सभी कमर्शियल बैंकों को धोखाधड़ी के 1704 मामलों से66 हजार करोड़ रुपये का नुकसान हुआ। धोखाधड़ी के इन मामलों में बैंक कर्मचारी की मिलीभगत वाले मामलों की संख्या 2,084 है। यानी12 प्रतिशत मामलों में तो बैंक कर्मचारी ही लिप्त होते हैं।
ऐसे में जरूरी है कि कर्ज और उसकी अर्थव्यवस्था पर निगरानी का तंत्र बहुत पुख्ता बनाया जाए। कर्ज का सरकारी कारोबार कितना बड़ा है इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि अगले वित्त वर्ष के बजट में सरकार ने किसानों को कर्ज देने के लिए 11 लाख करोड़ रुपए का प्रावधान किया है। पिछले दिनों बेरोजगारी का मसला उठने पर प्रधानमंत्री खुद देश को बता चुके हैं कि मुद्रा योजना के तहत सरकार ने करीब चार लाख करोड़ रुपए का कर्ज बांटा है। धन्नासेठों को बांटे गए ज्ञात अज्ञात कर्ज का तो शायद हिसाब ही नहीं है।