शनिवार को छपी दो खबरों ने काफी विचलित किया। खबरें पढ़ने के बाद यह सोचकर मन दुखी हुआ कि जिस समाज में हम रह रहे हैं उसमें मानवीय रिश्तों और मानवीय संवेदनाओं को आखिर क्या होता जा रहा है। एक समय था जब घर के दुखदर्द से ज्यादा पड़ोसी के दुखदर्द की चिंता होती थी। अपने आसपास का कोई व्यक्ति संकट में हो तो मन करता था कि ऐसा क्या करें कि उसकी मदद हो जाए। लेकिन ये संवेदनाएं लगातार कम होती दिखाई दे रही हैं।
जिन खबरों का मैं जिक्र कर रहा हूं वे दोनों ही सड़क दुर्घटनाओं से जुड़ी हैं। वैसे भी सड़क दुर्घटनाएं अब बहुत आम हो गई हैं। जितनी अधिक संख्या में ऐसे हादसे हो रहे हैं, ऐसा महसूस होने लगा है कि आदमी की जान भी उतनी ही सस्ती होती जा रही है। सड़क पर कोई भी, कभी भी, किसी को मारकर या कुचलकर निकल सकता है। और कोई दूसरा ही क्यों, अब तो सड़कों पर लोग अपने ही हाथों अपनी मौत की इबारत लिखने लगे हैं।
शनिवार को ‘सुबह सवेरे’ ने होशंगाबाद से एक खबर प्रकाशित की जिसके मुताबिक डीआईजी ऑफिस में तैनात आरक्षक रंजीत सिंह राजपूत (30) शुक्रवार सुबह बाइक से ड्यूटी जा रहा था। रास्ते में चार पहिया वाहन वाले ने उसे टक्क्र मारी और भाग निकला। घायल सिपाही आधे घंटे तक सड़क पर तड़पता रहा। लेकिन उसके आसपास जुटी भीड़ उसे बचाने का उपक्रम करने के बजाय उसका वीडियो बनाती रही।
भीड़ में सिर्फ नगर पालिका का एक सफाईकर्मी कपिल बड़गूजर ऐसा निकला जिसने घायल रंजीत की जेब से मोबाइल निकाला और उसमें दर्ज नंबर पर कॉल किया। किसी तरह घरवालों को खबर हुई और आरक्षक को अस्पताल ले जाया गया, लेकिन उसे नहीं बचाया जा सका। जिस दिन आरक्षक की मौत हुई उस दिन उसकी शादी की सालगिरह थी।
दूसरी घटना राजधानी भोपाल के वीआईपीरोड की है। टाइम्स ऑफ इंडिया में छपी खबर के मुताबिक यहां देर रात तीन युवक नए जमाने की पॉवरबाइक पर रेस लगाते हुए करतब कर रहे थे। अचानक संतुलन बिगड़ा और उनकी बाइक्स आपस में टकरा गईं। इसी दौरान एक मोटरसायकल के पीछे बैठा युवक उछलकर कई फीट दूर लगे डस्टबिन से जा टकराया। यह टक्कर इतनी जोरदार थी कि युवक के सिर के टुकड़े हो गए। उसके बाकी दो साथी गंभीर रूप से घायल हुए हैं।
इस घटना का सबसे भयानक पहलू यह रहा कि राह चलते एक व्यक्ति ने दुर्घटना का शिकार हुए युवकों की जान बचाने की कोशिश करने के बजाय दम तोड़ते उस युवक की जेब से मोबाइल और पर्स निकाला और चलता बना। इस रोंगटे खड़े कर देने वाले अपराध को अंजाम देने वाला वह आदमी कितना निष्ठुर रहा होगा इसका अंदाजा आप इसी बात से लगा सकते हैं कि चुराए गए मोबाइल के बारे में पता न चल सके इसके लिए उसने मोबाइल में से सिम निकाल कर वहीं फेंक दी।
एक समय था जब ऐसी घटनाओं पर लोग पीडि़तों को बचाने के लिए दौड़ पड़ते थे। लेकिन आज चिंता यह है कि उस घायल या दम तोड़ रहे व्यक्ति का वीडियो ठीक से आ रहा है या नहीं। वह ठीक से फेसबुक पर लाइव हो रहा है या नहीं। एक ‘लाइव’ यानी जिंदा आदमी उनके सामने अंतिम सांसें गिन रहा है, लेकिन उन्हें उस मरते हुए आदमी से ज्यादा परवाह है उसका वीडियो दिखाकर अपने फेसबुक पर अधिक से अधिक लाइक हासिल करने की या उस वीडियो को अधिक से अधिक शेयर करवाने की।
और भोपाल वाले हादसे में तो मानवीय संवेदनाओं के सारे बंध टूट गए। मरते हुए आदमी को बचाने या उसकी मदद करने के बजाय उसका मोबाइल और पर्स लेकर चलते बना युवक क्या इसी समाज का माना जाए? क्या अब हमें स्वीकार कर लेना चाहिए कि ऐसी नाजुक स्थितियों में भी हमारे लिए मोल अब भौतिक वस्तुओं की लूट खसोट का ही बचा है, जीते जागते इंसान या इंसानियत का नहीं?
हम अक्सर हर मामले में सरकार और व्यवस्था को दोष देते हैं। हमारा आरोप होता है कि सरकारों की संवेदनशीलता खत्म होती जा रही है, लेकिन संवेदनशीलता तो समाज और व्यक्ति की भी खत्म हो रही हे। अकेले सरकारों को ही क्यों दोष दिया जाए? सरकारें भी तो हमारे बीच से आए लोगों का ही प्रतिनिधित्व करती हैं। जब बीज ही खराब होगा तो पौधा कहां से स्वस्थ निकलेगा।
व्यक्ति का आचरण ही राष्ट्र का निर्माण करता है। हम खुद चोरों की बस्ती बसाकर उसमें साहूकार तलाश करने निकले हैं। हम खुद चारों तरफ कालिख उड़ाते हुए साफ सुथरे चेहरों की उम्मीद बांध रहे हैं, तो ऐसा कैसे हो सकता है? हमें चोरी करने का अवसर भी चाहिए और ईमानदार व्यवस्था भी चाहिए, ये दोनों बातें एकसाथ कैसे हो सकती हैं।
दूसरी बात मैं कहना चाहूंगा उस युवा पीढ़ी के बारे में जो अपने जोश और जुनून (वैसे उपयुक्त शब्द यहां पागलपन है) में अपनी जान तक की परवाह नहीं कर रही। पहली पहली बार जब दिल्ली की सड़कों पर ‘बाइकर्स गिरोह’ की धींगामस्ती के नजारे टीवी चैनलों पर देखे थे तो मन धक से रह गया था। पहला ख्याल यही आया था कि ‘गति’ के चक्कर में अपनी ‘दुर्गति’ को न्योता दे रहे इन युवाओं को कहीं कुछ हो जाए तो क्या होगा?
लेकिन अब छोटे शहरों में भी यह बीमारी आ पहुंची है। मेरे घर के सामने वाली सड़क पर मैं देर रात अकसर ऐसे युवाओं को बाइक से रेस लगाते देखता हूं। तेज आवाज करती बाइकों पर सवार ये युवा जब बीच सड़क में सर्कस करते गुजरते हैं तो उनकी जान की परवाह के साथ साथ ख्याल हो आता है उनके परिवार वालों का, उनके बूढ़े मां बाप का, कि यदि मौत को न्योता देने वाला खतरनाक खेल खेल रहे इन युवाओं को कभी कुछ हो गया तो उन परिवारों पर क्या बीतेगी जिसने इनसे बड़ी उम्मीदें लगा रखी हैं।
पर दीन दुनिया से बेखबर इन युवाओं की बेफिक्री देखकर लगता है, शायद उन्हें हमारी फिक्र की भी कोई फिक्र नहीं बची है।