‘थियेटर ओलिम्पिक्स’, भोपाल और नेपथ्य की उम्मीदें…

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अजय बोकिल

दीया हम जलाते हैं, उसे सूरज में बदलने का उपक्रम दूसरे करते हैं। ‘थियेटर ओलिम्पिक्स’ का मामला भी कुछ ऐसा ही है। भारत में थियेटर का इतिहास पांच हजार वर्ष पुराना माना गया है, लेकिन थियेटर के वैश्विक समागम का विचार ग्रीक में ही पनपा। हमारे‍ लिए खुशी की बात यह है कि आठवां थियेटर ओलिम्पिक्स पहली बार भारत में हो रहा है और देश की कला राजधानी भोपाल की इसमे अहम भागीदारी है। ओलिम्पिक्स के कई शो भोपाल में होंगे। यह इस बात का प्रमाण है कि मध्यप्रदेश और खासकर भोपाल से हॉकी ओलिम्पियन ही नहीं निकलते, थियेटर ओलिम्पिक के लिए भी यह उर्वरा भूमि है।

वैसे थियेटर ओलिम्पिक्स के भारत में आयोजन के पीछे इस ओलिम्पक्स की अंतरराष्ट्रीय समिति में देश के प्रख्यात रंगकर्मी ‍रतन थियम का होना है। थियम पूर्व में प्रतिष्ठित भारतीय नाट्य विद्यालय के निदेशक भी थे। उनके इस पद से हटने के बाद भारत में थियेटर ओलिम्पिक्स आयोजन को लेकर विवाद भी हुआ। लेकिन उसे समझदारी से सुलझा लिया गया। और  दिल्ली के लाल किले में इस वैश्विक महाआयोजन के शुभारंभ और देश की कला नगरी मुंबई के गेट वे ऑफ इंडिया पर समापन की तिथियां तय कर ली गईं।

हालांकि रंगकर्मियों का यह महाकुंभ सियासी रंग से पूरी तरह अछूता नहीं रहा है, क्योंकि पाकिस्तान की प्रविष्टियों को अनुमति नहीं दी गई है। इस बारे में केन्द्रीय संस्कृति राज्य मंत्री डॉ. महेश शर्मा का कहना है ‍कि पाक से आई एंट्रियां विश्व स्तर की नहीं थी, इसलिए उन्हें ओलिम्पिक्स में प्रवेश नहीं मिला। इस बारे में हमे अंतरराष्ट्रीय जू्री के फैसले का सम्मान करना चाहिए।

‘ओलि‍म्पिक’ शब्द आते ही हमारे जेहन में खेलों का समर ओलिम्पिक ही घूमता है। जबकि खेलों का विंटर ओलि‍म्पिक, दिव्‍यांगों का ओलि‍म्पिक, गणित ओलि‍म्पिक आदि आयोजन भी विश्व स्तर पर होते हैं। इतना तय है कि ओलिम्पिक्स मनुष्य की प्रतिभा और रचनात्मकता की अनंत प्रतियोगिता तथा मानवीय गुणों के श्रेष्ठतम प्रदर्शन की दावत होती है।

और रंग कर्म तो ऐसी विधा है, जिसने समाज को हमेशा एक नई ऊर्जा दी है तो उसे आईना भी दिखाया है। रंग कर्म की परंपरा सभी देशों, सभ्यताओं और जातियों में है। भारत में इसकी एक समृद्ध और सुदीर्घ परंपरा रही है। भरत मुनि ने नाट्यशास्त्र यहीं लिखा। देश में थियेटर आज भी शिद्दत के साथ हो रहा है। यह बात अलग है कि अत्यंत गंभीरता और समर्पित भाव से वह चार-पांच भाषाओं में ही हो रहा है।

वैश्विक स्तर पर थियेटर के ऊंचे प्रतिमान हैं। फिर चाहे वह ग्रीक, ‍ब्रिटिश, जर्मन, जापानी या अमेरिकी थियेटर हो। इन सबको एक मंच पर लाने, पूरी दुनिया में हो रहे थियेटर, रंगकर्मियों और रंगकर्म, नाट्य लेखन, तथा थियेटर के कला और तकनीकी पक्ष पर वैश्विक संवाद के उद्देश्य से ही ग्रीस के प्रसिद्ध रंगकर्मी थियोडोरस तेरजोपोलस ने ‘थियेटर ओलिम्पिक्स’ की कल्पना की और उसे अमली जामा पहनाया।

पहला थियेटर ओलि्म्पिक्स ग्रीस के डेल्फी शहर में हुआ। 21 वीं सदी में इसका और विस्तार हो रहा है। थियेटर ओलिम्पिक्स के आयोजन का मकसद दुनिया भर के देशों में हो रहे थियेटर का आदान प्रदान, रंग क्षेत्र के जाने माने गुरु शिष्यों का जमावड़ा, परस्पर संवाद तथा थियेटर के वर्तमान को अतीत और भविष्य से जोड़ने का महत प्रयास भी है।

इस लिहाज से भारत में इसका आयोजन महत्वपूर्ण है। आयोजन की विशालता को इसी से समझा जा सकता है कि 51 दिनों तक चलने वाले इस महासमागम के दौरान अलग अलग भाषाओं की 465 नाट्य प्रस्तुतियां, 600 एम्बियंस परफार्मेंस तथा 250 यूथ फोरम शो देश के 17 शहरों में होंगे। इसमें दुनिया भर के 35 देशों के रंग दल हिस्सेदारी करेंगे। आयोजन का यह जिम्मा मुख्य रूप से भारतीय नाट्य विद्यालय को सौंपा गया है। संपूर्ण आयोजन के लिए 51.82 करोड़ रुपये का बजट है। इसमें कुल 25 हजार कलाकर्मी भाग लेंगे।

यहां बुनियादी सवाल यह है कि ऐसे महाआयोजन से भारतीय थियेटर और देश को क्या मिलेगा? क्‍या इससे नेपथ्य के सवाल सुलझेंगे? क्या यह भी एक ‘तमाशा’ ही है, जिसका अपने ढंग से राजनीतिक लाभ लिया जाएगा या फिर यह भारतीय थियेटर के लिए बड़ी संजीवनी साबित होगा? क्या हमें सचमुच इसकी जरूरत थी या फिर यह ‘ग्रांड शो’ देश के समक्ष मौजूद मूलभूत सवालों को ढंकने की व्यापक रणनीति का हिस्सा है?

इन सवालों के उत्तर कई कोणों से दिए जा सकते हैं। बहरहाल जानकारों का मानना है कि थियेटर ओलिम्पिक्स एक सांस्‍कृतिक महाकुंभ है और उसे उसी भाव से लिया जाना चाहिए। इसमें राजनीति खोजना क्षुद्र सोच ही होगी। जाने-माने रंगकर्मी और भारतीय नाट्य विद्यालय के निदेशक वामन केन्द्रे का मानना है कि थियेटर ओलिम्पिक्स के आयोजन से देश में थियेटर की दशा सुधरेगी। उसे एक नई दिशा मिलेगी और सबसे बड़ी बात थियेटर के प्रति लोगों की सोच बदलेगी।

जमीनी सचाई यही है कि अपवाद छोड़ दें तो भारत में थियेटर की हालत बहुत अच्छी नहीं है। हिंदी में तो और भी खराब है। न तो ढंग के थियेटर हैं और न ही रंगकर्मियों को रिहर्सल करने के लिए समुचित स्थान हैं। आर्थिक संकट के साथ दर्शकों का भी टोटा है। यानी चुनौतियां बहुआयामी हैं। सवाल यह भी है कि थियेटर करें तो किसके लिए? इसे‍ थियेटर करने वालों की जीवटता ही मानें कि वो साधक की तरह अपना काम किए जा रहे हैं। क्योंकि थियेटर स्वांत: सुखाय नहीं हो सकता।

वामन केन्द्रे की बात को अति आशावाद न मानें तो किसी भी ओलिम्पिक के आयोजन से लोक चेतना तो बढ़ती है। वैश्विक स्तर के विभिन्न खेल आयोजनों से भारत की खेल उपलब्धियों में निरंतर सुधार आना इसका प्रमाण है, भले ही वह अपेक्षा से कम हो। इस थियेटर ओलिम्पिक्स का ध्येय वाक्य है ‘फ्लैग ऑफ फ्रेंडशिप’ यानी ‘मैत्री की पताका’। कला की दुनिया में मनुष्यता की पताका ही सर्वोपरि होती है। यही कला चेतना भी पैदा करती है। उम्मीद करें कि कल को पाकिस्तान भी इसका साझेदार होगा।

(सुबह सवेरे से साभार)

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