रोजगार की परीकथाओं में चुभते हकीकत के कंकड़

खबर अच्‍छी नहीं है। देश के लिए भी और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के लिए भी। चिंता की बात यह है कि एक तरफ प्रधानमंत्री संसद से लेकर अलग-अलग मंचों पर देश के नौजवानों को रोजगार देने संबंधी अपनी सरकार की योजनाओं का गुणगान कर रहे हैं, वहीं उन्‍हीं की सरकार का श्रम मंत्रालय कुछ और ही कहानी कह रहा है। इसका राजनीतिक नुकसान यह है ऐसी सारी कहानियां विपक्ष को बहुत सूट कर रही हैं।

मैंने अभी दो चार दिन पहले ही पकौड़ा प्रकरण पर चर्चा करते हुए इसी कॉलम में प्रधानमंत्री के उस इंटरव्‍यू का हवाला दिया था जिसमें उन्‍होंने रोजगार मुहैया कराने संबंधी अपनी सरकार के वायदों पर उठे सवालों का जवाब देते हुए बताया था कि प्रधानमंत्री मुद्रा योजना के तहत दस करोड़ लोगों को अपना कामधंधा शुरू करने के लिए चार लाख करोड़ रुपए के लोन दिए गए हैं।

प्रधानमंत्री का दावा था कि योजना के तहत लोन लेने वाले लोगों ने बड़ी संख्‍या में अपना छोटा-मोटा कारोबार शुरू किया है और इतना ही नहीं, उस कारोबार के जरिए वे खुद तो रोजगार पा ही रहे हैं, साथ में एक दो और लोगों को रोजगार मुहैया भी करा रहे हैं। अपने राज में युवाओं को बड़ी संख्‍या में रोजगार मिला है इसके प्रमाणस्‍वरूप प्रधानमंत्री ने ईपीएफ में 70 लाख लोगों के पंजीयन का हवाला भी दिया था।

बुधवार को संसद में राष्‍ट्रपति के अभिभाषण को लेकर धन्‍यवाद प्रस्‍ताव पर हुई चर्चा का समापन करते हुए भी प्रधानमंत्री ने इन्‍हीं आंकड़ों का जिक्र किया था। उनकी बात का सत्‍तारूढ़ दल के सदस्‍यों ने जोर शोर से मेजें थपथपाकर स्‍वागत भी किया था। लेकिन संसद में दिए गए उस भाषण को 24 घंटे भी नहीं बीतें होंगे कि मोदी सरकार के ही श्रम मंत्रालय की एक रिपोर्ट ने सारे दावों की हवा निकाल दी है।

श्रम मंत्रालय के लेबर ब्यूरो ने अपने वार्षिक रोजगार-बेरोजगार सर्वे में खुलासा किया है कि पिछले पांच साल में बेरोजगारी सबसे ज्यादा बढ़ी है। डेढ़ लाख से अधिक परिवारों के बीच किए गए इस सर्वे में 15 साल से ऊपर के युवाओं को शामिल किया गया था, और सर्वे से पता चला है कि बेरोजगारी की दर पिछले पांच सालों में सर्वोच्च पांच फीसदी पर पहुंच गई है।

सर्वे के मुताबिक 2011-2012 में बेरोजगारी की दर 3.8 फीसदी थी, जो 2012-2013 में 4.7 फीसदी और 2013-14 में 4.9 फीसदी हो गई थी। मोदी सरकार के सत्ता में आने के वर्ष यानी 2014-2015 में मंत्रालय ने सर्वे नहीं किया। लेकिन उसके अगले साल यानी 2015-2016 में यह दर और बढ़ गई। इस साल यह दर घटने के बजाय बढ़कर 5 फीसदी हो गई। जबकि मोदी जी ने अपनी चुनावी रैलियों में प्रतिवर्ष एक करोड़ लोगों को नौकरी देने का वादा किया था।

खबरें कहती हैं कि रोजगार के मोर्चे पर मोदी सरकार की आगे की राह भी आसान नहीं है। संयुक्त राष्ट्र की संस्था अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन ने हाल ही में जारी अपनी रिपोर्ट में कहा है कि साल 2019 तक भारत में बेरोजगारों की संख्या बढ़कर 1 करोड़ 89 लाख हो जाएगी। 2019 में कुल कर्मचारियों की संख्या 53.5 करोड़ होगी मगर उनमें से 39.8 करोड़ लोगों को उनकी योग्यता के अनुसार नौकरी नहीं मिलेगी।

ऐसे ही एक और मामले की हकीकत सुन लीजिए। प्रधानमंत्री ने बुधवार को संसद में एनपीए को कांग्रेस का पाप बताया था और कहा था कि इसके लिए सौ फीसदी कांग्रेस ही जिम्‍मेदार है। कांग्रेस ने ही गलत बैंकिंग नीतियां बनाईं, बैंकों पर दबाव डालकर चहेतों को लोन दिलवाए गए। बैंक, सरकार और बिचौलियों के गठजोड़ से देश को लूटा गया। पीएम ने दावा किया था कि हमारी सरकार आने के बाद एक भी लोन ऐसा नहीं दिया गया, जिसमें एनपीए की नौबत आई हो।

लेकिन गुरुवार को मध्‍यप्रदेश की राजधानी भोपाल के एक बड़े अखबार की विशेष रिपोर्ट कहती है कि राज्‍य की भाजपा शासित सरकार की योजनाओं के चलते बैंकों की बड़ी राशि एनपीए हो गई है। सरकार की ज्‍यादातर योजनाओं में एनपीए का प्रतिशत 10 से अधिक है। बैंकों ने इस स्थिति को चिंताजनक बताते हुए सरकार के कामकाज पर सवाल उठाए हैं।

रिपोर्ट के अनुसार बैंकों का एनपीए दो साल में कई गुना बढ़ गया है। दिसंबर-2015 तक यह 8894 करोड़ रुपए था, जो दिसंबर-2017 में बढ़कर 22,729 करोड़ रुपए पहुंच गया। सबसे अधिक बकाया राशि 92,338 करोड़ रुपए कृषि क्षेत्र में है। एजुकेशन लोन में बकाया राशि घटी है लेकिन फिर भी यह 1945 करोड़ रुपए है। मुख्यमंत्री ग्रामीण आवास योजना में कर्ज लेने वाले 93,305 लोगों के खाते एनपीए हो चुके हैं।

सरकारी योजनाओं में कर्ज लेकर उसे न चुकाने वालों की संख्या तेजी से बढ़ने के कारण बैंकों की सांसें फूल रही हैं। रिपोर्ट कहती है कि कृषि क्षेत्र में एनपीए 9.92 फीसदी, एमएसएमई में 7.68 फीसदी, शिक्षा में 6.17 और आवास में 4.04 फीसदी हो गया है। अन्‍य क्षेत्रों में यह 21.40 प्रतिशत है।

प्रधानमंत्री और मुख्‍यमंत्री के नाम पर जोर शोर से शुरू की गई विशेष योजनाओं की हालत भी खस्‍ता है। मुख्यमंत्री युवा उद्यमी योजना में एनपीए का प्रतिशत 7.39, प्रधानमंत्री रोजगार गारंटी योजना में 11.90, मुख्यमंत्री ग्रामीण आवास योजना में 13.57, स्व सहायता समूह में 12.09 और मुद्रा लोन में 6.36 फीसदी है। एक तरफ सरकारी दबाव में बैंक रोजगार और उद्योग के लिए कर्ज दे रहे हैं, दूसरी तरफ बड़ी संख्‍या में लोग ऐसे लोन और सबसिडी का फायदा उठाकर फरार हो रहे हैं।

इस तरह की ढेरों शिकायतें हैं कि सरकारी योजनाओं का लाभ दिलाने वाले दलालों के कई गिरोह सक्रिय हैं जो युवाओं को लोन दिलाने के बहाने चांदी कूट रहे हैं। बैंकों का कहना है कि कर्ज की वसूली के लिए जब उनके प्रतिनिधि संबंधित पते पर जाते हैं तो मालूम होता है कि वहां तो उस नाम का कोई व्‍यक्ति रहता ही नहीं।

मप्र लोकधन अभिनियम 1987 के तहत कलेक्टर या उनके मातहत अधिकारियों को इस तरह की वसूली करवानी होती है। लेकिन पिछले 8 साल में बैंकों की ओर से वसूली के लिए भेजे गए 7.19 लाख प्रकरणों में से 4.49 लाख प्रकरण पेंडिंग हैं और कुल 10,165 करोड़ रुपए में से 6246 करोड़ की वसूली बकाया है।

ये हालात जो कहानी कह रहे हैं, वह चमकीले भाषणों से कोसों दूर जमीनी हकीकत की कहानी है… लेकिन परीकथाओं को बांचने के इस कालखंड में इन सच्‍ची कथाओं की ओर शायद कोई झांकना भी नहीं चाहता…

 

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