जेटली के बजट का ‘पद्य’ से ‘गद्य’ पर आना..!

अजय बोकिल

केन्द्रीय वित्त मंत्री अरुण जेटली के चौथे आम बजट की अगर सांस्कृतिक दृष्टि से व्याख्या की जाए तो लुब्बो-लुआब यह होगा कि मोदी सरकार अब पद्य से गद्य पर आ गई है। चार साल पहले का रोमांटिसिज्म अब लोकलुभावन वादों और वोटखेंचू टोटकों में बदल गया है। यह महज संयोग नहीं था कि अपने तीन बजटों में हर बार कोई न कोई काव्यात्मक सुर्री छोड़ने वाले जेटली इस बार ऐसी कोई भी फुलझड़ी छोड़ने से बचते दिखाई दिए। अलबत्ता भाषण के अंत में उन्होंने महान संत स्वामी विवेकानंद के वाक्यों को कोट किया, जिन्होंने नए भारत के उदय की बात कही थी और यह भारत उदय गरीब के घर से होना था।

अमूमन हर बजट की व्याख्या, आलोचना और टीका टिप्पणी उसके राजनीतिक एंगल, विकास के विजन, आर्थिक विश्लेषण और सत्तारूढ़ सरकार की नीति और नीयत खंगालने को लेकर होती है। सत्तापक्ष की नजर में हर बजट सर्वश्रेष्ठ ही होता है तो विपक्ष की निगाह में वह सबसे कूड़ा बजट होता है। वही इस बार भी हो रहा है। यानी बजट प्रतिक्रिया का असली उद्देश्य रायदाता का अपने नंबर बढ़वाना ही रहता है। इस लिहाज से बजट अपने आप में एक बोरिंग घटना है। वह आंकड़ों के केक्टस में फूल खिलाने की कवायद है। फिर भी उसका शिद्दत से इंतजार इसलिए होता है क्योंकि देश की करोड़ों निगाहें यह तकती हैं कि बजट का उनकी अपनी जिदंगी और अरमानों पर क्या असर होगा?

सो, इस बार के बजट की एक्‍स्‍क्‍लूसिविटी को समझने के लिए उसे ‘तीसरी आंख’ से भी देखना होगा। पहली बात तो मोदी सरकार के इस चौथे और अंतिम पूर्ण बजट में कविता का पूरी तरह से गायब होना है। हालांकि यह प्रतीकात्मक है, लेकिन प्रतीकों पर राजनीति करने वालों के लिए यह काफी मायने रखती है। अतीत को याद करें तो जेटली ने बतौर वित्त मंत्री अपने पहले बजट में प्रस्तुत काव्य पंक्तियों में कहा था कि उन्हें अभी कई फूल खिलाने हैं और बाग से कई कांटे हटाने हैं।

यानी वह कुछ कर गुजरने के जज्बे का दौर था। दूसरे बजट में उनकी रोमांटिकता कुछ घटी। वे कश्ती और पतवार के रिश्तों पर आ गए। जेटली ने तब कहा था कि ‘कश्ती चलाने वालों ने जब हार के दी पतवार हमें, लहर-लहर तूफान मिले और मौज-मौज मझधार हमें। फिर भी दिखाया है हमने और फिर से दिखा देंगे सबको, इन हालात में आता है दरिया पार करना हमें।

जेटली के इस बजट काव्य में चुनौतियों का दरिया पार करते- करते नई राह पर चलने का आह्वान तो था, लेकिन भीतर एक असमंजस भी था। बजट भाषण की उन्हीं की पंक्तियां थीं- ‘जो बात नई है अपनाइए आप, डरते हैं क्यों नई राह पर चलने से आप, हम आगे आगे चलते हैं आइए आप..। लगता है आगे-आगे चलने और नए जोखिम उठाने का जोश चौथे बजट तक आते आते वोटों को दाना डालने में तब्दील हो गया है। हालांकि इसमें कुछ गलत भी नहीं है, क्योंकि लोकतंत्र का राजनीतिक तकाजा यही है।

इस बजट की एक और खास बात यह रही कि वित्त मंत्री ने बजट का कुछ हिस्सा अंग्रेजी तो कुछ हिंदी में पढ़ा। बेहतर होता कि जेटली उसे एक ही भाषा में पढ़ते। क्योंकि उनकी बोलचाल की हिंदी भले अच्छी हो, देवनागरी पढ़ने में उनकी गति प्राइमरी के स्टूडेंट सी है। फिर भी उन्होंने कोशिश की कि आम आदमी के फायदे वाला हिस्सा हिंदी में पढ़ें ताकि उसका सही राजनीतिक संदेश जाए। कॉरपोरेट वाला हिस्सा उन्होंने बाजाब्ता अंग्रेजी में और अंग्रेजीवालों के लिए पढ़ा। बजट प्रस्तुति के बाद एक नवाचार यह दिखा कि वित्त मंत्री के संपूर्ण बजट भाषण के बाद प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी उस पर अपने अंदाज में भाष्य करते दिखे। वरना अभी तक तो वित्त मंत्री के बजट भाषण को सर्वजनहिताय, विकासोन्मुखी और सकारात्मकबताकर सभी प्रधानमंत्री अपना कर्तव्य पूरा कर लेते थे।

वैसे भी बजट भाषण पढ़ते भले वित्त मंत्री हों, लेकिन होता वह प्रधानमंत्री की सोच और दृष्टि का प्रतिफल ही है। ऐसे में हाथ में पेन और कागज लेकर बजट की पुनर्व्याख्या का पीएम का नया अंदाज हैरत में डालने वाला था। गजब तो यह रहा कि पीएम के इस भाष्य के बाद भी वित्त मंत्री कुछ चैनलों पर बजट को विस्तार से समझाते दिखे। हो सकता है कि सरकार को भरोसा न हो कि उसने सदन के पटल पर जो बजट रखा-पढ़ा है, वह भारत की डफर जनता की समझ में ठीक से आया भी है या नहीं।

सरकार बार-बार समझा रही थी कि यह किसानों के हित में, गरीबों के लिए, रोजगार तलाशने वालों, महिलाओं और बूढ़ों के कल्याण के लिए है। अनजाने ही सही, इस बजट में खो-खो का भाव भी था। क्योंकि पेट्रोल-डीजल पर एक्साइज ड्यूटी में छूट की क्षणिक खुशी की जगह तुरंत सेस वृद्धि ने ले ली। महंगाई आउट होने की जगह फिर मैदान में आ गई। ‍मिडिल क्लास के पास भारत माता की जय बोलने के अलावा कुछ नहीं बचा।

बजटोत्तर माहौल में यह भी महसूस हुआ कि बजट में जिसको जो नवाजने का दावा किया गया था, उसे वैसा कुछ हासिल होने का फील शायद ही हुआ हो। टीवी चैनलों के रिपोर्टर किसानों से लेकर कारकूनों तक माइक लेकर घूमते रहे, लेकिन भंगड़े से ज्यादा मर्सिए ही सुनाई पड़े। ऐसे में अच्छे दिनों की टेक पर यह अंतरा बार-बार सुनाई दिया कि बजट में वास्तव में किस को क्या मिला? मिला भी या नहीं? या यह सिर्फ रियायतों का झुनझुना है? बजटीय व्याख्याओं के कई दौर के बाद लगा कि उम्मीदों का पंछी धड़ाम से जमीन पर आ गया है। यही अपेक्षाओं के अर्श से ठगे जाने के फर्श पर आने की मनोदशा है। ऐसे में जेटली के बजट से कविता भी गायब हो जाए तो आश्चर्य क्या?

(सुबह सवेरे से साभार)

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