जाते और आते साल के लिए इससे अच्‍छी कोई मिसाल नहीं

रविवार को जिस समय मैं यह कॉलम लिखने बैठा हूं, तो बड़ी असमंजस में हूं। मैं लिख रहा हूं 2017 के आखिरी दिन में और उसे पढ़ा जाएगा 2018 के पहले दिन। वैसे तो यह बहुत सामान्‍य सी बात है, अखबार में खबरें एक दिन पहले ही लिखी जाती हैं, जिन्‍हें दूसरे दिन पढ़ा जाता है। इस तरह लिखने और पढ़े जाने की तारीख रोज बदलती है।

लेकिन कुछ तारीखें तवारीख बन जाती हैं। इसी लिहाज से रविवार के अखबार में छपी एक खबर मुझे सारी खबरों पर भारी महसूस हुई। मेरे हिसाब से मौत में जिंदगी की खूबसूरती पैदा करती इस खबर से बेहतर किसी साल की विदाई नहीं हो सकती। और नए साल की भी यह खुशनसीबी है कि इतिहास में दफ्न होता हुआ साल उसकी झोली में जिंदगी की सौगात डालकर जा रहा है।

यह कहानी है बीस साल के उस नौजवान की, जो पिछले दो दिनों से राजधानी भोपाल के तमाम अखबारों की सुर्खियों में बना हुआ है। यह कहानी है उस परिवार की जिसने अपने लाड़ले की मौत को कई परिवारों के लिए जिंदगी का जश्‍न बना दिया। यह कहानी है उस जज्‍बे की जिसकी वजह से दस लोगों को नई जिंदगी मिलने जा रही है।

वाकया शुरू होता है भोपाल की एक सड़क पर 19 दिसंबर को हुए एक हादसे से। बीएसएस कॉलेज में बीकॉम फाइनल की पढ़ाई करने वाला 20 साल का शंशाक कोराने उस दिन अपना आखिरी पेपर देने जा रहा था। सुबह साढ़े आठ बजे उसका एक्सीडेंट हो गया। इसमें शंशाक के सिर व घुटने में गंभीर चोट आई। डॉक्‍टरों ने बहुत कोशिश की लेकिन सफलता नहीं मिली और 28 दिसंबर को शशांक को अंतिम रूप से ब्रेन डेड घोषित कर दिया गया।

शशांक के मामा योगेश पांसे अंगदान के लिए जागरूकता का काम करते हैं। अपने भांजे को ब्रेन डेड घोषित किए जाने के तुरंत बाद उन्‍होंने शशांक के पिता राजेश कोराने व अन्य परिजनों को समझाया और पूरा परिवार शशांक के अंगदान के लिए राजी हो गया। अब शशांक का दिल मुंबई के एक शख्स के सीने में धड़कता रहेगा। जबकि उसकी किडनी और लिवर से तीन लोगों को नई जिंदगी मिली है। इसी तरह शरीर के बाकी अंग भी जरूरतमंदों को नई जिंदगी देंगे।

30 दिसंबर को, जब दुनिया जाते हुए साल को विदाई देने और आते हुए साल का जश्‍न मनाने की तैयारी कर रही थी, शशांक को उसके परिजनों और शहर के सैकड़ों लोगों ने नम आंखों से मिस यू शशांक‘, ‘शशांक अमर रहे’ जैसे स्लोगन लिखे पोस्टर, बैनर के साथ अलविदा कहा। उसकी विदाई में अस्‍पताल का गलियारा फूलों से सजाया गया था। एक शहीद की तरह पुलिस बैंड ने उसे आखिरी सलामी दी।

दरअसल अंगदान को लेकर समाज में धीरे धीरे जो जागरूकता आ रही है, उसे सलाम किया जाना चाहिए। भोपाल की ही बात लें तो यहां पहला आर्गन ट्रांसप्लांट 2016 में 16 नवंबर को हुआ था। तब से लेकर अब तक 7 ब्रेन डेड मरीजों के अंगदान हो चुके हैं। इनकी 14 किडनी, 7 लिवर व एक हार्ट से 22 लोगों को नई जिंदगी मिली है। एक साल में शहर में करीब 60 नेत्रदान भी किए जा चुके हैं।

अंगदान के प्रति समाज की स्‍वीकार्यकता इसलिए भी जरूरी है क्‍योंकि हजारों की संख्‍या में ऐसे लोग हैं जिन्‍हें इस तरह अंगदान से नई जिंदगी मिल सकती है। दूसरी ओर सड़क दुर्घटना जैसे हादसों में लगातार इजाफा होता जा रहा है। ऐसे हादसों का अध्‍ययन करने वाली संस्‍था सेफ्टी फर्स्‍ट के आंकड़ों के अनुसार मध्यप्रदेश में दो साल में सड़क हादसों में 23 हजार 715 लोग मारे गए।

सड़क हादसों में मारे जाने वालों में सबसे बड़ी संख्‍या बाइक सवारों की होती है। ज्‍यादातर बाइक सवार युवा होते हैं। उनके साथ कोई हादसा होने के बाद परिवार पर क्‍या गुजरती है इसका अंदाजा भी नहीं लगाया जा सकता। लेकिन परिवार के एक सदस्‍य के चले जाने के बाद, यदि उसकी वजह से दुनिया में कई लोगों को जिंदगी मिल जाए, तो दिवंगत को याद रखने या अमर बनाने का इससे बेहतर कोई तरीका नहीं हो सकता।

देश में अंग प्रत्‍यारोपण की सुविधाएं धीरे धीरे बढ़ रही हैं। पहले जहां ऐसी सुविधा इक्‍का दुक्‍का अस्‍पतालों में ही होती थी और वो भी मुंबई, दिल्‍ली, चैन्‍नई जैसे कुछ महानगरों में, वहीं यह सुविधा अब छोटे शहरों में भी उपलब्‍ध होने लगी है। अब सरकारी अस्‍पताल भी इस दिशा में आगे बढ़ रहे हैं। मध्‍यप्रदेश में इंदौर का सरकारी एमवाय अस्‍पताल आने वाले दिनों में ऐसी सुविधा का बड़ा केंद्र बनने वाला है।

अंगदान के मामले में सबसे बड़ी जरूरत मृतक के अंगों को सही समय पर सहेजने और जरूरतमंदों तक पहुंचाने की है। इस बात की भी सराहना की जानी चाहिए कि देश के महानगरों की तर्ज पर मध्‍यप्रदेश में भी अब ऐसे अंगों को लाने ले जाने के लिए ग्रीन कॉरिडोर बनने लगे हैं। इस मामले में इंदौर ने अगुवाई की है और वहां पिछले 26 महीनों में ऐसे 29 कॉरिडोर बनाए जा चुके हैं।

जिस तरह दूसरों को जिंदगी देने के लिए अंगदान जरूरी है, उसी तरह समाज में देहदान की भी उतनी ही आवश्‍यकता है। मेडिकल की पढ़ाई करने वाले छात्रों को सीखने व परीक्षण करने के लिए मानव देह की जरूरत होती है और आवश्‍यकतानुसार मानव देह उनके लिए उपलब्‍ध नहीं हैं। ऐसे में इन दोनों मामलों को लेकर समाज में व्‍यापक जागरूकता अभियान चलना चाहिए।

चाहे अंगदान हो या देहदान, सबसे बड़ी बाधा हमारे अंधविश्‍वास और कर्मकांडी परंपराए हैं, जिनमें मृत देह के साथ किसी भी तरह की छेड़छाड़ स्‍वीकार्य नहीं है। यह धारणा बदलनी होगी। पुराणों या प्राचीन ग्रंथों का पुरावा ही चाहिए तो दधीचि से बड़ा उदाहरण कौनसा हो सकता है। उन्‍होंने असुरों से संग्राम जीतने में देवताओं की मदद करते हुए, वज्र बनाने के लिए अपनी हड्डियां तक दे दी थीं। वह अंगदान ही तो था…

 

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