अजय बोकिल
गुजरात चुनाव नतीजों के बाद जो जुमला फिर चर्चा में है, वह है ‘गुजरात मॉडल।‘ कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी और प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी में इसको लेकर रस्सीखेंच मची है। राहुल गांधी ने पार्टी की हार के बाद अपनी प्रतिक्रिया में कहा कि गुजरात की जनता ने भाजपा के विकास के गुजरात मॉडल को खारिज कर दिया है। उन्होने सीधे प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी पर हमला करते हुए कहा कि मुझे गुजरात जाकर ही पता चला कि मोदीजी का जो मॉडल है, उसे गुजरात के लोग ही नहीं मानते। इसका प्रचार बहुत अच्छा है। मार्केंटिंग बहुत अच्छी है पर यह अंदर से खोखला है। हमने जो अभियान चलाया, उसका मोदीजी जवाब नहीं दे पाए। वे जय शाह और राफेल सौदे के भ्रष्टाचार पर नहीं बोलते।
इसके विपरीत प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने कहा कि यह चुनाव विकास का चुनाव था। जनादेश इसी के पक्ष में आया है। चुनाव नतीजों ने सरकार के नोटबंदी व जीएसटी के फैसलों पर मुहर लगा दी है। हालांकि मोदी खुद गुजरात में गुजरात मॉडल पर कुछ भी बोलने से बचते रहे। मानकर कि घर की मुर्गी दाल बराबर होती है। बहरहाल गुजरात मॉडल की प्रासंगिकता और औचित्य फिर राजनीति का कोर इश्यू बनता दीख रहा है।
वैसे भी गुजरात में जबसे भाजपा सत्तासीन हुई है, तब से दो जुमले जोर-शोर से सुनाई देते रहे हैं। पहला है हिंदुत्व की प्रयोगशाला और दूसरा है गुजरात का विकास मॉडल। यह सवाल उठता है कि क्या इन दोनो में कोई अंर्तसंबंध है? क्या हिंदुत्व का कोई आर्थिक मॉडल भी है? अगर है तो उसका मूर्त रूप क्या है? या फिर हिंदुत्व केवल एक राजनीतिक सामाजिक अवधारणा है, जिसका उपयोग जीवन के हर क्षेत्र में हिंदू मतावलंबियों की दंबगई को कायम रखने के लिए है?
तो क्या हिंदुत्व केवल एक सांस्कृतिक अवधारणा भर है, जिसका आर्थिक विकास से कोई खास लेना देना नहीं है? वैसे भी हिंदुत्व के पास कोई आर्थिक विकास का कोई निश्चित और सुपरिभाषित मॉडल नहीं है। यहां दीनदयाल उपाध्याय की ‘एकात्म मानववाद’ की मध्यमार्गी थ्योरी जरूर है। लेकिन वह भी परिकल्पना के रूप में है, उसका कोई व्यावहारिक स्वरूप स्पष्ट नहीं है। इस थ्योरी से आशय मुक्त बाजार व्यवस्था का समर्थन लेकिन गरीब के कल्याण के साथ से है। फिर भी मोटे तौर पर हिंदुत्व से तात्पर्य ‘सर्वे भवंतु सुखिन:’ की वैदिक भावना से ही लिया जाना चाहिए।
गुजरात को हिंदुत्व की प्रयोगशाला इसलिए कहा गया था कि भाजपा और संघ इसे हिंदुत्व की भावना के अनुरूप आर्थिक विकास के ढांचे में ढालना चाहते थे। एक ऐसी अर्थ व्यवस्था जो आर्थिक सम्पन्नता लाए, लेकिन जिसमें सनातन धर्म की सभी खूबियां (और खामियां भी) अपने प्राचीन स्वरूप में सुरक्षित रहें। हालांकि यह इलेक्ट्रानिक लॉक को देसी चाबी से खोलने की कवायद ज्यादा है। इस अर्थ में मोदी का गुजरात मॉडल हिंदुत्व की शास्त्रीय परिभाषा से मेल नहीं खाता।
अगला प्रश्न यह हो सकता है कि अगर मोदी हिंदुत्व का प्रतीक हैं तो उनका गुजरात मॉडल है क्या? क्या वह हिंदू परंपरावाद, वर्णाश्रम पद्धति, प्राचीन ज्ञान को प्रमाण मानने का आग्रही है और इसी दायरे में आर्थिक विकास बढ़ने देना चाहता है या फिर मोदी का हिंदुत्व केवल राजनीतिक है और इसी के दायरे में पूंजीवादी आर्थिक विकास को सर्वजन हिताय की चाशनी में डुबोकर गुजरात मॉडल के रूप में पेश करता है।
हकीकत में गुजरात मॉडल की अवधारणा से तात्पर्य गुजरात में अधोसंरचना का बेहतर विकास, कानून व्यवस्था की अपेक्षाकृत अच्छी स्थिति, गुजराती अस्मिता का अभिमान और यह संदेश देना कि हिंदूवादी माहौल में ही व्यापार उद्योग गुजरात में अच्छे ढंग से फल फूल सकते हैं। हालांकि आंकड़े इसकी ज्यादा पुष्टि नहीं करते। क्योंकि सांख्यिकी में फीलिंग को नापा नहीं जा सकता।
अब जबकि राहुल गांधी कह रहे हैं कि गुजरात मॉडल खारिज हो गया है तो उसका निश्चित अर्थ क्या है? क्या इस मॉडल के तहत पेश किए गए आर्थिक विकास के आंकड़े गलत थे या फिर हिंदुत्व में लिपटी आर्थिकी के सरपट दौड़ने के दावे का गुब्बारा फूट चुका है? अथवा चुनाव रण में हारे राहुल गांधी अब अपनी नई राजनीतिक पारी की बॉलिंग क्रीज गुजरात मॉडल को रिजेक्ट करना मान रहे हैं? क्योंकि ऐसा करने से परोक्ष रूप से खुद मोदी और भाजपा की आर्थिक विकास की समझ भी खारिज होती है।
पिछले लोकसभा चुनाव में नरेन्द्र मोदी ने गुजरात मॉडल को खूब भुनाया था। उनके भाषणों का लुब्बो लुआब यही था कि अगर प्रगति का कोई प्रतिमान है तो वह गुजरात शैली का आर्थिक विकास ही है। क्योंकि यही हिंदुत्व को आर्थिक पहचान भी देता है। लेकिन गुजरात विधानसभा चुनाव में मोदी इस पर मौन ही रहे। इसका अर्थ यह है कि गुजरात मॉडल में वोटों के दोहन की शक्ति घट गई है। वह स्वयं गुजराती अस्मिता और केवल हिंदुओं की सामाजिक सुरक्षा में कैद हो गया है।
वह पागल न भी हुआ हो तो भी थोड़ा खिसक गया है। इसमें शिक्षा, रोजगार और स्वास्थ्य जैसे मुद्दे गौण हो गए हैं। शायद यही कारण है कि मोदी अब गुजरात मॉडल से ज्यादा ‘सबका साथ सबका विकास’ की बात ज्यादा करते हैं। क्योंकि यह गुजरात मॉडल की तुलना में ज्यादा समावेशी है और मोटे तौर पूरे भारत के विकास के मॉडल की बात करता है। इसमें गुजरात भी शामिल है।
तो क्या यह माना जाए कि ‘गुजरात मॉडल’ का जुमला राजनीतिक दृष्टि से आउटडेटेड हो चुका है? राहुल यह बात साफ तौर पर कह रहे हैं, लेकिन उनके पास भी इसका कोई प्रभावी विकल्प नहीं है। अर्थ तंत्र केवल सदाशयता या धार्मिक कर्मकांडों के भरोसे नहीं चलता। वह जीवन की व्यावहारिक आवश्यकताओं और भौतिक उन्नति की अदम्य आकांक्षाओं से नियंत्रित होता है।
गुजरात मॉडल की सबसे बड़ी खामी यही है कि वह अंतिम पंक्ति के अंतिम व्यक्ति के विकास का संकल्प तो जताता है, लेकिन व्यवहार के स्तर पर वह भरी झोलियों को और ज्यादा वजनदार बनाता प्रतीत होता है। कल को राहुल अगर सत्ता में आए तो इससे कैसे बचेंगे, इसका जवाब उनके पास भी शायद ही हो।
(सुबह सवेरे में प्रकाशित आलेख से साभार)