आदिवासियों की चुबंन स्पर्द्धा पर बवाल क्‍यों

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अजय बोकिल 

इधर देश की आंखें गुजरात विधानसभा चुनाव नतीजों पर लगी हैं, उधर पूर्वी राज्य झारखंड में सार्वजनिक चुंबन पर राजनीतिक बवाल मचा है। वहां विपक्षी झारखंड मुक्ति मोर्चा के विधायक साइमन मरांडी ने पाकुड़ जिले के तालपहाड़ी गांव के डुमरिया मैदान में बीते नौ दिसंबर को सिदो-कान्हू मेले के दौरान ‘दुलार-चो’ नामक प्रतियोगिता का आयोजन किया। इसमें सर्वाधिक समय तक चुंबन लेने वाले तीन जोड़ों को इनाम दिया गया। बताया जाता है कि लोगों ने इस स्पर्द्धा को ‘उत्साह’ के साथ देखा और विजेताओं के लिए तालियां बजाईं।‘दुलार चो’ के हिंदी में मानी हैं-‘प्यार का चुम्मा।

हर साल आयोजित होने वाले सिदो कान्हू मेले में कई तरह की प्रतियोगिताएं होती हैं। लेकिन इस बार ‘नवाचार’ के नाम पर चुंबन स्पर्द्धा हुई। इसका औचित्य ठहराते हुए आयोजक साइमन मरांडी ने कहा कि आदिवासी संकोची होते हैं और सार्वजनिक रूप से अपने जज्बात का इजहार करने से हिचकते हैं। इसीलिए इस सार्वजनिक चुंबन प्रतियोगिता का आयोजन किया गया।

भाजपा और हिंदू संगठन इसके पीछे ईसाई मिशनरियों का हाथ और इसे अश्लीलता को बढ़ावा देने की कोशिश मानते हैं। राज्य के मुख्यमंत्री रघुवर दास ने झामुमो पर राजनीतिक हमला करते हुए कहा कि आदिवासी हितैषी बनने का दिखावा करने वाले लोग आदिवासी संस्कृति को ही नष्ट करने में लगे हैं। चुंबन प्रतियोगिता का आयोजन समाज में विकृति फैलाने की कोशिश है।

उधर खुद को आदिवासियों की पार्टी होने का दावा करने वाला झारखंड मुक्ति मोर्चा इस मुद्दे पर असमंजस में है, हालांकि उसने कहा कि अगर यह मामला भाजपा ने विधानसभा में उठाया तो वह अपने विधायकों के पक्ष में खड़ी होगी। उधर पाकुड़ कलेक्टर ने पूरे मामले की जांच के लिए समिति गठित कर दी है।

जहां तक सवाल चुंबन का है तो यह क्रिया स्नेह और सम्मान की अभिव्यक्ति का परिचायक है। यह क्रिया होठों से होठों को मिलाकर, हाथ, माथा या सिर को चूम कर पूरी की जाती है। पश्चिम में चुंबन अभिवादन और प्रेम निवेदन का प्रतीक है तो मिस्र और कुछ ‍अन्य देशों में तीन बार गाल पर चुंबन लेकर  अभिवादन करने की परंपरा है। और यह सब सार्वजनिक रूप से ही होता है। ऐसे में आदिवासी विवाहित जोड़े भी पब्लिक किस करें तो इसमें गलत क्या है?

इस बारे में विधायक साइमन  मरांडी का तर्क है कि इस चुंबन प्रतियोगिता में आदिवासी जोड़े स्वेच्छा से शामिल हुए। मेले के पेम्फ्लेट में भी इसका जिक्र है। तब किसी ने इसका विरोध नहीं किया था। मरांडी की यह भी दलील है कि हाल के दिनों में आदिवासी समाज में तलाक़ के मामले बढ़े हैं। हमारा मानना है कि इसके ज़रिए पति-पत्नी के बीच के संबंध और प्रगाढ़ होंगे। हालांकि यह साफ नहीं है ‍कि स्पर्द्धा में शामिल होने वाले जोड़े ईसाई आदिवासी थे या गैर ईसाई आदिवासी।

भाजपा और हिंदूवादी संगठन इस तरह के आयोजन के पीछे आदिवासी संस्कृति को विकृत करने की मानसिकता देख रहे हैं। झारखंड भाजपा उपाध्यक्ष हेमलाल मुर्मू ने झामुमो को आड़े हाथ लेते हुए कहा कि उसके विधायकों ने आदिवासी संस्कृति के ख़िलाफ़ काम किया है। वे संथाल परगना को रोम और यरुशलम बनाने पर तुले हैं। हम इसे कामयाब नहीं होने देंगे। ईसाई मिशनरियों के इशारे पर काम कर रहे इन विधायकों का लोग ख़ुद विरोध कर रहे हैं। एक और आदिवासी नेता बबलू मुंडा ने कहा कि हम क्रिसमस की पूर्व संध्या पर रांची में विरोध जुलूस निकालेंगे।

यहां सवाल उठता है कि क्या आदिवासी समाज में इस तरह से सार्वजनिक चुंबन की कोई परंपरा है? इस बारे में आदिवासी धर्मगुरू बंधन तिग्गा का कहना है कि संथाल आदिवासी समाज में ऐसे आयोजनों की इजाज़त नहीं है। हमारे समाज में सरहुल, करमा जैसे त्योहार मनाए जाते हैं। इनमें लड़का-लड़की एक साथ नाचते हैं, लेकिन सार्वजनिक तौर पर चुंबन लेने की इजाज़त यह समाज नहीं देता।

भाजपा इस प्रतियोगिता की आड़ में आदिवासियों को अ-हिंदू बताने की चाल को बूझती है। जबकि कुछ आदिवासी बुद्धिजीवी भाजपा के विरोध को आदिवासियों पर हिंदू कट्टरपंथ थोपने के रूप में देख रहे हैं। जाने-माने आदिवासी कवि डॉ. अनुज लुगुन का कहना है कि आदिवासी समाज हिंदू समाज नहीं है। यह समाज शुरू से ज़्यादा स्वच्छंद रहा है। इसे किसी दायरे में बांधने की कोशिश नहीं की जानी चाहिए। इस प्रतियोगिता में कुछ भी अराजक नहीं था क्योंकि चुंबन लेने वाले विवाहित जोड़े थे और अपनी मर्ज़ी से इसमें भाग ले रहे थे। इसे मुद्दा नहीं बनाना चाहिए।

यहां सवाल यह है कि आदिवासियों में ‘झिझक’मिटाने का यह कौन सा तरीका है? अगर आदिवासी समाज में खुलापन पहले से है तो भी इसकी सार्वजनिक अभिव्यक्ति ऐसी भौंडी स्पर्द्धाओं के ‍जरिए करने में क्या तुक है? तीन साल पहले केरल में युवाओं ने दक्षिणपंथियों की मॉरल पुलिसिंग के विरोध में पब्लिक किस मूवमेंट चलाया था। जिसमें युवा जोड़े सरेआम एक दूसरे को चूम कर अपना विरोध जता रहे थे। इस आंदोलन को कोई व्यापक जन समर्थन नहीं मिला।

और फिर स्नेह चुंबन तो कभी भी लिया जा सकता है, लिया जाता भी है। भारतीय संस्कृति में वह आशीर्वाद के स्वरूप में है। यहां आपत्ति रोमांटिक चुंबन को लेकर है। भारत में हजार साल पहले खजुराहो में ऐसी प्रतिमाएं उस तत्कालीन समाज के ‘खुलेपन’को ही अभिव्यक्त करती हैं। बावजूद इसके बाकायदा प्रतियोगिता कर चूमा चाटी करने को भारतीय  समाज में कभी भी सम्मान के साथ नहीं देखा गया।

आदिवासी समाज के ‘खुलेपन’को भी किसी उद्दंडता से जोड़ना एक राजनीतिक चाल तो हो सकती है, लेकिन उस समाज के भले के लिए सोची गई सांस्कृतिक पहल नहीं हो सकती। संथाल आदिवासियों की पहचान और ‍रीति-रिवाज बगैर सार्वजनिक चूमाचाटी के भी संरक्षित किए जा सकते हैं। इसके लिए ऐसी फूहड़ प्रतियोगिताएं करने का कोई अर्थ नहीं है।

(‘सुबह सवेरे’में प्रकाशित रचना साभार)

 

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