नैतिक रूप से गुजरात ‘मॉडल’ बनने से चूक गया

दरअसल गुजरात चुनाव को व्‍यक्तिगत आरोप प्रत्‍यारोप में उलझाकर भाजपा इस देश की राजनीति की दशा और दिशा बदलने का एक स्‍वर्णिम अवसर गंवा रही है। गुजरात से बेहतर कोई रणभूमि हो ही नहीं सकती, जहां आप ‘विकास’ के तीरों का इस्‍तेमाल कर चुनावी प्रतिद्वंद्वियों को धराशायी कर दें।

अब यदि गुजरात में भी भाजपा जातिगत समीकरणों और व्‍यक्तिगत आरोप प्रत्‍यारोप में उलझी रहेगी तो फिर देश का ऐसा कौनसा प्रदेश होगा जहां कोई भी पार्टी खम ठोक कर यह कह सके कि यह है हमारी राजनीति का मॉडल। ‘सबका साथ, सबका विकास’ या ‘जात पर न पांत पर मुहर लगेगी विकास पर’ जैसे नारों की सार्थकता गुजरात के अलावा कहां परखी जा सकती है?

और मोदी से ज्‍यादा गुजरात की जीत को लेकर भला कौन आश्‍वस्‍त हो सकता है। उनका राजनीतिक ग्राफ ही गुजरात से उठकर दुनिया पर छाया है। उन्‍होंने गुजरात को और गुजरात ने उन्‍हें एक अलग पहचान दी है। 2002 बहुत पीछे छूट गया है। अब यदि बात ‘गुजरात मॉडल’की है तो वह गोधरा की आग में नहीं, सरदार सरोवर के पानी में ढूंढा जाना चाहिए। लेकिन विसंगति देखिए कि बात ‘कीचड़’ और ‘कमल’की हो रही है।

तो क्‍या यह माना जाए कि खुद भाजपा को ही ‘विकास’ या विकास के अपने ‘गुजरात मॉडल’ की राजनीतिक सफलता पर भरोसा नहीं रहा?क्‍या भाजपा देश की सत्‍ता प्राप्‍त करने के बाद भी यह मानती है कि चुनाव तो छल-छद्म या तिकड़मों से अथवा जात-पांत की राजनीति से ही जीते जा सकते हैं? यदि ऐसा है तब तो फिर देश को सोचना पड़ेगा कि वह वोट किसके लिए देता है, विकास के लिए या राजनीतिक तिकड़मबाजियों के लिए।

मत भूलिए कि गुजरात और मध्‍यप्रदेश जैसे राज्‍य भाजपा की राजनीति का मॉडल हैं। यहां पार्टी ने और पार्टी ने ही क्‍यों पार्टी के भी एक व्‍यक्ति ने एक दशक से ज्‍यादा समय तक राज किया है। यदि इन प्रदेशों में नैतिक राजनीति के ‘नवाचार’ नहीं होंगे, यदि इन प्रदेशों में राजनीति की ‘आदर्श व्‍यवस्‍था‘ कायम नहीं होगी तो फिर कहां होगी? भाजपा का मातृ और मार्गदर्शक संगठन राष्‍ट्रीय स्‍वयं सेवक संघ भी तो राजनीति में नैतिकता और शुचिता पर ही जोर देता है। तो फिर गुजरात में अलग लाइन क्‍यों ली गई?

पिछले दिनों गुजरात के पूर्व मुख्‍यमंत्री शंकरसिंह वाघेला, एबीपी न्‍यूज के कार्यक्रम ‘शिखर सम्‍मेलन में गुजरात चुनाव की असलियत बयां करते हुए कह रहे थे कि कांग्रेस 200 करोड़ खर्चा करेगी, भाजपा 500 करोड़, हम इतना पैसा कहां से लाएं? आप वाघेला को भले ही खारिज कर दें, लेकिन जो सवाल वे उठा रहे हैं उसका जवाब कौन देगा? खुद प्रधानमंत्री ने चुनाव सुधार की बात करते हुए कई बार चुनाव में धन (ज्‍यादातर कालेधन) के इस्‍तेमाल का मुद्दा उठाया है। स्‍वयं नरेंद्र मोदी ने कई बार कहा है कि चुनाव में धनबल का इस्‍तेमाल खत्‍म होना चाहिए।

तो फिर यह प्रयोग खुद भाजपा ने गुजरात से ही शुरू क्‍यों नहीं किया? क्‍यों नहीं ऐलान किया गया कि भाजपा के सारे प्रत्‍याशी इस बार केवल अपनी सरकार के काम और उम्‍मीदवार की व्‍यक्तिगत छवि को लेकर ही चुनाव मैदान में जाएंगे। वे इस बार चुनाव खर्च की सीमा से भी कम खर्च में चुनाव लड़कर दिखाएंगे।

गुजरात की बात इसीलिए तो की जा रही है कि वह भाजपा का मॉडल प्रदेश है। यदि गुजरात का विकास देश की राजनीति में ‘गुजरात मॉडल’ के नाम से विख्‍यात और प्रचारित है, तो कहीं तो इस मॉडल को स्‍थापित कीजिए। इसे और आगे बढ़ाइए। लेकिन हो क्‍या रहा है?कभी किसी की सीडी सामने आती है, तो कभी कोई नोटों की गड्डी दिखाते हुए प्रेस कॉन्‍फ्रेंस करता है कि उसे खरीदने के लिए यह पहली किस्‍त या बयाना दिया गया है।

माना कि गुजरात की प्रवृत्ति कारोबारी है, वहां का बच्‍चा भी खरीद फरोख्‍त करते हुए ही बड़ा होता है। लेकिन कारोबार में यह खरीद फरोख्‍त जायज हो सकती है, पर क्‍या राजनीति में भी? इतनी मजबूत नींव पर बने, इतने मजबूत दुर्ग को, अंदेशा क्‍यों हो रहा है खुद के कमजोर होने का या दुश्‍मन द्वारा उसके अभेद्य दुर्ग में सेंध लगा लेने का।

कोई चमत्‍कार ही हो जाए तो कहा नहीं जा सकता, लेकिन गुजरात से जो खबरें आ रही हैं, वे तमाम विपरीतताओं के बावजूद, संकेत दे रही हैं कि अंतत: गुजरात में सरकार तो भाजपा की ही बनेगी। वहां का मानस यह बताया जा रहा है कि मोदी हारेगा तो गुजरात हारेगा। ऐसे में मोदी को हराकर, क्‍या गुजरात के लोग गुजरात को ही हराना चाहेंगे? क्‍या गुजराती पूरे देश की निगाह में पराजित भाव से खड़ा होना चाहेगा?

मोदी खुद को गुजरात और गुजरात की अस्मिता से जोड़ रहे हैं। वे लोगों से सवाल पूछ रहे हैं कि गुजरात के बेटे पर कोई हमला करे तो आप उसका बदला लोगे या नहीं लोगे? वे सोमनाथ से लेकर सरदार पटेल तक, गुजरात का इतिहास खंगाल रहे हैं। दूसरी तरफ कांग्रेस के पास इस तरह का कोई ब्रह्मास्‍त्र नहीं है। इसीलिए शायद वह गुजरात में नए लड़कों की बैसाखी पर निर्भर है।

यह माना जा सकता है कि तमाम कयासों और मुश्किलों के बावजूद जीत का विश्‍वास खुद भाजपा के भीतर भी जरूर होगा। तब फिर इस चुनाव को भाजपा ने देश की राजनीति के सामने एक मॉडल चुनाव बनाने की कोशिश क्‍यों नहीं की? जिस तरह उसने विकास के मामले में गुजरात को मॉडल बनाया, उसी तरह उसने राजनीति के मामले में गुजरात को मॉडल के तौर पर देश के सामने प्रस्‍तुत क्‍यों नहीं किया?

और यदि ऐसा नहीं हुआ है तो, भाजपा के कानों में अभी से बजने वाली जीत की तमाम तुरहियों के बीच, वह स्‍वर सुना जाना जरूरी है, जो धीमे और दबे अंदाज में ही सही, लेकिन कह रहा है कि जीत के प्रति भाजपा की आश्‍वस्ति के बावजूद नैतिक रूप से गुजरात ‘मॉडल’ बनने से चूक गया।

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