इस समय जब पूरा देश ‘पद्मावती’ के पीछे पड़ा हुआ है, जब राजपूतों को संजय लीला भंसाली की फिल्म में अपने गौरवशाली इतिहास का अपमान नजर आ रहा है, जब भारतीय जनता पार्टी को इसी बहाने, सांप्रदायिक ध्रुवीकरण के चलते, गुजरात चुनाव में अपने लिए पहले से ही बह रही ‘हवा’ में और इजाफा नजर आ रहा है,जब भाजपा के अधिकांश नेता राजपूतों और राजपूतों के बहाने हिन्दू हितों की बात करते हुए ‘पद्मावती’ के विरोध में सुर से सुर मिला रहे हैं, उस समय हवा के विपरीत बात कहना सचमुच साहस का काम है।
वैसे पद्मावती प्रसंग में फिल्म उद्योग से लेकर समाज के कई वर्गों ने भंसाली और उनके बहाने ‘अभिव्यक्ति की आजादी’ का समर्थन किया है, लेकिन राजपूत ब्रिगेड के तेवरों को देखते हुए भाजपा के अधिकांश नेता और भाजपा शासित राज्यों के मुख्यमंत्री तक पद्मावती के विरोध में उतर आए हैं। ऐसे में अपनी पूर्व पार्टी के रुख से अलग बात कहना दुस्साहस ही कहा जाएगा।
और यह दुस्साहस किया है उप राष्ट्रपति वेंकैया नायडू ने। उन्होंने शनिवार को एक मीडिया समूह के कार्यक्रम में पद्मावती का विरोध करने वालों को आड़े हाथों लिया। खासतौर से उस प्रवृत्ति की नायडू ने खासी आलोचना की जिसके चलते आजकल विरोध स्वरूप लोगों की हत्या कर देने, उनका गला काट डालने, उनकी आंखें या जबान खींच लेने या नाक काट डालने जैसे ‘शूरवीरतापूर्ण’ कामों पर बढ़चढ़कर इनाम की घोषणाएं की जा रही हैं।
नायडू ने पद्मावती फिल्म का नाम लिए बिना कहा कि ‘’देश में इन दिनों कुछ फिल्मों और आर्टवर्क्स के विरोध की समस्या पैदा हुई है। कुछ लोग हिंसात्मक बयानबाजी कर रहे है, यह लोकतंत्र में स्वीकार्य नहीं है। लोकतांत्रिक तरीके से आंदोलन करने का हक सभी को है, लेकिन विरोध करने वालों को सही अथॉरिटीज के पास जाना चाहिए। कोई भी व्यक्ति किसी को शारीरिक नुकसान नहीं पहुंचा सकता या हिंसक धमकियां नहीं दे सकता। ऐसे लोग कानून के शासन को नजरअंदाज नहीं कर सकते।‘’
नायडू ने कहा ‘’अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की भी सीमाएं हैं। कुछ लोग विरोध के दौरान आगे बढ़कर इनाम घोषित कर देते हैं। लेकिन, मुझे संदेह है कि इन लोगों के पास इनाम घोषित करने के लिए पर्याप्त राशि होती भी है या नहीं। हर कोई 1 करोड़ रुपए का इनाम घोषित करने लगा है। क्या किसी के भी पास एक करोड़ रुपए होना बहुत आसान है? ऐसी धमकियां लोकतांत्रिक व्यवस्था में मंजूर नहीं की जा सकतीं।‘’
उपराष्ट्रपति ने एक और बात बहुत मार्के की कही, वे बोले- ‘’किसी भी घटना को धर्म विशेष से जोड़ना और सिलेक्टिव निंदा करना गलत है। सिलेक्टिव विरोध सही नहीं है। हमें आम लोगों की भावनाओं का सम्मान करना चाहिए। हम यह नहीं कह सकते कि एक समुदाय का विरोध सही है और दूसरे समुदाय का गलत है। जब हम सेलेक्टिव विरोध करते हैं तो उद्देश्य से भटक जाते हैं।‘’
नायडू के इस वक्तव्य में दो तीन बातें ध्यान देने योग्य हैं। पहली बात तो यह कि ये जो शारीरिक हानि पहुंचाने को लेकर ईनाम घोषित करने का फैशन सा चल पड़ा है, वह सस्ती लोकप्रियता पाने के अलावा कुछ भी नहीं है। निश्चित रूप से ऐसे लोगों के पास भले ही धेला भी न हो, लेकिन ईनाम वे करोड़ों का घोषित कर देते हैं। हालांकि ऐसी घोषणाओं को कोई गंभीरता से लेता होगा इसमें भी मुझे शक है, लेकिन यह प्रवृत्ति बहुत खतरनाक है।
यह लोगों को सीधे सीधे हिंसा के लिए भड़काना है और ऐसे मामलों में सख्त कानूनी कार्रवाई तत्काल की जानी चाहिए। जैसे ही इस तरह की कोई धमकी दी जाए उस व्यक्ति को तत्काल गिरफ्तार उसके खिलाफ मुकदमा चलना ही चाहिए। लेकिन शासन प्रशासन भी ऐसे मामलों में आमतौर पर ढिलाई बरतते हैं या फिर वे राजनीतिक अथवा किसी और रसूख के सामने नतमस्तक हो जाते हैं।
दूसरी बात जो नायडू ने कही वो यह कि ऐसे मामले संबंधित अथॉरिटीजी के पास ले जाए जाने चाहिए। लेकिन ‘पद्मावती’ के मामले में तो ऐसा कतई नहीं हो रहा। फिल्म के मामले में हमारे यहां फिल्म प्रमाणन बोर्ड यानी सेंसर बोर्ड जैसी संस्था है लेकिन उसका फैसला आने से पहले ही तमाम लोग इस पर तांडव मचाए हुए हैं। दूसरों की बात क्यों करें, खुद भाजपा शासित राज्यों के मुख्यमंत्री, जिसमें मध्यप्रदेश भी शामिल है,सेंसर बोर्ड जैसी संस्थाओं के फैसले को देखे और जाने बिना उसके पहले ही अपने यहां फिल्म को प्रतिबंधित करने जैसी घोषणाएं कर रहे हैं।
जब संवैधानिक पदों पर बैठे व्यक्ति ही संस्थाओं का सम्मान नहीं करेंगे तो फिर बचेगा क्या? फिर तो कोई भी किसी भी संस्था को जब चाहे लात मारकर अपनी मनमानी करने लगेगा। जब आपराधिक या भ्रष्टाचार संबंधी मामलों में सरकारें या नेता यह कहते हुए नहीं थकते कि यह केवल आरोप भर है और कोर्ट से फैसला नहीं आया है, तो फिर वे एक फिल्म के मामले में इंतजार क्यों नहीं कर सकते?
तीसरी बात नायडू ने ‘सिलेक्टिव विरोध’ की कही है। यह आज बहुतायत से हो रहा है। या यूं कहें कि विरोध सिर्फ सिलेक्टिव और सब्जेक्टिव ही हो गया है। हम किसी विचार या मुद्दे को लेकर विरोध नहीं करते, हम टारगेट बनाकर विरोध करते हैं। यह टारगेट कोई व्यक्ति हो सकता है, कोई समुदाय हो सकता है या फिर कोई घटना विशेष हो सकती है। उसके पीछे के कारण, उद्देश्य या असलियत को जाने बिना ही विरोध हो रहा है।
ज्यादातर मामलों में या तो विरोध के नाम पर विरोध होता है या फिर इसका उद्देश्य विशुद्ध राजनीतिक होता है। राजनीतिक रूप से हमें जो बात सूट करती है, हम उसीके अनुसार आचरण (या कदाचरण) करने लगते हैं,हमारे उस विरोध का तथ्यों, प्रमाणों, वास्तविकता से कोई लेना देना नहीं होता।
आज देश में हर मामले में यही हो रहा है। अथॉरिटीज की अवेहलना और सिलेक्टिव विरोध… यही हमारा राजनीतिक और सामाजिक चरित्र बन गया है, ऐसे में कोई सही बात कहना भी चाहे तो उसके लिए हम कोई स्पेस नहीं छोड़ रहे। आश्यर्च तो तब होता है जब ऐसे सारे लोग खुद को अभिव्यक्ति की आजादी का हिमायती कहते हैं…