इसीलिए तो छूट जाते हैं जघन्‍य अपराधों के भी दोषी

ऐसा लगता है कि इन दिनों देश में अपराध और न्‍याय व्‍यवस्‍था का बेहतरीन तमाशा चल रहा है। किसी भी समाज में अपराध होना कोई नई बात नहीं है, समाज कहीं का भी हो कोई भी आज तक अपराधविहीन नहीं हो सका है। मनुष्‍य है तो अपराध होंगे ही। लेकिन दुर्भाग्‍य से हमारा जांच और अभियोजन तंत्र, हो चुके अपराधों की जांच और दोषियों को सजा दिलवाने में लगातार कमजोर पड़ता जा रहा है।

अब गुड़गांव के रेयान इंटरनेशनल स्‍कूल का ही मामला ले लीजिए। इस स्‍कूल में 8 सितंबर को दूसरी कक्षा में पढ़ने वाले सात साल के प्रद्युम्‍न ठाकुर की हत्‍या कर दी गई थी। चूंकि रेयान एक हाईप्रोफाइल स्‍कूल है,इसलिए मामले ने और गंभीर रूप ले लिया। पुलिस ने आनन फानन में कार्रवाई कर अपनी थ्‍योरी स्‍थापित करते हुए फतवा दे दिया कि स्‍कूल की बस का एक कंडक्‍टर ही बच्‍चे की हत्‍या का दोषी है।

लेकिन यहां मानना होगा बच्‍चे के मां-बाप को, या तो उन्‍हें कहीं से कोई सूचना मिली होगी या फिर उन्‍हें खुद ही किसी कारण से खुटका हुआ होगा, कि उन्‍होंने पुलिस जांच पर भरोसा नहीं किया। वे पहले दिन से यह मांग करते रहे कि मामले की जांच सीबीआई से करवाई जाए। उनका यह भी आरोप था कि मामले को बहुत ऊंचे स्‍तर से दबाने की कोशिशें चल रही हैं।

सीबीआई जांच की मांग को लेकर प्रद्युम्‍न के पिता सुप्रीम कोर्ट तक गए। हालांकि कोर्ट कोई फैसला सुनाता उससे पहले ही हरियाणा के मुख्‍यमंत्री मनोहरलाल खट्टर ने ऐलान कर दिया कि परिवारवालों की भावना का ध्‍यान रखते हुए मामला जांच के लिए सीबीआई को सौंपा जा रहा है।

तब से सीबीआई इस मामले की जांच कर रही थी और हाल ही में उसने पुलिस की थ्‍योरी से अलग, स्‍कूल के ही 11 वीं कक्षा के एक छात्र को हत्‍या का दोषी बताया है। शुक्रवार को तो एक और चौंकाने वाली घटनाक्रम में यह बात भी सामने आई कि उस छात्र का एक सहयोगी भी इस अपराध में शामिल होने की आशंका है।

दुर्भाग्‍य से इस मामले में अब पुलिस और सीबीआई की जांचें आमने सामने हैं। चाहे पुलिस हो या सीबीआई दोनों ही देश की जांच एजेंसियां हैं। उनके स्‍तर में फर्क हो सकता है, लेकिन काम दोनों का एक ही है,अपराध की तह में जाकर अपराधियों को पकड़ना और उन्‍हें सजा दिलवाना। लेकिन गुड़गांव के मामले में जो रायता फैला है उसे समेटना पुलिस और सीबीआई दोनों के लिए आसान नहीं होगा और हो सकता है कि इस चक्‍कर में बच्‍चे की हत्‍या का आरोपी छूट जाए।

ठीक ऐसा ही रायता पुलिस और सीबीआई ने बरसों से चले रहे आरुषि हत्‍याकांड में भी फैलाया था। पहले उसके मां-बाप तलवार दंपति के नौकर को फंसाया, फिर खुद तलवार दंपति को दोषी करार दिया। तलवार दंपति के साथ सजा और रिहाई का चूहे बिल्‍ली वाला खेल चलता रहा। पिछले दिनों ही हाईकोर्ट ने तलवार दंपति को दोषी मानने से इनकार किया है और वे जेल से बाहर आ सके हैं।

जांच एजेंसियों या अभियोजन तंत्र में काम करने वाले लोगों की योग्‍यता और मानसिकता के ऐसे कई उदाहरण हमें देखने को मिल जाएंगे जहां उन्‍होंने गंभीर से गंभीर मामलों में ऐसी चूकें कीं या लापरवाहिया बरतीं कि सही मुजरिम कानून के शिकंजे से आसानी से बरी हो गए। अव्‍वल तो वे पकड़े ही नहीं जा सके और यदि पकड़े भी गए तो जांच एंजेसियों की पोची दलीलें कोर्ट में ठहर नहीं पाईं।

ज्‍यादा दूर क्‍यों जाएं, अभी अभी हुआ अपने भोपाल का मामला ही ले लीजिए। 31 अक्‍टूबर को हुई गैंग रेप की घटना की शिकार युवती की मेडिकल जांच के दौरान संबधित डॉक्‍टर ने सारा मामला ही ‘सहमति’ से हुआ बता दिया। खबरें कहती हैं कि जिस डॉक्‍टर ने रिपोर्ट लिखी उसे victim और accuse जैसे शब्‍दों का अंतर ही मालूम नहीं है।

लीपापोती अभियान को पुख्‍ता बनाते हुए कहा जा रहा है कि वह रिपोर्ट एक जूनियर डॉक्‍टर ने लिखी थी और मामला पकड़ में आने पर सीनियर डॉक्‍टर ने दुबारा सही रिपोर्ट बनाकर सौंपी है। कुछ खबरें कह रही हैं कि गैंगरेप को रजामंदी से हुआ बताने वाली रिपोर्ट जीआरपी थाने तक पहुंच गई थी और वहां से ध्‍यान दिलाए जाने के बाद रिपोर्ट को फिर से मेडिको लीगल टीम के पास भेजा गया और तब जाकर उसमें करेक्‍शन हुआ।

मैं तो मानता हूं कि इस मामले में अपराधियों की ‘बदकिस्‍मती’ ही रही होगी कि समय रहते मेडिको लीगल रिपोर्ट की वह भयानक गलती पकड़ में आ गई, वरना अदालत में पुलिस की क्‍या हालत होती इसका अंदाजा लगाना मुश्किल नहीं है। लेकिन यह कोई पहली और आखिरी गलती नहीं है। पहले भी न जाने कितने मामलों में ऐसी ही रिपोर्टें दी जाती रही होंगी और ऐसे ही जघन्‍य अपराधों के दोषी छूट जाते रहे होंगे।

और छूटने की बात से याद आया कि जिस डॉक्‍टर ने ऐसी भयानक गलती की उसे बचाने के लिए भी तंत्र खड़ा हो गया है। मीडिया में एक ऑडियो वायरल हो रहा है जिसमें मंत्रालय के एक वरिष्‍ठ अफसर और सुलतानिया अस्‍पताल के अधीक्षक की कथित बातचीत है। इसमें अफसर चिंता करते हुए अधीक्षक से कह रहा है कि गलत रिपोर्ट देनी वाली डॉक्‍टर का कुछ नहीं बिगड़ना चाहिए और अस्‍पताल अधीक्षक ठहाका लगाते हुए जवाब दे रहा है- ‘’अरे नहीं, मानवीय भूल हुई है। हा हा हा, कुछ नहीं होगा।‘’

कुल मिलाकर पूरे तंत्र में भयंकर से भयंकर अमानवीय मामलों में ऐसी ही ‘मानवीय भूलें’ हो रही हैं, ज्‍यादातर जानबूझकर और कभी कभी अनजाने में… तंत्र इसी की आड़ में ठहाका लगा रहा है और पीडि़त अपनी किस्‍मत पर सिसकने को मजबूर हैं…

 

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