मानना पड़ेगा कि सरदार ऐसे ही थे…

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गुजरात में नर्मदा नदी पर बने सरदार सरोवर मुख्य बांध के 3 किमी अंदर साधु टापू पर देश के पहले गृह मंत्री लौह पुरुष सरदार वल्लभ भाई पटेल की विशाल मूर्ति स्थापित की जा रही है। ‘स्टेच्यू ऑफ यूनिटी’ के नाम से स्थापित होने वाली 182 मीटर ऊंची इस प्रतिमा का करीब 8 मीटर ऊंचा सिर शुक्रवार को नई दिल्ली से गुजरात के केवडि़या पहुंच गया।
मूर्ति के इस हिस्से की तसवीरें अखबारों में प्रकाशित होने के बाद मध्यप्रदेश के पूर्व मंत्री रमाशंकर सिंह ने इस पर पठनीय टिप्‍पणी की है। हम अपने पाठकों के लिए वह टिप्पणी उनकी फेसबुक वॉल से साभार प्रकाशित कर रहे हैं…
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मानना पड़ेगा कि सरदार ऐसे ही थे
अब जब यह विराटमूर्ति सरदार सरोवर के मानवनिर्मित टापू पर लग जायेगी तो मानना पड़ेगा कि सरदार ऐसे ही थे, ऐसे ही दिखते थे और इसी मुखमुद्रा से उनके बारे में लोग सोचेंगें। इतने ही झुंझलाहट भरे, नथुने फुलाये, बीमार से, कुछ कुछ कनफ्यूज जैसे होंगे, पर लौहपुरुष का भाव किसे दिख रहा है? यहां तो लोहे को भी गंदा पीला सुनहरा जैसा दिखा रहे हैं
मान लिया कि राजनेताओं और नौकरशाहों को मूर्तिशिल्प की जानकारी होना आवश्यक नहीं है पर उनकी मर्ज़ी से ही या उनकी निजी अवधारणा से ही सब महापुरुषों की मुखमुद्रा तय होगी तो फिर तो एक न एक दिन भविष्य इन सबको नष्ट कर पुनर्निर्माण करने का फ़ैसला ही लेगा। यह क्या ज़रूरी है कि मूर्तियों को इतना यथार्थपरक रियलिस्टिक बनाना चाहिये? उनमें व्यक्तित्व का तत्व प्रकट होना चाहिये या फिर विराट के निर्माण की बदसूरती को अनदेखा करना। अभी तो शिवाजी महाराज और श्रीराम की विराट मूर्ति का खेल होना शेष है! उनकी बात बाद में जब वे बनेंगी।
शिल्पी रामसुतार द्वारा बनांई संसद परिसर में स्थापित ध्यानमग्न गांधी की एक श्रेष्ठ रियलिस्टिक मूर्ति है, और भी बहुतेरी होंगीं पर हाल के कुछ दशकों में बदसूरत मूर्तियों को सार्वजनिक स्थानों पर कौवों द्वारा बीटसज्जा कराने का धंधा बहुत चल निकला है। पूरा भारत पहले छोटी या मानव आकार की बदसूरत मूर्तियों से भरा हुआ था अब बडी विराट कुरूपता लिये महाकाय कथित मूर्तियों की विद्रूपता से डरावना दिखेगा! इसका श्रेय मुख्यत: जाति के वोट बैंकों, जाति के अहं की खुजली सहलाने वाले नेताओं व नगर निगमों के अफसरों को जाता है जो एक निश्चित कमीशन लेकर चौराहों पर कुछ भी स्थापित कर देते हैं और नेताजी मंत्री जी को सिर्फ अनावरण की नाम पट्टिका में अपने नाम को निहारने का ही समय मिलता है।
कुछ बेहद घटिया पर व्यावसायिक रूप से सफल मूर्तिकारों की फैक्ट्रियां है जहां पगड़ियाँ, पांव, जूते, टाँगें, हाथ, घोड़े, अस्त्र शस्त्र, आभूषण, छतरी एवं सैनिक सब बने बनाये छिपा कर रखे होते हैं और फ़िक्स की गई क़ीमत के अनुसार जड़ दिये जाते हैं। तभी महाराणा प्रताप का चेतक खच्चर जैसा दिखता है और महाराजा XYZ की पगड़ी बगैर समयकाल, अंचल परंपरा का अध्यंयन किये सब पर फ़िट कर दी जाती है। नेताजी खुश, नगरनिगम का अफसर और मूर्तिकार मालामाल, पर नगर की उसकी भावी युवा पीढ़ी के सौंदर्यबोध की ऐसीतैसी। हू केयर्स?
बड़े बड़े पर्वतों को काटकर कई स्थानों पर विदेशों में श्रेष्ठ व अतिसुंदर व्यक्ति चित्र उकेरे गए हैं। स्किल, कलाबोध, अनुभव, अनुपात की गहरी समझ के साथ उस व्यक्तित्व का भी गहरा अध्धयन होगा तब कोई बढि़या मूर्ति गढ़ी जा सकती है और उसकी समय सीमा को भी कलाकार ही तय करता है, राजनेता नहीं। कोई आगामी चुनाव की तारीख़ नहीं।
मैं सिहर उठता हूँ यह सोचकर कि 110 मीटर के श्रीराम सरयू किनारे अगले यूपी चुनाव के पहले स्थापित करने का फ़ैसला हो जाये और कोई रिलायंस, एलएंडटी के माध्यम से चीनी फैक्ट्री ठेका ले ले! 110 मीटर के राम को देखने के लिये कम से कम एक डेढ़ किमी का खुला सुंदर स्थान हो जहां एंटीरोमियो स्क्वाड, यूपी पुलिस के बदतमीज़ सिपाही, चौकीदार, गुटका थूकू गंदी गाली बकू लोग, बताशे फेंक कर प्रसाद चढ़ाने वाले न हों।
यह कैसे संभव है कि यदि देसी पर्यटक वहां आने लग जायें तो सारे महामंडलेश्वर, अखाड़े, पतंजलि मेगा स्टोर्स वहां के आसपास की ज़मीन की लीज मुमं से न लेकर आश्रम के नाम पर कुरूप होटल न खडे कर लें? और असली बात यह कि वहां खड़े राम कैसे होंगे? कैसे दिखेंगे? युद्धरत या विरह में या राजा रूप में? अयोध्या की सरयू ने सब रूपों में राम को देखा सिवाय युद्धरत, और अयोध्या का तो अर्थ ही इतना सुंदर कि युद्ध की वहां चर्चा भी बेकार! लेकिन पिछले कुछ बरसों से तो प्रत्यंचा चढ़ाये क्रोधित युद्धरत राम के ही चित्र समाज में घूम रहे हैं।
जब इन बातों पर विचार होगा तो कोई संस्था के स्वयंभू राम विशेषज्ञ अपनी राय मूर्ति निर्माता को दें देंगे और तुलसी बेचारे मुँह बाए 110 मीटर के श्रीराम को देखकर अपने मानस का पुनर्पाठ कर ग़लतियों को खोज रहे होंगें! इस देश में मूर्ति बनाकर बहुतों के साथ दुराचार, अन्याय हुआ पर जितना गांधी और आंबेडकर के साथ हुआ उतना किसी और के साथ नहीं। हर शहर गांव में जहां आंबेडकर या गांधी की मूर्ति लगाई उसे देखकर प्रहसन का एक महाग्रंथ या टीवी सीरियल बन सकता है।
हंगरी में रूस के खिलाफ विद्रोह होने के बाद सारे कम्युनिस्ट नेताओं की मूर्तियां जनता ने तोड़ीं तो उनके टुकड़ों को प्रदर्शित करने बुडापेस्ट शहर से दूर एक बग़ीचा बना दिया गया है, कौन वहाँ जाता है? फ़िलहाल तो जिन मूर्तियों पर कौवे बीट कर रहे हैं उनके उपर एक ही आकार की छतरियां लग रही हैं जिससे वे और ज़्यादा हास्यास्पद दिखें।

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