खबर आई है कि राजभाषा संसदीय समिति की सिफारिश राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी ने स्वीकार कर ली है। इस समिति की एक प्रमुख सिफारिश यह है कि‘’राष्ट्रपति और ऐसे सभी मंत्रियों और अधिकारियों को हिंदी में ही भाषण और बयान देना चाहिए, जो हिंदी पढ़ और बोल सकते हों।‘’
मुखर्जी ने जिन अन्य सिफारिशों को स्वीकार किया है, उनमें एयर इंडिया के टिकटों पर हिंदी का इस्तेमाल करने, एयर इंडिया के विमानों में आधी से ज्यादा हिंदी की पत्रिकाएं और अखबार देने और केंद्र सरकार के कार्यालयों में अंग्रेजी की तुलना में हिंदी की पत्र-पत्रिकाओं और किताबों की ज्यादा खरीदारी करने की बात शामिल है।
मानव संसाधन विकास मंत्रालय गैर हिंदीभाषी राज्यों के विश्वविद्यालयों से कहेगा कि वे छात्रों को परीक्षाओं और साक्षात्कारों में हिंदी में उत्तर देने का विकल्प दें। सरकारी संवाद में कठिन हिंदी शब्दों के उपयोग से बचने और हिंदी शब्दों के अंग्रेजी लिप्यंतरण का एक शब्दकोष तैयार करने की बात भी मंजूर की गई है। उदाहरण देते हुए बताया गया है कि ’डीमॉनेटाइजेशन जैसे शब्दों के लिए विमुद्रीकरण के बजाय आम बोलचाल में प्रचलित नोटबंदी जैसे शब्द का उपयोग किया जा सकता है।’
राष्ट्रपति ने गृह मंत्री की अध्यक्षता वाली इस समिति की कई सिफारिशें खारिज भी की हैं। खारिज की जाने वाली एक महत्वपूर्ण सिफारिश यह है किसीबीएसई से जुड़े सभी स्कूलों और केंद्रीय विद्यालयों में कक्षा 10 तक, हिंदी को अनिवार्य विषय के रूप में पढ़ाया जाए। अभी इन स्कूलों में कक्षा 8 तक ही हिंदी पढ़ना अनिवार्य है। इस सिफारिश के बारे में यह स्पष्टीकरण दिया गया है कि हिंदी भाषी राज्यों में वहां की सरकार से सलाह मशविरा करने के बाद नीति बनाकर ही ऐसा किया जा सकता है।
इसके अलावा सरकारी नौकरी के लिए हिंदी की न्यूनतम जानकारी को अनिवार्य बनाने वाली सिफारिश भी मंजूर नहीं की गई है। यह सिफारिश भी नहीं मानी गई है कि पब्लिक शेयरहोल्डिंग वाली कंपनियों में पत्राचार के लिए हिंदी का उपयोग सुनिश्चित किया जाए और प्राइवेट कंपनियों के लिए अपने उत्पादों के नाम और उनसे जुड़ी सूचना हिंदी में देना अनिवार्य हो।
समिति की इन सिफारिशों के बहाने ही सही, बहुत संभव है कि अब कुछ दिन मीडिया में हिंदी की बात भी हो। लेकिन मैं यहां अपने खुद के अनुभव के आधार पर एक महत्वपूर्ण मुद्दे की ओर ध्यान आकर्षित करना चाहता हूं। और वह यह कि कागजों पर तो ऐसी सिफारिशें अनंत काल से की जाती रही हैं, सवाल यह है कि वे वास्तविक रूप में अमल में कब लाई जाएंगी? बात सिफारिशों की नहीं, सरकार में बैठे लोगों की मानसिकता की है जो हिंदी को आगे आने ही नहीं देना चाहते।
आपको यकीन न हो तो एक घटना सुन लीजिए। यह घटना भी उन्हीं राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी से जुड़ी है जिन्होंने राजभाषा पर संसदीय समिति की सिफारिशों को स्वीकार किया है। संयोग से यह घटना भी ठीक एक साल पुरानी यानी 17 अप्रैल 2016 की है। प्रणव दा 16 अप्रैल 2016 को भोपाल आए थे और यहां उन्होंने राष्ट्रीय न्यायिक अकादमी में सुप्रीम कोर्ट न्यायाधीशों के चौथे रिट्रीट कार्यक्रम को संबोधित किया था।
मुझे राष्ट्रपति के उस भाषण को लेकर अपने इसी कॉलम में कुछ लिखना था। चूंकि मामला संवेदनशील था इसलिए मैंने प्रणव मुखर्जी द्वारा उस कार्यक्रम में दिए गए भाषण का हिंदी अनुवाद राष्ट्रपति की वेबसाइट पर ही तलाशा। मुझे यह जानकर घोर निराशा हुई कि 24 घंटे बीत जाने के बाद भी राष्ट्रपति के भाषण का हिंदी अनुवाद उनकी वेबसाइट पर नहीं डला था। 17 अप्रैल 2016 का राष्ट्रपति की वेबसाइट का वह स्क्रीन शॉट आज भी मेरे पास सुरक्षित है जिसमें अद्यतन हिंदी भाषण सात दिन पुराना डला हुआ था जो प्रणव मुखर्जी ने अर्जुनसिंह स्मृति व्याख्यान में दिया था।
मुझे यह जानकर बहुत धक्का लगा और मैंने उसी दिन राष्ट्रपति की वेबसाइट पर फीडबैक कॉलम में अपनी आपत्ति दर्ज करवाते हुए अनुरोध किया कि राष्ट्रपति भवन का इतना बड़ा तामझाम यह तो कर ही सकता है कि राष्ट्रपतिजी के भाषण का हिंदी अनुवाद तत्काल उपलब्ध करा दे। लेकिन हिंदी का दुर्भाग्य देखिए कि व्यवस्था में सुधार होना तो दूर, मेरे पास उस शिकायत/सुझाव की पावती तक नहीं आई।
और ज्यादा दूर क्यों जाएं…! आज 17 अप्रैल 2017 को जब मैं यह कॉलम लिख रहा हूं तब भी हाल वही ढाक के तीन पात वाला ही है। राष्ट्रपति की अंग्रेजी वेबसाइट में सबसे ताजा भाषण 15 अप्रैल 2017 का यानी दो दिन पुराना है और हिंदी वेबसाइट में यह 31 जनवरी 2016 का यानी करीब साढ़े तीन माह पुराना है। इस बीच राष्ट्रपति के 17 भाषण अंग्रेजी वेबसाइट पर अपलोड हो चुके हैं।
कहने का आशय यह कि इन सिफारिशों विफारिशों से कुछ नहीं होने वाला। देश आजाद होने के बाद हिंदी को लेकर ऐसी हजारों सिफारिशें आई होंगी… लेकिन वे हमेशा अंग्रेजी मानसिकता के कूड़ेदान में डाल दी गईं। जब सर्वोच्च स्तर पर हिंदी की यह उपेक्षा है तो ऐसी सिफारिशों के चोचले का कोई मतलब नहीं निकलता।
वैसे मेरा मानना है कि हिंदी अपनी तरक्की के लिए किसी सिफारिशी चिट्ठी की मोहताज भी नहीं है। वह आज तक अपनी ताकत के बूते ही बढ़ी है और निश्चित तौर पर आगे भी अपनी ताकत से ही बढ़ती रहेगी…