मध्यप्रदेश की राजधानी भोपाल में कई दिनों से एक तमाशा चल रहा है। हो सकता है ऐसे ही तमाशे देश प्रदेश के कई शहरों में अलग अलग मुद्दों पर चल रहे हों। लेकिन चूंकि मैं भोपाल में हूं और कई दिनों से इससे जुड़ी खबरें पढ़ रहा हूं, इसलिए मुझे लगता है कि इस पर बात होनी चाहिए।
यह तमाशा राजधानी के स्कूल और कॉलेज में बच्चों को लाने ले जाने वाली बसों में स्पीड गवर्नर, जीपीएस सिस्टम और सीसीटीवी लगाने का है। जिला प्रशासन ने बस चलाने वालों को 15 अप्रैल तक ये सारी व्यवस्थाएं करने का अल्टीमेटम दिया था, लेकिन बस वाले तारीख आगे बढ़ाने और कुछ आदेश वापस लेने की मांग पर अड़े हुए हैं।
अब पहले इस मामले की पृष्ठभूमि समझ लीजिए। दरअसल सार्वजनिक परिवहन में लगे वाहनों की गति सीमा को नियंत्रित करने का मामला सुप्रीम कोर्ट में लंबे समय से चल रहा है। इस बारे में कोर्ट में एक गैर सरकारी संगठन सुरक्षा फाउंडेशन ने याचिका लगाकर मांग की थी कि देश भर में ऐसे सभी वाहनों में स्पीड गवर्नर लगाने के आदेश दिए जाएं।
सुप्रीम कोर्ट ने नवंबर 2015 में इस संबंध में सभी राज्य सरकारों व केंद्र शासित प्रदेशों से जवाब मांगा था। उसने यह भी पूछा था कि मोटरयान अधिनियम के तहत इस तरह के स्पीड गवर्नर लगाए जाने चाहिए, लेकिन कुछ खास यात्री वाहनों और वाणिज्यिक वाहनों को इससे छूट देने का जो आदेश सरकार ने जारी किया गया है उसका औचित्य क्या है?
सुरक्षा फाउंडेशन ने कुछ श्रेणी के यात्री एवं वाणिज्यिक वाहनों को इस तरह से छूट दिए जाने के 15 अप्रैल 2015 के केंद्र सरकार के आदेश का विरोध करते हुए दलील दी थी कि ऐसे वाहन अपनी गति नियंत्रित न रख पाने के कारण बड़े पैमाने पर सड़क दुर्घटनाओं का कारण बन रहे हैं और इन दुर्घटनाओं में कई लोगों की मौत हो रही है।
इसी साल जनवरी में जब मामले की सुनवाई हुई तो दस राज्यों की ओर से कोई जवाब ही पेश न किए जाने पर सुप्रीम कोर्ट ने खासी नाराजी जताई। इन राज्यों में मध्यप्रदेश के अलावा आंध्रप्रदेश, असम, नागालैंड,सिक्किम, तमिलनाडु, दिल्ली, त्रिपुरा, बिहार और राजस्थान शामिल हैं। कोर्ट ने इन राज्यों के उदासीन रवैये पर तीखी प्रतिक्रिया जताते हुए कहा था कि ‘’यह सुप्रीम कोर्ट है कोई मजाक नहीं, इसे इतने हलके ढंग से न लें…’’
तो भोपाल में प्रशासन जो कार्रवाई कर रहा है उसके पीछे मूलत: सुप्रीम कोर्ट का डंडा है। जब सुप्रीम कोर्ट में राज्यों को फटकार पड़ी तो आनन फानन में सरकारें नींद से जागीं और उन्होंने ऐसे वाहन संचालकों को स्पीड गवर्नर आदि लगाने के निर्देश जारी किए। भोपाल में शिक्षा संस्थानों में लगी बसों को ऐसे तमाम उपकरण लगाने के लिए 15 अप्रैल तक की मोहलत दी गई थी। लेकिन वह तारीख निकल जाने के बाद भी ज्यादातर बस संचालकों ने आदेश का पालन नहीं किया है।
हालांकि कोर्ट ने स्पीड गवर्नर की बात की है, लेकिन राजधानी प्रशासन ने शिक्षा संस्थानों के लिए चलने वाली बसों में जीपीएस और सीसीटीवी कैमरे लगाने को भी कहा है। मूल रूप से ये तीनों उपकरण, खासतौर से स्कूल व कॉलेज आदि के लिए चलाई जाने वाली बसों में तो लगना ही चाहिए। भोपाल में ही पिछले दिनों स्कूल बसों की कई दुर्घटनाएं हो चुकी हैं जिनमें अनेक बच्चे घायल हुए हैं। इसके अलावा बच्चों के साथ होने वाली आपराधिक गतिविधियां जिनमें यौन शोषण जैसे अपराध भी शामिल हैं, रोकने के लिहाज से सीसीटीवी कैमरे भी बहुत जरूरी हैं।
यह बात समझ से परे है कि बस संचालक इस मामले में इतना अडि़यल रवैया क्यों अपनाए हुए हैं। आश्चर्य की बात तो यह है कि बस ऑपरेटर्स एसोसिएशन ने जिला प्रशासन के आदेश का विरोध करते हुए जो मांग पत्र सौंपा है उसमें पहली मांग ही यही है कि स्कूल बसों में जीपीएस और सीसीटीवी कैमरे की अनिवार्यता समाप्त की जाए। इसके अलावा उन्होंने टैक्स रियायत संबंधी कई मांगों को भी इसके साथ नत्थी कर दिया है।
इस प्रसंग को तमाशा मैंने इसलिए कहा क्योंकि एक तरफ सुप्रीम कोर्ट का निर्देश और बच्चों की सुरक्षा का मामला है और दूसरी तरफ बस संचालक सीनाजोरी करते हुए धमकी दे रहे हैं कि यदि उनकी मांगें नहीं मानी गईं और उन्हें बाध्य किया गया तो वे बसें खड़ी कर हड़ताल पर चले जाएंगे। यानी बच्चों को स्कूल कॉलेज ले जाने व लाने का काम नहीं करेंगे।
जिला प्रशासन के मुताबिक बस संचालकों को पिछले दो साल से ये उपकरण लगाने के बारे में कहा जा रहा है। अब उन्हें और समय नहीं दिया जा सकता। यदि वे आदेश का पालन नहीं करते तो उनके खिलाफ कानूनी कार्रवाई की जाएगी। अकेले भोपाल में ही करीब 2500 स्कूल बसें संचालित हो रही हैं जिनमें से अभी तक सिर्फ 600 में ही ट्रेकिंग डिवाइस लगी है।
कानूनी प्रावधान और सुप्रीम कोर्ट के निर्देश के बावजूद कानून कायदों का पालन नहीं हो पाना बहुत चिंताजनक है। स्पीड गवर्नर, जीपीएस सिस्टम या सीसीटीवी कैमरे ऐसी व्यवस्थाएं हैं जो सीधे-सीधे यात्रियों की सुरक्षा से जुड़ी हैं। इन पर कोई समझौता नहीं किया जा सकता। ऐसे मामलों में राजनीतिक दबाव और प्रशासनिक अक्षमता का मसला अपनी जगह है, लेकिन बड़ी विडंबना यह है कि ऐसे मुद्दों पर सरकारी अमले को समाज का अपेक्षित सहयोग भी नहीं मिल पाता।
क्या ऐसे मामलों में समाज को भी अपने तरफ से दबाव नहीं बनाना चाहिए…