मंगलवार को भोपाल के माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय में स्व. माखनलाल चतुर्वेदी जी के जन्म दिवस पर एक कार्यक्रम रखा गया। मैं भी इस कार्यक्रम में शामिल हुआ। वहां विश्वविद्यालय के कुलाधिसचिव (रेक्टर) लाजपत आहूजा ने दादा माखनलाल जी से संबंधित एक प्रसंग सुनाया।
प्रसंग 1920 का, यानी करीब-करीब सौ साल पुराना हो चला है। इसके मुताबिक दादा माखनलाल चतुर्वेदी ने एक बार अपनी यात्रा के दौरान अखबार में विज्ञापन पढ़ा कि अंग्रेज सरकार मध्यप्रदेश के सागर जिले के रतौना में मशीनी कसाईखाना खोलने जा रही है। खासतौर से गोवंश का मांस तैयार करने वाला यह कसाई खाना बहुत बड़े पैमाने पर बनने वाला था और इसमें प्रतिदिन 2500 गायों को काटने की तैयारी थी।
इस संबंध में कंपनी का प्रस्ताव (प्रास्पेक्टस) 3 जुलाई, 1920 को ‘हितवाद‘ अखबार में पूरे तीन पृष्ठ में प्रकाशित हुआ था। इसे पढ़ कर माखनलाल जी काफी विचलित हुए और उन्होंने अपने समाचार पत्र ‘कर्मवीर’ के जरिए इसके खिलाफ आंदोलन छेड़ दिया।
जो जानकारी मिलती है उसके मुताबिक ‘कर्मवीर’ में इस कत्लखाने के खिलाफ पहला संपादकीय 17 जुलाई, 1920 को छपा। इसके बाद अगले तीन माह तक माखनलाल जी ने जगह-जगह जाकर इस कत्लखाने के खिलाफ भाषण किए। उनकी पहल से यह आंदोलन राष्ट्रव्यापी हो गया। संदर्भ बताते हैं कि इससे पहले जबलपुर से प्रकाशित समाचार पत्र ‘ताज’ के सम्पादक ताजुद्दीन, इस कसाईखाने के विरोध में लेख लिख चुके थे।
माखनलाल जी के प्रयासों से खड़े हुए इस आंदोलन में हिन्दू-मुस्लिम दोनों समुदाय के लोगों ने बढ़-चढ़कर भाग लिया। सागर के भाई अब्दुल गनी इसमें प्रमुख थे। लाला लाजपत राय के समाचार पत्र ‘वन्देमातरम्’ के अलावा इस कसाईखाने का विरोध करने वाली खबरें भारतमित्र (कलकत्ता), स्वदेश (गोरखपुर), पाटिलपुत्र (बांकिपुर), लोकमत आदि अखबारों में भी छपी।
विरोध इतना बढ़ा कि अंतत: अंग्रेज सरकार को अपना फैसला वापस लेने पर मजबूर होना पड़ा। करीब तीन महीने चले इस आंदोलन की सफलता के बाद माखनलाल जी ने 18 सितंबर, 1920 को ‘कर्मवीर’ में ही समाचार प्रकाशित कर जनता को जानकारी दी कि ब्रिटिश सरकार ने कसाईखाना खोलने का फैसला वापस ले लिया है।
माखनलाल जी की जयंती पर आयोजित कार्यक्रम में यह संदर्भ सुनने के बाद मैं सोचता रहा कि क्या वास्तव में हमारा देश आगे बढ़ रहा है या हम जहां के तहां खड़े हुए हैं। यह सवाल उठाने के पीछे मेरी मंशा पिछले 100 सालों में हुई देश की भौतिक तरक्की को खारिज करने की कतई नहीं हैं। लेकिन एक संचार या मीडियाकर्मी होने के नाते जब मैं इस घटना पर सोचता हूं, तो कई सारे सवाल जहन में तैरने लगते हैं।
भारतीय समाज की विडंबना देखिये कि आज से करीब सौ साल पहले भी देश में कत्लखाना एक मुद्दा था और आज भी कत्लखाना एक मुद्दा है। फर्क है, तो सिर्फ इतना कि सौ साल पहले एक व्यक्ति या एक पत्रकार, एक विज्ञापन देखकर इसके खिलाफ आंदोलन खड़ा करता है और महाशक्तिशाली अंग्रेज साम्राज्य को अपना फैसला बदलवाने पर मजबूर करवा देता है।
और उस आंदोलन की खूबी देखिए कि कत्लखाने के खिलाफ सिर्फ माखनलाल चतुर्वेदी ही आवाज नहीं उठाते। उसके खिलाफ ताजुद्दीन और भाई अब्दुल गनी भी बराबरी से आवाज बुलंद करते हैं। और यह आवाज केवल मध्यप्रदेश के बुंदेलखंड तक ही सीमित नहीं रहती बल्कि पूरे अविभाजित भारत में फैल जाती है। यानी उस समय, जब केवल छपे हुए अखबार ही माध्यम थे, विजुअल, डिजिटल या सोशल मीडिया जैसी चिडि़याएं लोग जानते तक नहीं थे, उस समय एक आवाज पूरे देश की आवाज बन गई थी।
इस घटना का सार तत्व यह है कि उस समय का मीडिया जो भी था, जैसा भी था, वह समाज के लिए था। समाज के साथ उसका रिश्ता और बांडिंग अद्भुत थी। और यही वजह रही कि छोटे स्तर पर उठी बातों ने भी राष्ट्रीय आंदोलन का रूप लिया। लेकिन आज हालात दूसरे हैं। संचार के संसाधनों का विस्तार हुआ है लेकिन मीडिया की समाज के साथ बांडिंग खत्म होती जा रही है। माखनलाल चतुर्वेदी के समय लोगों को भरोसा था कि यदि अखबार कह रहे हैं कि कत्लखाना समाज के हित में नहीं है तो वे सच ही कह रहे होंगे।
लेकिन आज दृश्य दूसरा है, आज यदि कोई सच भी बोल रहा हो तो भी उसके कई कई अर्थ लगाकर खुद मीडिया ही लोगों में यह भ्रम फैलाने की कोशिश करता नजर आता है कहीं न कहीं दाल में काला जरूर है। सौ साल पहले का मीडिया समाज को जोड़ने में समर्थ था, आज मीडिया लोगों के बीच दीवार खड़ी करने या समाज को बांटने में पारंगत है।
कहने को यह मास मीडिया का जमाना है लेकिन क्या आपको नहीं लगता कि यह ‘मास मीडिया’ अब ‘मांस मीडिया’ में तब्दील होता जा रहा है। दादा माखनलाल चतुर्वेदी को ‘एक भारतीय आत्मा’ का संबोधन दिया गया था। क्या हम दावे के साथ कह सकते हैं कि आज के मीडिया का, ‘भारत की आत्मा’ तो छोडि़ए, भारत की देह से भी कोई रिश्ता है? उस समय एक व्यक्ति ने सिर्फ एक मुद्दे पर भारत को जोड़ लिया था आज भारत को अलग अलग पालों में बांट देने की होड़ मची है।
मीडिया की मेहरबानी हमें ऐसे समाज की ओर धकेल रही है जहां एक तरफ आंखमींच आत्ममुग्धता है तो दूसरी तरफ मुटठीभींच वितृष्णा… कहां से लाएं वो ‘भारतीय आत्मा’ जो इस समाज की देह से लेकर आत्मा तक के दर्द को समझ सके…