साल भर पहले ये ही दिन थे जब अखबार परीक्षा का रिजल्ट आने के बाद कई छात्रों द्वारा की गई आत्महत्या की खबरों से रंगे हुए थे। उस समय भी मध्यप्रदेश विधानसभा का बजट सत्र चल रहा था और उसी दौरान 4 मार्च 2016 को कांग्रेस के विधायक रामनिवास रावत ने मानसिक तनाव के कारण छात्रों द्वारा की जाने वाली आत्महत्याओं को लेकर ध्यानाकर्षण सूचना दी थी। सदन ने इस मुद्दे पर गंभीर चिंता व्यक्त की थी और खुद मुख्यमंत्री शिवराजसिंह चौहान ने समाधानकारक उपायों पर जोर देते हुए इसके लिए सदन की एक समिति बनाने का सुझाव दिया था।
मुख्यमंत्री के उस सुझाव पर अध्यक्ष डॉ. सीतासरन शर्मा ने अर्चना चिटनिस की अध्यक्षता में समिति गठित की थी। समिति में कांग्रेस और भाजपा के पांच-पांच वरिष्ठ विधायक शामिल किए गए थे। इस समिति ने जनता से सुझाव मांगने के अलावा देश में कोचिंग के बहुत बड़े सेंटर कोटा का दौरा भी किया था।
लेकिन साल भर बाद भी इस समिति की रिपोर्ट नहीं आई है। हो सकता है कि समिति बहुत गहराई से मामले को देख रही हो। लेकिन यह विषय ऐसा है कि इस पर यदि कोई ठोस उपाय सामने आ रहे हैं तो उन्हें जल्द से जल्द सदन के पटल पर रखा जाकर उन पर प्रभावी कदम उठाए जाने चाहिए। क्योंकि 31 मार्च को विधानसभा का बजट सत्र समाप्त हो जाएगा।
यह समय परीक्षाओं के संपन्न होने और परीक्षा परिणामों के आने का है। छात्र इस समय सबसे ज्यादा तनाव में रहते हैं। परीक्षा में सफल न होने या अपेक्षित अंक न आने के कारण जीवन समाप्त करने वाले छात्रों की संख्या लगातार चिंताजनक होती जा रही है। पिछले साल स्कूल शिक्षा राज्य मंत्री दीपक जोशी ने खुद विधानसभा में बताया था कि परीक्षा में फेल होने पर वर्ष 2012 में 213, 2013 में 218 और 2014 में 223 छात्रों ने आत्महत्या की। ये आंकड़े रोंगटे खड़े कर देने वाले हैं।
विधानसभा समिति की रिपोर्ट और उसके सुझावों पर अमल के साथ समाज स्तर पर भी ऐसे उपाय जरूरी हैं कि इस बार एक भी बच्चा परीक्षा या पढ़ाई संबंधी कारणों से अपना जीवन खत्म न करे। बच्चों की इन आत्महत्याओं के पीछे के कारणों को समझना भी जरूरी है। ये कारण तीन-चार तरह के हो सकते हैं- शैक्षणिक, पारिवारिक, सामाजिक/आर्थिक या अन्य। शिक्षा व्यवस्था में मुख्य रूप से शैक्षणिक कारणों से होने वाली आत्महत्याओं को रोकने की दिशा में ही काम किया जा सकता है। बाकी कारणों में छात्र और शिक्षक से इतर अन्य कई लोगों की भी भूमिकाएं होती हैं। और ये भूमिकाएं स्कूल से बाहर, घर और समाज के विभिन्न मंचों तक फैली होती हैं।
शिक्षा व्यवस्था में बच्चे जिन प्रमुख कारणों के चलते आत्महत्या करते हैं उनमें पढ़ाई में कमजोर रहना, अच्छे अंक न आना, फेल हो जाने का डर या प्रतिभा प्रदर्शन का अतिरेकपूर्ण दबाव जैसे कारण शामिल हैं। मध्यप्रदेश जैसे राज्यों में ज्या़दातर बच्चे गणित और अंग्रेजी जैसे विषयों से खौफ खाते हैं। वे इन विषयों से बचना या भागना चाहते हैं। लेकिन उन्हें यह डर भी सताता है कि यदि वे इन विषयों में पास न हुए तो अगली कक्षा में नहीं जा पाएंगे।
इसके लिए कोशिश की जा सकती है कि ऐसे बच्चों को कुछ वैकल्पिक विषयों के साथ अगली कक्षा में पदोन्नत होने का विकल्प उपलब्ध कराया जाए। जैसे यदि कोई बच्चा गणित में कमजोर है तो उसे खेल, संगीत, चित्रकला, हस्तशिल्प या उसकी रुचि के किसी विषय का विकल्प दिया जाए। उस विषय के साथ उसे अपनी पढ़ाई जारी रखने की अनुमति हो।
बच्चों में सबसे बड़ा डर परीक्षा में फेल होने का रहता है। इसके लिए हमें प्रचलित परीक्षा प्रणाली पर गंभीरता से विचार करना होगा। साल में एक बार होने वाली परीक्षा से बच्चे के पूरे साल भर की मेहनत या प्रतिभा को आंकने की प्रथा पर पुनर्विचार होना चाहिए। मान लीजिए कोई बहुत मेधावी और प्रतिभावान बच्चा साल भर बेहतर प्रदर्शन करे और ऐन परीक्षा के समय अचानक बीमार होने या किसी अन्य कारण से ठीक से परफॉर्म न कर पाए तो क्या उसे हम उसे बेकार मान लेंगे?क्या उसे अगली कक्षा में प्रवेश से रोक दिया जाना चाहिए?
ऐसा क्यों नहीं हो सकता कि हम परीक्षा को दस या बारह टुकड़ों में विभाजित कर दें और उनके परिणाम के औसत के आधार पर बच्चे के उत्तीर्ण होने की श्रेणियां निर्धारित करें। इससे बच्चे के मन में परीक्षा का हौवा भी खड़ा नहीं होगा और सिर्फ एक बार होने वाली परीक्षा से भविष्य के बनने बिगड़ने की चिंता से भी वह मुक्त रहेगा। कुछ सामाजिक और सांस्कृतिक गतिविधियों को भी पाठ्यक्रम का हिस्सा बनाकर उन्हें भी अगली कक्षा में पदोन्नति का आधार बनाया जा सकता है।
प्रतिभा प्रदर्शन के लिए माता-पिता, परिवार या समाज का अतिरेकपूर्ण दबाव भी बहुत बड़ा कारण है। और माता पिता तो ठीक हैं, कोचिंग संस्थान ऐसी प्रतिस्पर्धा को बढ़ावा देने के लिए ज्यादा जिम्मेदार हैं। ऐसे में परीक्षा परिणाम आने के बाद कोचिंग संस्थानों द्वारा अपने छात्रों का महिमामंडन करते हुए बढ़ा चढ़ाकर दावा करने वाले विज्ञापनों पर पूरी तरह रोक लगनी चाहिए। ये विज्ञापन समाज में कोचिंग की लूट को तो बढ़ावा देते ही हैं, बच्चों में प्रतिस्पर्धात्मक या हीन भावना को और अधिक उग्र बनाते हैं।
bahut sahi khe. badhai.
kaha