मीडिया ने इन दिनों हमारी नजरों पर ऐसा परदा डाल दिया है कि हम वही देखते हैं जो वह दिखाता या बताता है। लेकिन मीडिया की नजर से अलग भी कई बातें ऐसी हैं जो जानने लायक हैं या जिन्हें हमें जरूर जानना चाहिए। ये बातें राजनीति और सत्ता का वो कोना दिखाती हैं जिनमें चटखारा या सनसनी तो नहीं है, लेकिन ये हमारे रोजमर्रा जीवन से बहुत गहरा नाता रखती हैं।
जबसे उत्तरप्रदेश के चुनाव परिणाम आए हैं तब से पूरे देश का ध्यान सिर्फ वहीं तक केंद्रित होकर रह गया है। लेकिन उत्तरप्रदेश के अलावा उत्तराखंड, पंजाब,गोवा और मणिपुर में भी सरकारें बनी हैं और वे भी इस देश का ही हिस्सा हैं। चूंकि इस समय भाजपा का हल्ला है, इसलिए पंजाब जैसे राज्य की कोई खास चर्चा नहीं हो रही, जहां पर कांग्रेस लंबे समय बाद सरकार बनाने में कामयाब हुई है।
मेरा इरादा भाजपा और कांग्रेस के संदर्भ में इन पांच राज्यों की सरकारों के तुलनात्मक अध्ययन का कतई नहीं है। मैं दरअसल यह बताने की कोशिश कर रहा हूं कि इन राज्यों में सरकारें भले ही अलग-अलग राजनीतिक दलों की बनी हों लेकिन उत्तरप्रदेश और पंजाब की नई नवेली सरकारों ने अपने पहले ही फैसलों में कुछ बहुत महत्वपूर्ण कदमों का ऐलान किया है। यदि ये फैसले पूरी ईमानदारी से लागू कर दिए जाएं तो देश की राजनीति को लेकर बनी आम धारणा में कुछ तब्दीली जरूर आ सकती है।
सबसे पहले पंजाब की ही बात लें। वहां 18 मार्च को मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदरसिंह की अध्यक्षता में हुई पहली कैबिनेट बैठक में फैसला किया गया कि राज्य में अब कोई वीआईपी कल्चर नहीं होगा। कोई भी मंत्री अपनी गाड़ी पर लालबत्ती नहीं लगाएगा। इसके अलावा भविष्य में शिलान्यास और उद्घाटनों के पत्थरों पर किसी मंत्री या नेता का नाम दर्ज नहीं किया जाएगा। उस पर सिर्फ यह लिखा होगा कि यह निर्माण करदाताओं के पैसों से कराया गया है।
चूंकि मैं चंडीगढ़ रहा हूं और मैंने पंजाब और हरियाणा दोनों जगह की सरकारें और वहां के प्रशासन की कार्यप्रणाली देखी है, इसलिए अमरिंदर सरकार का एक और फैसला मुझे बहुत महत्वपूर्ण लगा जिसमें तय किया गया है कि अब हर किसी ऐरे गैरे को सिक्योरिटी गार्ड नहीं दिए जाएंगे। वैसे तो यह बात करीब-करीब हर राज्य में लागू होती है, लेकिन पंजाब में सिक्योरिटी गार्ड रखना एक अलग ही ‘स्टेटस सिंबल’ है। वहां पुलिस के कई जवान यूं ही नेताओं की सेवा चाकरी में लगे रहते हैं। अब ऐसी सुरक्षा केवल वास्तविक खतरा होने की दशा में ही दी जाएगी।
इसी तरह यह भी तय किया गया है कि मंत्रियों के दौरे के समय जिलों के अधिकारी उनके साथ-साथ अनावश्यक रूप से नहीं घूमेंगे। मंत्री को अपने कार्यक्रम के लिए जिस अफसर की जरूरत होगी बस उसे ही बुलाया जाएगा और उस अफसर को भी अपने कार्यालय के नोटिस बोर्ड पर यह सूचना लगाकर जानी होगी कि वह फलां मंत्री के कार्यक्रम में जा रहा है।
पंजाब की ही तरह हाल ही में उत्तरप्रदेश के मुख्यमंत्री की शपथ लेने वाले योगी आदित्यनाथ ने भी अपना पहला ही आदेश यह दिया है कि सारे मंत्री 15 दिन के भीतर अपनी संपत्ति का ब्योरा प्रस्तुत करें। और सोमवार को अफसरों की बैठक में उन्होंने अफसरशाही से भी कहा है कि उन्हें उनकी चल, अचल संपत्ति और आयकर का पूरा ब्योरा चाहिए। योगी ने भी पंजाब की ही तरह ऐलान किया कि कोई भी मंत्री गाड़ी पर लालबत्ती नहीं लगाएगा।
वैसे परंपरा और पुराने अनुभवों को देखते हुए नई सरकारों की इन सारी घोषणाओं को राजनीतिक चोचला भी कहा जा सकता है। यह भी सही है कि इस तरह की घोषणाएं सरकारें सत्ता में आने के बाद कर तो देती हैं लेकिन बाद में उन्हें खुद ही याद नहीं रहता कि उन्होंने जनता से क्या-क्या वायदे किए थे। दो चार महीने इस तरह के टोटके किए जाते हैं और बाद में सब कुछ पुराने ढर्रे पर ही चलने लगता है। यानी अनुभव तो हमारे कड़वे ही हैं, लेकिन देश की राजनीति जिस तरह से बदल रही है और सरकारों पर जिस तरह जनमत का थोड़ा बहुत दबाव बन रहा है, उसे देखते हुए हमें एकदम निराशावादी भी नहीं होना चाहिए।
ठीक है कि सरकारों के पास जनता के अलावा खुद का और अपनी आने वाली पीढि़यों के दुखदर्द दूर करने का भी एजेंडा रहता है, लेकिन यदि जनता और मीडिया इन बातों पर नजर रखकर सरकारों को रोज टोंचे मारता रहे, तो उन्हें भी इन घोषणाओं पर अमल के लिए कुछ न कुछ करने को मजबूर होना ही पड़ेगा। हां यदि हमारी प्राथमिकता भी सियासी गलियारों की अफवाहें या चटखारे ही हों तो फिर बात अलग है…
याद रखें, सरकारों के साथ साथ तय हमें भी करना होगा कि हमारा एजेंडा क्या है…