बात तो तब है जब ये कान जनता के सामने पकड़े जाएं

मुझे पता नहीं कि इस तरह की किसी घटना का हमारे पौराणिक ग्रंथों में वास्‍तव में उल्‍लेख है या नहीं, लेकिन इस कथा को देवासुर संग्राम वाले प्रसंगों से जोड़कर नीति कथा के रूप में सुनाया और बताया जरूर जाता रहा है। कथा यह है कि एक बार असुरों ने ऋषि मुनियों से शिकायत की कि वे हमेशा देवताओं का ही पक्ष लेते हैं। ऐसा पक्षपातपूर्ण रवैया उनसे अपेक्षित नहीं है। असुरों ने यह भी जानना चाहा कि आखिर हममें क्‍या कमी है जो आप हमारे साथ ऐसा भेदभावपूर्ण व्‍यवहार करते हैं और अपने आशीर्वाद से हमें वंचित रखते हैं।

ऋषि मुनियों ने असुरों को बहुत ध्‍यान से सुना और बोले- ‘’हमारे मन में तो ऐसी कोई बात नहीं है, लेकिन देवताओं में कुछ तो ऐसा होगा ही जो हमें उनकी ओर आकर्षित करता होगा।‘’असुरों ने कहा हो सकता है ऐसा हो, लेकिन हमें भी तो पता चले कि आखिर हममें कमी क्‍या है? असुरों की जिद पर ऋषि मुनियों ने कहा चलो इसका जवाब देने के लिए हम एक परीक्षा रख लेते हैं। जो उसमें सफल हो जाएगा वही विजेता होगा और दूसरे को उसकी श्रेष्‍ठता स्‍वीकार करनी होगी। असुर राजी हो गए।

परीक्षा के तौर पर एक भोज का आयोजन किया गया। देवता और असुर अलग-अलग जगह,आमने सामने पंक्तियां लगाकर भोजन पर बैठा दिए गए। भोजन परोसा गया। इससे पहले कि भोजन आरंभ होता, ऋषि मुनियों ने सभी के सामने शर्त रखी कि आप भोजन अवश्‍य करें,लेकिन आपके हाथ की कोहनी नहीं मुड़नी चाहिए। इस शर्त ने दोनों पक्षों के लिए दुविधा खड़ी कर दी, क्‍योंकि बगैर कोहनी को मोड़े भोजन का कौर मुंह तक ले जाना संभव ही नहीं था। अब भोजन सामने रखा था, लेकिन शर्त के कारण खाने की स्थिति ही नहीं बन पा रही थी।

थोड़ी देर प्रयास करने के बाद असुर तो थक हारकर बैठ गए, लेकिन देवताओं ने हार नहीं मानी। उन्‍होंने एक तरकीब निकाली। शर्त थी कि भोजन करते समय कोहनी को मोड़ना नहीं है, इसलिए उन्‍होंने थालियों को थोड़ा आगे पीछे किया और बगैर हाथ को मोड़े, भोजन के कौर उठाकर अपने सामने बैठे साथी को खिलाना शुरू कर दिया। सामने वाले ने भी वैसा ही किया। और इस तरह देवताओं ने अपनी अक्‍लमंदी से बिना हाथ मोड़े तृप्‍त होकर भोजन कर लिया। इस घटना के बाद ऋषियों को असुरों से कुछ कहने की जरूरत नहीं पड़ी, असुर खुद ही समझ गए कि कमी कहां है और देवता श्रेष्‍ठ एवं ऋषि मुनियों के चहेते क्‍यों हैं?

कहानी थोड़ी लंबी हो गई है। लेकिन आज की बात शुरू करने से पहले यह भूमिका जरूरी थी। दरअसल आज की बात बुधवार को मध्‍यप्रदेश विधानसभा में हुए आध्‍यात्मिक गुरु श्री श्री रविशंकर के प्रवचन से जुड़ी है। श्री श्री ने इस आयोजन में जन प्रतिनिधियों को कई संदेश दिए। लेकिन सबसे रोचक बात जो मुझे लगी वो ये कि उन्‍होंने तनावमुक्‍त रहने का सबक देते हुए मंत्रियों सहित तमाम जनप्रतिनिधियों से उनके खुद के कान पकड़वाकर, खिंचवाए। खुद के कान खींचने के बाद इन सभी ने कहा- ‘’अच्‍छा लगा…’’

गुरुवार सुबह जब मैंने अखबारों में इस कार्यक्रम के फोटो देखे और उसकी रिपोर्ट पढ़ी तो सोच में पड़ गया। विचार आया कि ऐसा होना सिर्फ और सिर्फ आर्ट ऑफ लिविंग के संस्‍थापक और अंतराष्‍ट्रीय ख्‍यातिप्राप्‍त आध्‍यात्मिक गुरु के कार्यक्रम में ही संभव है। मन में सवाल उठा कि जो लोग भी इन फोटुओं में कान पकड़े दिख रहे हैं, अव्‍वल तो उन्‍होंने ऐसा कितने सालों बाद किया होगा? और दूसरे, धर्मगुरु के सामने तो ठीक है, लेकिन क्‍या ये लोग उन्‍हें चुनकर सिंहासन पर बैठाने वाली जनता के सामने भी कभी अपनी गलतियों पर इस तरह कान पकड़ते होंगे? क्‍या ये अकेले में ही सही, कभी यह महसूस भी करते होंगे कि आज मुझसे गलती हो गई और इसके लिए मैं खुद के कान पकड़ता हूं।

मुझे लगता है कान पकड़ने के मामले में हमारे ये आधुनिक देवता, देवासुर संग्राम वाले उन देवताओं जैसा ही आचरण करते नजर आते हैं जिनका जिक्र मैंने शुरुआत में किया। वे भी दूसरों का कान पकड़ने में लगे रहते हैं। कथित पौराणिक घटना का संदेश तो यह है कि परस्‍पर सहयोग की भावना हो तो असंभव से असंभव कार्य भी किया जा सकता है। लेकिन आधुनिक संदर्भों में बात करें तो हमारे आज के ये देवता खुद के कान पकड़ने के बजाय दूसरों की कान खिंचाई या कान भराई में ज्‍यादा विश्‍वास करते हैं। ऐसे में मानना पड़ेगा कि श्री श्री ने इन देवताओं से खुद के कान पकड़वाकर सचमुच एक असंभव या अकल्‍पनीय कार्य करवा लिया है।

पता नहीं, श्री श्री के कार्यक्रम में मौजूद ये नेतागण अपना तनाव दूर करने के लिए खुद के कान पकड़ने जैसा उपाय आगे भी करेंगे या नहीं। यह भी नहीं कहा जा सकता कि खुद के कान पकड़ने के बाद पैदा हुआ यह अच्‍छा अहसास उनमें कितने दिनों तक जिंदा रहेगा। लेकिन मैं तो श्री श्री का कार्यक्रम तभी सार्थक मानूंगा, जब ये लोग खुद का तनाव दूर करने के लिए अपना कान पकड़ने के साथ साथ, अपनी गलतियों के लिए जनता के सामने कान पकड़ने की भी हिम्‍मत जुटा लें।

क्‍या ऐसे कॉरपोरेट आयोजनों का थोड़ा बहुत लाभ समाज को भी नहीं मिलना चाहिए?

 

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