मध्यप्रदेश विधानसभा के बजट सत्र के पहले दिन 21 फरवरी को राज्यपाल ओमप्रकाश कोहली के मुंह से जब यह कहलवाया जा रहा था कि ‘’सरकार के प्रयासों से कुपोषित बच्चों की संख्या में लगातार गिरावट आ रही है’’ तो पता नहीं उन परिवारों पर क्या गुजर रही होगी जिन्होंने कुपोषण के कारण अपने बच्चों को असमय ही खो दिया।
राज्यपाल ने अपने अभिभाषण में कुपोषण की चर्चा करते हुए बताया कि- ‘’प्रदेश में 4305 नई आंगनवाड़ी तथा 600 मिनी आंगनवाड़ी की स्वीकृति दी गई है। सरकार के प्रयासों से कुपोषित बच्चों की संख्या में लगातार गिरावट आ रही है। वर्ष 2005-06 में ऐसे बच्चों का प्रतिशत 12.6 था जो अब घटकर 9.2 रह गया है। कम वजन के बच्चों का प्रतिशत भी 2013-14 के एनएचएसएफ सर्वे में 60 से घटकर 42.8 रह गया है। ‘स्नेह सरोकार’ कार्यक्रम में सवा लाख बच्चों का पोषण सुधार उत्तरदायित्व समाज ने लिया है।‘’
राज्यपाल के इस कथन के अगले ही दिन एक और घटना हुई। कुपोषण से होने वाली मौतों को लेकर हाल ही में पूरे प्रदेश को सुर्खियों में लाने वाले श्योपुर जिले के बारे में सरकार ने ग्वालियर हाईकोर्ट में एक रिपोर्ट पेश की। दरअसल हाईकोर्ट ने श्योपुर में हुई 116 बच्चों की मौत को लेकर सरकार से जवाब तलब किया था। सरकार ने कोर्ट को बताया कि जिले में होने वाली मौतें कुपोषण के कारण नहीं, बल्कि पेटदर्द, उलटी–दस्त,निमोनिया जैसी बीमारियों से हुई है।
कोर्ट में दिए गए जवाब में तत्कालीन कलेक्टर पीएल सोलंकी की रिपोर्ट को आधार बनाया गया है। कलेक्टर ने यह रिपोर्ट पिछले साल सितंबर माह में महिला एवं बाल विकास विभाग के प्रमुख सचिव को भेजी थी। सरकारी जवाब में यह भी कहा गया है कि प्रसव के 6 माह तक बच्चा मां के दूध पर रहता है, ऐसे में जन्म के कुछ घंटों या दो तीन दिन बाद कुपोषण से उसकी मौत हो ही नहीं सकती।
कोर्ट को दिया गया सरकार का जवाब हैरान कर देने वाला है। हमारे मालवा में एक कहावत है, जिसमें यह पूछे जाने पर, कि मौत कैसे हुई? जवाब आता है- ‘’सांस ही नहीं आई…’’ अब यह इतना सर्वमान्य और मासूम सा जवाब है कि आप इससे इनकार कर ही नहीं सकते। क्योंकि मरने वाला सांस नहीं लेता और जिसको सांस नहीं आती वह मुर्दा है।
लेकिन मौत का असली कारण तो तभी पता चलेगा जब यह पूछा जाए कि सांस क्यों नहीं आई? आखिर क्या वजह थी जो आदमी सांस नहीं ले सका और मर गया? इसी तरह कोर्ट में बच्चों की मौत का कारण पेटदर्द, उलटी-दस्त और निमोनिया को बताने वालों से कोई पूछे कि आखिर पेट में दर्द उठा कैसे, बच्चा उलटी दस्त या निमोनिया का शिकार हुआ कैसे?
तय जानिए, यदि मृत बच्चों की हिस्ट्री देखी जाए तो पता चलेगा कि वे घोर कुपोषण का शिकार थे और इसी कारण पेटदर्द, उलटी-दस्त या निमोनिया का शिकार हुए। कुपोषित बच्चा ऐसी बीमारियों का सबसे पहले शिकार होता है। क्योंकि कुपोषण के कारण उसमें रोग से लड़ने की प्रतिरोधक क्षमता ही नहीं होती। जाहिर तौर पर तो आप उसे निमोनिया से मरा हुआ बता सकते हैं, लेकिन मूल रूप से उसके मरने का कारण वह कुपोषण है, जिसके कारण वह निमोनिया की चपेट में आया।
कुपोषण से होने वाली मौतों को इसी तरह किसी न किसी और बीमारी के खाते में डालकर अपनी खाल बचाने का प्रयास सालों से होता आया है। और शायद आगे भी यह खेल जारी रहेगा। क्योंकि विडंबना यह है कि बच्चों की मौत को हम उस तरह से मौत भी नहीं मानते। दरअसल यह सब कुपोषण मिटाने के लिए खर्च की जाने वाली करोड़ों रुपए की रकम को खाने पीने का बहुत बड़ा खेल है और इस खेल में यहां से वहां तक न जाने कितने लोग शरीके जुर्म हैं।
जब बड़ी संख्या में बच्चे मरते हैं तब थोड़ा बहुत हो हल्ला मचता है और बाद में सब कुछ उसी ढर्रे पर चलने लगता है, जैसा चलता आया है। घटना के बाद पूछताछ होने पर ऐसे ही कारण गिना दिए जाते हैं, जैसे ग्वालियर हाईकोर्ट में गिनाए गए हैं। कोई उनकी गहराई में नहीं जाता।
मसलन यह तर्क ही हास्यास्पद है कि जन्म के बाद छह माह तक बच्चा मां के दूध पर निर्भर रहता है, इसलिए वह कुपोषण से मर ही नहीं सकता। जरा पूछे कोई इन अकलमंदों से कि यदि मां खुद कमजोर हो, वह बच्चे को दूध पिलाने लायक न हो, तो भी क्या बच्चा कुपोषित नहीं होगा? और क्या प्रशासन यह गारंटी से कह सकता है कि श्योपुर जिले में प्रसव अवस्था वाली सारी माताएं हृष्ट पुष्ट हैं और ऐसी शत प्रतिशत माताएं अपने बच्चों को पूरे छह माह तक स्तनपान करा रही हैं?
यदि ऐसा है तो मेरे हिसाब से श्योपुर देश का अकेला ऐसा जिला होगा जहां सौ फीसद माताएं, पूरे छह माह तक बच्चों को स्तनपान कराने लायक भी हैं और वे ऐसा कर भी रही हैं। तब फिर सवाल उठेगा स्वास्थ्य विशेषज्ञों की उस अवधारणा पर, कि मां का दूध बच्चों को बीमारियों से बचाने वाली औषधि भी है। फिर सवाल उठेगा कि आखिर श्योपुर जिले की माताओं के दूध में ऐसी कौनसी कमी है, जो उनके बच्चे इतनी बड़ी संख्या में बीमारियों का शिकार होकर मर रहे हैं।
मेरा मानना है कि ये सारे सवाल उठने भी चाहिए। क्योंकि सवाल उठेंगे, तो हो सकता है व्यवस्था के पेट में भी दर्द उठने लगे। और जब तक खुद सरकार के पेट में दर्द नहीं उठेगा, वह तो इलाज कराने से रही…
shandar.
धन्यवाद सर