पोथी जाके हर कोई बांचे, भाग न बांचे कोय…

हिन्‍दी के प्रसिद्ध लेखक फणीश्‍वरनाथ रेणु की चर्चित कहानी ‘तीसरी कसम’ पर जाने माने गीतकार शैलेंद्र ने 1966 में इसी नाम से एक फिल्‍म बनाई थी। राजकपूर और वहीदा रहमान के अभिनय वाली इस फिल्‍म को राष्‍ट्रीय स्‍तर पर सर्वश्रेष्‍ठ फिल्‍म का पुरस्‍कार मिला था। वैसे तो इस फिल्‍म के सारे गीत बहुत लोकप्रिय हुए थे। लेकिन एक मार्मिक गीत ये पंक्तियां मुझे बहुत पसंद हैं- ‘’सजनवा बैरी हो गए हमार, चिठिया हो तो हर कोई बांचे, भाग न बांचे कोय…’’

आज इस फिल्‍म और इस गीत की याद इसी बांचे शब्‍द से आई। मध्‍यप्रदेश सरकार ने 18 फरवरी को पूरे राज्‍य में ‘मिल बांचें’ अभियान चलाया। इसमें समाज के विभिन्‍न वर्गों के लोगों ने स्‍कूलों में जाकर बच्‍चों को पढ़ाया। रविवार को इस अभियान की जो रिपोर्ट्स मीडिया में आई हैं वे अलग अलग रंग लिए हुए हैं।

चूंकि यह सरकार और सत्‍तारूढ़ दल का आह्वान था इसलिए ज्‍यादातर खबरें राज्‍य के मंत्रियों और अफसरों पर केंद्रित करके ही प्रकाशित या प्रसारित की गई हैं। इनमें भी अधिकांश रिपोर्ट्स नकारात्‍मकता का सुर लिए हुए हैं। मसलन इनमें कहा गया है कि यह अभियान भी सरकारी या राजनीतिक चोचला बनकर रह गया। मंत्रियों और अफसरों ने अजीबोगरीब सवाल बच्‍चों से पूछे। कहीं कहा गया कि बच्‍चों ने स्‍कूल में मिलने वाले भोजन से लेकर शौचालय तक की दुर्दशा की बात की। कहीं बताया गया कि खुद शिक्षक ही ठीक से पाठ नहीं पढ़ पाए।

प्रदेश के मुख्‍य विपक्षी दल कांग्रेस ने अभियान की तीखी आलोचना की। प्रदेश कांग्रेस अध्‍यक्ष अरुण यादव ने तो बयान जारी कर मुख्‍यमंत्री को सीख दे डाली कि ‘’शिवराज जी कहीं तो गंभीर कोशिश करिए, हर काम में नाटकीयता नहीं चलती।’’ कांग्रेस ने कहा कि ‘मिल बाँचें’ अभियान सरकार के बहुत से झूठे और खोखले अभियानों में एक है… सरकार बच्‍चों को कुछ बताना ही चाहती है तो प्रदेश में हुए घोटालों के बारे में बताए।

मीडिया में यह आरोप भी छपे कि प्रदेश में 4472 शासकीय स्कूलों में एक भी शिक्षक नहीं हैं। 17,649 स्कूलों में सिर्फ एक ही शिक्षक है। स्‍कूलों की भारी दुर्दशा है। शिक्षा और शिक्षकों का स्‍तर चिंतनीय है, वगैरह…

लेकिन मैं इस आरोप प्रत्‍यारोप की दुनिया से अलग कुछ और सवालों पर बात करना चाहता हूं। मेरा सबसे बड़ा सवाल ही यह है कि शिक्षा की जो कमियां और कमजोरियां गिनाई गईं हैं, वे न तो आज से हैं और न ही लोगों से छिपी हैं। इसलिए बार बार इनका रोना रोने से कुछ होने वाला नहीं है। यदि हम सचमुच बदलाव लाना चाहते हैं या सुधार की कोई राह बनाना चाहते हैं, तो समाधान के बारे में सोचा जाना चाहिए। ‘मिल बांचें’ अभियान से भले ही और कुछ हो या न हो, लेकिन इसके बहाने उन बातों पर जरूर ध्‍यान गया है जहां सुधार की जरूरत है।

दरअसल शिक्षा और बच्‍चों के प्रति हमारी चिंता केवल भाषणों और खबरों तक ही सीमित है। ‘मिल बांचें’ का सरकारी विज्ञापन कहता है कि इस अभियान के लिए 2 लाख से अधिक वॉलंटियर्स ने अपना नाम दर्ज कराया। यानी जिस दिन अभियान को अंजाम दिया गया, उस दिन यह संख्‍या दो लाख से भी अधिक रही होगी। लेकिन मीडिया का सारा ध्‍यान नेताओं और अफसरों की क्‍लास पर ही रहा। यह रिपोर्ट प्रमुखता से कहीं नहीं दिखी कि समाज के जिन बाकी लोगों ने खुद को इस अभियान से जोड़ा था उनका अनुभव क्‍या रहा?

नेताओं व अफसरों की ‘क्‍लास’ की भी जो रिपोर्टिंग हुई है, उसे देखने के बाद मुझे लगता है कि चाहे अफसर हों या नेता, स्‍कूलों के लिए माकूल व्‍यवस्‍थाएं करने की बात तो छोडि़ए, हमारे नीति नियंताओं को बच्‍चों से संवाद करने की भी तमीज नहीं है। जिस तरह के बचकाना सवाल बच्‍चों से पूछे गए हैं और जैसी कूड़ा करकट बातें उनसे की गई हैं, उससे तो यही निष्‍कर्ष निकलता है कि सरकार यदि इस अभियान को जारी रखना चाहती है तो पहले उसे अपने लोगों को बच्‍चों से संवाद का तरीका सिखाना होगा। वरना अच्‍छा खासा अभियान राजनीतिक तू-तू मैं-मैं में तब्‍दील होकर रह जाएगा।

एक सवाल मीडिया से भी है। क्‍या समाज के लिए होने वाले ऐसे अभियानों में हमारी कोई सक्रिय भूमिका या भागीदारी नहीं होनी चाहिए? मैं यह देखने को तरस गया कि पढ़ा लिखा माने जाने वाले इस तबके के कितने लोग बच्‍चों के बीच पहुंचे? क्‍या समाज के प्रति हमारा दायित्‍व केवल आलोचना या कमियां गिनाने तक ही सीमित है?और यदि ऐसा ही है तो फिर हममें और विरोधी दल में क्‍या अंतर रहा?

इसी तरह, क्‍या विपक्षी दलों को भी अपने लोगों को बड़ी संख्‍या में स्‍कूलों में नहीं भेजना चाहिए था? यह न तो शिवराजसिंह के घर की सरकार है और न भाजपा की, यह प्रदेश की सरकार है। इस अभियान पर खर्च होने वाला पैसा प्रदेश की जनता का पैसा है। हम अपना हक क्‍यों छोड़ रहे हैं? और जब आप खुद सामने वाली टीम को वॉकओवर दे रहे हैं, तो उसकी जीत पर छाती कूटना बंद कर दीजिए।

रहा सवाल इस बात का कि अभियान से बच्‍चों को क्‍या मिला, तो मैं तीसरी कसम फिल्‍म में शैलेंद्र के लिखे उस गीत की तर्ज पर ही कहना चाहूंगा कि- ‘’पोथी जाके हर कोई बांचे, भाग न बांचे कोय, करमवा बैरी हो गए हमार…’’

असली जरूरत इस तरह जाकर पोथी बांचने की नहीं, बल्कि बच्‍चों का भाग्‍य बांचने और उसे बदलने की है। फिलहाल तो उनके भाग्‍य में उपेक्षा ही लिखी है। बदकिस्‍मती की ये रेखाएं कब बदलेंगी पता नहीं…

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