अभी हाल ही में मेरी मुरैना यात्रा के दौरान मध्यप्रदेश के बहुत पुराने, सेवानिवृत्त आईएएस अधिकारी आई.एस. राव से मुलाकात हुई। करीब 80 वर्ष के श्री राव 1968 में मुरैना जिले के कलेक्टर रहे। यह वो समय था जब चंबल घाटी डाकुओं की बंदूकों से गूंज रही थी। बातचीत के दौरान मैंने मध्यप्रदेश सरकार द्वारा प्रशासनिक सुधार आयोग के गठन की घोषणा का हवाला देते हुए राव साहब से यूं ही पूछ लिया कि उनकी राय में प्रशासनिक कामकाज में किस तरह के सुधार की गुंजाइश है। इस पर राव साहब ने जो जवाब दिया उस पर गंभीरता से सोचने की आवश्यकता है। वे बिना किसी भूमिका के बोले- ‘’प्रशासनिक सुधार तो बाद में करिएगा, इस देश को सबसे पहले शिक्षा सुधार की जरूरत है। इस बुनियादी काम की ओर किसी का ध्यान नहीं जा रहा है। हम शिक्षा के क्षेत्र में गुणवत्ता से लेकर सुविधाओं तक सभी क्षेत्रों में पिछड़े होने का खमियाजा भुगत रहे हैं। प्राथमिक शिक्षा से उच्च शिक्षा तक, देश की कोई सुस्पष्ट नीति ही नजर नहीं आती। हम इतने सारे प्रयोग कर चुके हैं कि पूरी व्यवस्था चूं चूं का मुरब्बा होकर रह गई है। यह परिदृश्य भावी पीढ़ी के साथ साथ, देश के भविष्य के लिए भी घातक है। हमें सर्वोच्च प्राथमिकता के साथ शिक्षा पर ध्यान देना होगा और उस पर राजनीति के दायरे से दूर रहकर सोचना होगा।‘’
राव साहब की बात से मुझे याद आया कि देश की वर्तमान सरकार को नीतिगत सलाह देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले संगठन राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ ने भी, इसी साल 11 से 13 मार्च तक राजस्थान के नागौर में हुई अपनी अखिल भारतीय प्रतिनिधि सभा में एक प्रस्ताव पारित किया था। मीडिया के लिए जारी उस प्रस्ताव का शीर्षक ही यही था- ‘’गुणवत्तापूर्ण एवं सस्ती शिक्षा सबको सुलभ हो’’
इस प्रस्ताव में कही गई बातें ध्यान देने योग्य हैं। प्रस्ताव कहता है- ‘’एक लोक कल्याणकारी राज्य में शासन का यह मूलभूत दायित्व है कि वह प्रत्येक नागरिक को रोटी, कपड़ा, मकान और रोजगार के साथ-साथ शिक्षा व चिकित्सा की उपलब्धता सुनिश्चित करे।‘’
‘’आज सभी अभिभावक अपने बच्चों को अच्छी शिक्षा दिलाना चाहते हैं। जहां शिक्षा प्राप्त करने वाले छात्रों की संख्या में उल्लेखनीय वृद्धि हुई है, वहीं उन सबके लिए सस्ती व गुणवत्तापूर्ण शिक्षा पाना दुर्लभ हो गया है। विगत वर्षों में सरकार द्वारा शिक्षा में अपर्याप्त आवंटन और नीतियों में शिक्षा को प्राथमिकता के अभाव के कारण, लाभ के उद्देश्य से काम करनेवाली संस्थाओं को खुला क्षेत्र मिल गया है। आज गरीब छात्र समुचित व गुणवत्ता पूर्ण शिक्षा से वंचित हो रहे हैं। परिणामस्वरूप समाज में बढ़ती आर्थिक विषमता समूचे राष्ट्र के लिए चिंता का विषय है।‘’
‘’वर्तमान शैक्षिक परिदृश्य में सरकार को पर्याप्त संसाधनों की उपलब्धता तथा उचित नीतियों के निर्धारण के अपने दायित्व के लिए आगे आना चाहिए। शिक्षा के बढ़ते व्यापारीकरण पर रोक लगनी चाहिए ताकि छात्रों को महंगी शिक्षा प्राप्त करने को बाध्य न होना पड़े। सरकार द्वारा शिक्षा संस्थानों के स्तर, ढांचागत संरचना, सेवाशर्तें, शुल्क व मानदंड आदि निर्धारण करने की स्वायत्त एवं स्व-नियमनकारी व्यवस्था को सुदृढ़ किया जाए ताकि नीतियों का पारदर्शितापूर्वक क्रियान्वयन हो सके।‘’
हाल ही में आरएसएस के सर संघचालक डॉ. मोहन भागवत ने भी विजयदशमी पर अपने उद्बोधन में यह मामला प्रमुखता से उठाते हुए कहा कि ‘’देश में पिछले कई सालों से शिक्षा पर चल रहे विमर्श में यह बात सामने आई है कि शिक्षा तक सभी की पहुंच सुलभ और सस्ती हो। शिक्षित व्यक्ति रोजगार के योग्य हों, वे स्वावलंबी और स्वाभिमानी बनें। उनमें दायित्वबोध हो और वे जीवन मूल्यों का निर्वहन करने वाला अच्छा मनुष्य बनें। शासन व समाज दोनों शिक्षा के क्षेत्र में सहयोग करें और इसका व्यापारीकरण न होने दें।‘’
भारत में राष्ट्रीय शिक्षा नीति 1986 में बनी थी और उसे 1992 में संशोधित किया गया। उसके बाद से यानी पिछले 24 सालों में इस दिशा में कोई काम नहीं हुआ। जबकि नई सहस्त्राब्दी में शिक्षा के तौर तरीकों से लेकर उसके बुनियादी स्वरूप का पूरा ढांचा ही बदल गया है।
नरेंद्र मोदी सरकार आने के बाद इस विषय पर पूर्व केबिनेट सचिव टीएसआर सुब्रमण्यन की अध्यक्षता में एक उच्चस्तरीय समिति बनाई गई थी। इस समिति का प्रतिवेदन भी आ गया है। लेकिन उसके बाद से इस दिशा में काम कहां तक बढ़ा है इसका ब्योरा देश के सामने नहीं आया है। मानव संसाधन विकास मंत्रालय का पिछला नेतृत्व खुद ही विवादस्पद हो जाने के कारण भी इस मंत्रालय के मूल काम -शिक्षा व्यवस्था और शिक्षा सुधार- पर ध्यान कम ही गया है। ऐसे में जरूरत इस बात की है कि सुब्रमण्यन कमेटी की रिपोर्ट को जल्दी अंतिम रूप दिया जाकर उसे सार्वजनिक किया जाए। और काम इस रिपोर्ट को सार्वजनिक कर देने भर से ही नहीं चलने वाला, उस पर तत्काल अमल की माकूल व्यवस्था भी जरूरी है। देश के शिक्षाविदों, वैचारिक संगठनों और प्रशासनिक प्रबंधकों की इस चिंता का निवारण इस नीति में अवश्य होना चाहिए कि शिक्षा का व्यापारीकरण या उसे लाभ का धंधा बनाने की जो स्थितियां पिछले दो तीन दशक में बनी हैं उससे कैसे निपटा जाए और बिना किसी भेदभाव के सस्ती व गुणवत्तापूर्ण शिक्षा सभी को कैसे उपलब्ध हो।