उत्तरी मध्यप्रदेश के सीमावर्ती जिले श्योपुर में कुपोषण से हुई बच्चों की मौत को लेकर पिछले दिनों काफी बवाल मचा था। इस पर जमकर राजनीति भी हुई। मुख्य विपक्षी दल कांग्रेस ने सरकार पर आरोप लगाया कि वह इतने गंभीर मामले की भी अनदेखी कर रही है।
चारों तरफ से आलोचना होने के बाद सरकार हरकत में आई थी और उसने वरिष्ठ अधिकारियों को मामले की जांच करने मौके पर भी भेजा था। इसके अलावा इस मामले में उच्चस्तरीय जांच समिति भी बनाई गई थी। घटना के बाद कुपोषित बच्चों के इलाज को लेकर मैदानी अमला भी सक्रिय हुआ था।
इसी सिलसिले में सोमवार को श्योपुर जिले से ही एक चौंकाने वाली खबर आई। खबर के अनुसार महिला बाल विकास विभाग के मैदानी अमले को जंगल में बसे पातालगढ़ और झरेर गांवों में चार अति कुपोषित बच्चों का पता चला था। इसके बाद इन बच्चों को इलाज के लिए पोषण पुनर्वास केंद्र लाने का फैसला किया गया, क्योंकि उनकी हालत बेहद नाजुक थी। आंगनवाड़ी कार्यकर्ताओं से लेकर विभाग के अधिकारियों तक ने बच्चों को पुनर्वास केंद्र लाने की कोशिश की लेकिन बच्चों के मां बाप उन्हें भेजने को राजी ही नहीं हुए। जब सारे उपाय बेकार गए तब कलेक्टर को यह समस्या बताई गई। कलेक्टर ने जिले के पुलिस अधीक्षक से बात की और बच्चों को लाने के लिए गांव में पुलिस बल भेजा गया। पुलिस ने गांव में पहुंच कर मां बाप को कानूनी कार्रवाई का डर दिखाया तब जाकर दो से तीन साल के इन बच्चों को श्योपुर के पोषण पुनर्वास केंद्र में भरती कराया जा सका। इन बच्चों में से दो लड़कियां और दो लड़के हैं।
यह घटना कुपोषण को लेकर एक दूसरे पहलू को उजागर करती है। एक ओर जहां कुपोषण से निपटने के मामले में सरकारी अमले की उदासीनता और योजनाओं के क्रियान्वयन में भ्रष्टाचार की बात सच है, वहीं कई मामलों में यह बात भी सच है कि मां बाप अन्यान्य कारणों से बच्चों का इलाज कराने या उन्हें पोषण पुनर्वास केंद्र भेजने से कतराते हैं। जैसे, श्योपुर की जिस घटना का जिक्र यहां किया गया उसमें बच्चों के मां बाप की दलील थी कि बच्चों को यदि पुनर्वास केंद्र में भरती करा दिया तो काम पर कैसे जाएंगे? श्योपुर जैसे इलाकों में कुपोषण की समस्या सहरिया आदिवासियों के बच्चों में अधिक है। ये गरीब आदिवासी अपना पेट पालने के लिए रोज मेहनत मजूरी करते हैं। बच्चा उनके साथ ही रहता है। इधर मां बाप काम करते रहते हैं और उधर बच्चा दूर किसी झोली में पड़ा रहता है। इससे उन्हें बच्चे की चिंता नहीं रहती। लेकिन जब बच्चे को पोषण केंद्र में भरती करने की बात आती है तो उनके सामने यह संकट खड़ा हो जाता है कि केंद्र में जाकर बच्चे के साथ रहें या फिर परिवार के लिए मजदूरी करें। न तो वे बच्चे को अकेला छोड़ सकते हैं और न ही काम को छोड़ सकते हैं। यह व्यावहारिक समस्या है और इसके चलते कई बच्चे इलाज से वंचित रह जाते हैं।
लेकिन जब ऐसी स्थिति पैदा होती है तो सरकारी कर्मचारियों या व्यवस्था को दोष देना भी उचित नहीं लगता। क्योंकि मैदानी अमला तो बच्चों को भरती करा कर उनका इलाज कराना चाहता है, पर बच्चे के मां बाप खुद ही इलाज कराने के लिए तैयार नहीं होते। मामला बिगड़ जाने पर जब बच्चों की मौत हो जाती है तो सारी आलोचना सरकारी अमले को सहनी पड़ती है।
यह तो हुआ बच्चों को अकेला छोड़ने और आजीविका से जुड़ा पहलू। दूसरी स्थिति में मां बाप सरकारी चिकित्सा व्यवस्था पर भरोसा ही नहीं करते। उन्हें अस्पताल से ज्यादा भरोसा ओझाओं और बाबाओं पर होता है। वे किसी डॉक्टर से इलाज करवाने के बजाय झाड़ फूंक करवाने में ज्यादा विश्वास करते हैं। इस स्थिति में भी अंतत: बच्चे की जान ही संकट में होती है। यहां भी इलाज के अभाव में कई बार बच्चे मर जाते हैं और कुपोषण से मरने वाले बच्चों का आंकड़ा और अधिक संगीन हो जाता है।
ऐसे सभी मामलों में समाज को आगे आने की जरूरत है। सरकारी अमले की लापरवाही अपनी जगह है, लेकिन समाज की लापरवाही का क्या करें? क्या समाज में ऐसा कोई मैकेनिज्म नहीं बनना चाहिए जो बच्चों के मां बाप में सरकारी इलाज की व्यवस्था के प्रति भरोसा पैदा करे? कुपोषण के आंकड़े जारी कर व्यवस्था की आलोचना करने वाले गैर सरकारी संगठनों को इस दिशा में क्यों नहीं आगे आना चाहिए? उन्हें क्यों नहीं लोगों को समझाने या जागरूक करने का प्रयास करना चाहिए कि समुचित इलाज ही बच्चे की जान बचा सकता है, किसी ओझा द्वारा की जाने वाली झाड़फूंक या किसी बाबा द्वारा दी गई भभूत नहीं।
अभी भी ऐसे दृश्य देखने को मिल जाते हैं जब पोलियो की दवा पिलाने या बच्चों को टीका लगाने के लिए पहुंची टीम को दुतकार कर भगा दिया जाता है। विदिशा जिले के हैदरगढ़ स्वास्थ्य केंद्र के अंतर्गत आने वाले मोहम्मद खेड़ा गांव के उदाहरण का मैं प्रत्यक्ष गवाह हूं, जहां टीका लगने से वंचित रह गए बच्चों का टीकाकरण करने गए दल को किस संगीन स्थिति का सामना करना पड़ा था। महीनों की मनुहार और लगातार फॉलोअप के बाद जैसे तैसे उन बच्चों के मां बाप को राजी किया जा सका था।
सरकार और उसकी व्यवस्था को दोष देना बहुत आसान है, वे निर्दोष हैं मैं ऐसा कह भी नहीं रहा, लेकिन दोष समाज में भी तो है, उसका क्या…?