मैं दावा कर सकता हूं कि देश में शिक्षक दिवस पर शिक्षकों को वैसा तोहफा किसी ने नहीं दिया होगा जैसा हमारे मध्यप्रदेश के मुरैना जिले के एक विधायक ने दिया है। और तोहफा क्या दिया है, बल्कि राष्ट्र के नाम एक संदेश दिया है कि देश में शिक्षकों की हैसियत (सीधे शब्दों में कहें तो औकात) क्या है और हमें उनके साथ कैसा सलूक करना चाहिए।
राजधानी में शिक्षक दिवस पर आयोजित राज्य स्तरीय शिक्षक सम्मान समारोह में जिस समय स्कूल शिक्षा मंत्री विजय शाह यह घोषणा कर रहे थे कि प्रदेश के शिक्षक अब ‘राष्ट्र निर्माता’ कहलाएंगे वहीं राजधानी से 462 किमी दूर चंबल इलाके के मुरैना में आयोजित समारोह में एक विधायक, एक ‘राष्ट्र निर्माता’ प्रोफेसर से पूछ रहे थे- ‘’कौन है तू? इधर आ… क्या मैं तेरे बाप का नौकर हूं…’’
यह ‘शालीन और सम्मान सूचक’ संवाद मुरैना में शिक्षक दिवस पर गर्ल्स कॉलेज में छात्राओं को स्मार्ट फोन वितरित करने के लिए आयोजित समारोह में हुआ। और एक शिक्षक का ऐसा ‘अभूतपूर्व सम्मान’ करने वाले नेता थे, दिमनी क्षेत्र से बसपा के विधायक बलवीर सिंह डंडौतिया। प्रदेश के लिए यह भी ‘गर्व की बात’ रही कि जिस समय विधायक डंडौतियाजी, उस शिक्षक पर जबान का डंडा चला रहे थे, उस समय मंच पर उच्च शिक्षा मंत्री जयभानसिंह पवैया और स्वास्थ्य मंत्री रुस्तमसिंह भी मौजूद थे। लेकिन किसी ने उस विधायक को इस बदतमीजी पर टोकने की जहमत नहीं उठाई।
यदि आप विधायक के उबलने का कारण जानना चाहें तो वह इतना सा था कि कार्यक्रम का संचालन कर रहे कॉलेज के प्रोफेसर जेके मिश्रा स्वागत भाषण के दौरान विधायकजी का नाम लेना भूल गए थे। यह भूल विधायक को इतनी नागवार गुजरी की उन्होंने मंच से ही प्रोफेसर की आरती उतार डाली।
घटना के कारण के बारे में यदि बात करें तो ऐसा होना सहज मानवीय चूक है। कई बार बड़े बड़े नेता, यहां तक कि प्रधानमंत्री भी मंच पर बैठे अपने मंत्रियों या मुख्यमंत्रियों का नाम लेना भूल जाते हैं। ऐसा आमतौर पर जानबूझकर नहीं होता बल्कि मंच के दबाव या घबराहट के कारण भी हो जाता है। लेकिन विधायक ने जो व्यवहार किया वह न तो कोई भूल या चूक थी और न ही उनके वे ‘मीठे बोल’ किसी दबाव या घबराहट में मुंह से निकले थे।
समझ में नहीं आता कि ये जनप्रतिनिधि अपने आपको समझते क्या हैं? वे यह क्यों भूल जाते हैं कि इस देश की जनता ने ही उन्हें चुना है। आज जो उनकी हैसियत या औकात है वह जनता की बदौलत है। एक तरफ इस देश का प्रधानमंत्री खुद को देश का प्रथम सेवक कहता है और दूसरी तरफ एक विधायक सार्वजनिक मंच से एक शिक्षक के साथ घोर अपमानजनक व्यवहार करता है। और वह भी सिर्फ इसलिए कि वह शिक्षक कार्यक्रम संचालन के दौरान उसका नाम नहीं ले पाया। यह व्यवहार करते समय वो विधायक शायद यह भूल गया कि जिस दिन उसे चुनने वाली जनता ने मुंह फेर लिया उस दिन मंच तो क्या, कहीं भी उसका कोई नामलेवा नहीं बचेगा।
इससे भी ज्यादा दुर्भाग्य की बात यह रही कि मंच से किसी ने उस विधायक के इस कुकृत्य का विरोध नहीं किया। उलटे कॉलेज प्राचार्य और शिक्षकों को यह सलाह दी गई कि वे जनप्रतिनिधि का नाम पुकारते समय ‘माननीय या सम्माननीय’जैसे शब्दों का इस्तेमाल करें। जबकि जो व्यवहार उस विधायक ने किया, उसके चलते माननीय या सम्मानीय के बजाय उसके नाम के पहले क्या लगना चाहिए, यह बात जरा जनता से पूछ लें तो पता चल जाएगा कि आपकी सलाह में कितना दम है।
इस घटना की खबर पढ़ने के बाद मैंने उस विधायक की कुंडली टटोली। मुझे विधानसभा के संदर्भ से पता चला कि 2013 में पहली बार विधायक बने बलवीर सिंह डंडौतिया खुद बीए पास हैं। और आश्चर्य की बात है कि वे कृषि और इंजीनियरिंग कॉलेजों का संचालन भी करते हैं। बसपा का विधायक होने के कारण यदि लोग कुछ भ्रम में हों तो यहां यह बता देना भी आवश्यक है कि ये डंडौतिया जी 2007 से 2012 तक अखिल भारतीय ब्राह्मण समाज के अध्यक्ष रहे हैं। और विधानसभा में इनके परिचय में लिखा है कि ‘’समाज में ग्रामीण विवादों के न्यायकर्ता के रूप में सुलह कराने में अहम भूमिका’’ इन्होंने निभाई है।
मुरैना कॉलेज की घटना और विधानसभा की किताब में दर्ज इस परिचय के बीच साफ दिख रहे विरोधाभास के बारे में मुझे ज्यादा कुछ नहीं कहना है। लेकिन इतना जरूर है कि ऐसा गरूर आपके अहंकार को थोड़ी बहुत संतुष्टि भले ही दे दे, भले ही आपके आसपास के चंगू मंगू ऐसे व्यवहार पर यह कहते हुए आपको आसमान पर चढ़ाएं कि ‘’वाह क्या बात है, आपने ठीक कर दिया स्साले को…’’ लेकिन जब आप पूरे होशोहवास में हों तो यह जरूर सोचें कि क्या आपने ठीक किया?
वैसे ऐसा व्यवहार करने वालों से किसी पछतावे या खेद प्रकट करने की उम्मीद बेकार है, क्योंकि ये लोग चोरी के बाद सीनाजोरी में ज्यादा भरोसा करते हैं। इसलिए इस घटना का सबक प्रदेश के सारे मंच संचालकों के लिए यह है कि भईया कभी भी मंच पर बैठे महान से महान और टुच्चे से टुच्चे आदमी का भी नाम लेना नहीं भूलना, वरना पता नहीं कब वह भरी सभा में खड़ा हो जाए और पूछ बैठे- क्यों बे, क्या मैं तेरे बाप का नौकर हूं….?
यकीन जानिए वह पूछ सकता है, बाप जो ठहरा…