इस बीच मेरे विवाह की दुर्घटना भी हो ही गई.. जी नहीं, मेरे पिताश्री दकियानूसी नहीं थे.. उन्होंने न केवल मुझे प्रेम विवाह करने की अनुमित दी बल्कि मेरी पत्नी को अपनी बेटियों के समान स्नेह भी दिया.. लेकिन मेरे लिये उनका स्नेह झिड़कियों और गालियों के जरिये ही प्रकट होता था.. मंझली की शादी अब तक नहीं हो पाई थी.. पंद्रह हजार की नौकरी में मेरे लिये घर चलाना अब मुश्किल हो गया था.. मैं जिस कंपनी में सुपरवाइजर था उसी कंपनी में कंप्यूटर ऑपरेटर की दरकार थी.. मैंने अपनी पत्नी और मंझली दोनों से इस नौकरी के लिये प्रयास करने को कहा.. लेकिन यहाँ भी मेरे ‘सुलझे हुए विचारों वाले पिता’ के नारी स्वतंत्रता और अस्मिता के विचार आडे़ आने लगे.. पिताजी ने टांग अड़ाते हुए फरमान जारी किया कि दोनों यदि खु़द चाहेंगी तभी नौकरी करेंगी..(जब भी पिताजी बेटियों के लिये ऐसी बातें करते थे तो मेरी मर्द होने की कोफ्त और बढ़ जाती और लगता कि हाय मैं इनकी बेटी क्यों न हुआ) शायद मेरी किस्मत अच्छी थी कि दोनों ने ही नौकरी को हामी भर दी.. और आर्थिक संकट के भंवर में फंसी हमारे परिवार की नैया को दो खेवैये और मिल गये..
आर्थिक परेशानियाँ कुछ कम जरूर हुईं, लेकिन मुसीबतें अब भेस बदलकर आने लगी थीं.. घऱ में मर्दाना समझे जाने वाले काम जैसे पानी भरना, चक्की से गेहूँ पिसवा के लाना, बैंक के काम तो मैं पहले से ही किया करता था, लेकिन अब तो सब्जी काटने जैसे काम भी कई बार मेरे हिस्से में आने लगे थे.. पिताजी ने अतिरिक्त सहृदयता दिखाते हुए बहू और मंझली को ऑफिस जाने के लिये स्कूटी भी खरीद दी थी.. पेट्रोल इंडिकेटर की ओर देखे बिना स्कूटी को लगातार चलाना और फिर पेट्रोल खत्म होने के बाद मुझे फोन कर बुलाने का कारनामा ये दोनों कई बार कर चुकीं थीं.. इस प्रकार की मूर्खता से परेशान होकर यदि मेरा सब्र का बांध कभी टूट जाता था.. तो पिताजी फौरन उनके लिये रक्षा कवच बन जाते थे.. “तुम्हें फोन कर बुला लिया तो कौन सा पहाड़ टूट पडा, तुम क्या बिल गेट्स या अंबानी हो, जो आधा-पौन घंटा जाया होने से करोडों का नुक्सान हो जायेगा.. बऱखुरदार, इतना गुस्सा करना है तो पहले इतना तो कमा लो कि बहन और पत्नी को नौकरी न करना पडे ”
हालाँकि ये परेशानी भी मुझे ज्यादा समय तक नहीं झेलनी पडी.. दिवाली के मौके पर मेरी पत्नी को उनके सेक्शन इंचार्ज ने छुट्टी नहीं दी.. दोनों के बीच कुछ वाद-विवाद हुआ और मेरी पत्नी ने तत्काल नौकरी को अलविदा कह दिया.. मैंने पत्नी को समझाने की कोशिश की कि ऐसी मामूली सी तकरार तो नौकरी में होती ही रहती हैं.. लेकिन वह नहीं मानी.. शाम को घर पहुँचा तो पिताजी अपनी बहू की पीठ थपथपाते दिखे- “बहुत अच्छा किया बेटा, आत्मसम्मान से समझौता कर नौकरी करने की कोई जरुरत नहीं है” मुझे देखते ही पिताजी मुझसे मुखातिब हुए- “सीखो बहू से की आत्मसम्मान क्या होता है” पिताजी के ये शब्द मुझे कुछ साल फ्लैश बैक में ले गये.. तब उन्होंने मुझे जबरदस्ती एक फैक्ट्री में नौकरी पर लगवाया था.. सुपरवाइजर बेहद बदतमीज और सनकी किस्म का आदमी था.. बात-बात या फिर बिना बात भी सुपरवाइजर की डाँट-फटकार का मैं आदी हो चुका था, लेकिन एक दिन पानी सिर से गुजर गया.. सुपरवाइजर मुझे माँ-बहन की नंगी गालियाँ देने पर उतर आया.. दिल तो था कि सुपरवाइजर की तबीयत से मरम्मत करूं, लेकिन पिताजी की याद आई तो महज अपनी आपत्ति दर्ज करवाकर नौकरी छोड़ दी.. घर पहुँचकर जब पिताजी को सारा वाकया सुनाया तो तमाम लानतों के साथ पिताजी ने मुझे इतनी गालियां बकीं, मानों कान में किसी ने पिघला सीसा घोल दिया हो… सुपरवाइजर की गालियाँ बहुत ही मामूली लगने लगीं.. उस दिन से आज तक तमाम गालियाँ झेलकर भी नौकरी किये जा रहा हूँ.. क्योंकि मैं एक मर्द हूँ.. चाहूँ या न चाहूँ पैसे कमाना मेरी मजबूरी है, रोना आने पर आँसुओं को सुखा देना मेरी और मेरे जैसे करोड़ों लोगों की मजबूरी है..
(समाप्त)
बेहतरीन आशुतोष जी, लैंगिक भेदभाव केवल स्त्रीजाति के साथ होता है इस भ्रम को तोड़ना बेहद ज़रूरी है। आपका यह अनुभव कथ्य इस दिशा में काफी हद तक सफल है। बेटे- बेटी की समान परवरिश आवश्यक है ।बेहतरीन लेख के लिये बधाई ।