आखिर क्‍यों जरूरी है अपने महापुरुषों को याद करना?

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गिरीश उपाध्‍याय

हमारे यहां महापुरुष कम नहीं हुए हैं। कुछ के बारे में हमारी जानकारी ठीक ठाक है, कुछ के बारे में हम बहुत कम जानते हैं और अनेक के बारे में हम कुछ नहीं जानते। आज के भारत को भारत बनाने में ऐसे हजारों महापुरुषों का योगदान रहा है। लेकिन विडंबना यह है कि ऐसे ज्ञात, अल्‍पज्ञात महापुरुषों की बात न भी करें तो भी हम शाश्‍वत या सार्वकालिक महत्‍व रखने वाले महापुरुषों को भी सिर्फ उनकी जयंती या पुण्‍यतिथि पर ही स्‍मरण करते हैं। ऐसे मौकों पर भी दो चार रटी रटाई बातें बोल कर और उन महापुरुषों के चित्र या प्रतिमा पर फूल या माला चढ़ाने का कर्मकांड कर औपचारिकता निभा दी जाती है। हम भाषणों में इन महापुरुषों का जिक्र करते नहीं थकते लेकिन उनकी सीख को व्‍यवहार में लाने के मामले में अतिशय कंजूस साबित होते हैं।

आप इन बातों को मेरा भावुक या अतिसंवेदनशील हो जाना कह सकते हैं। लेकिन आज जब मैं यह आलेख लिखने बैठा हूं तो वास्‍तव में ऐसे कई सवालों ने मुझे विचलित कर दिया है। इसका कारण भी है। आज यानी 4 जुलाई को भारत के महान और सार्वकालिक संचारक स्‍वामी विवेकानंद की पुण्‍य तिथि है। खबरों की दुनिया का जीव होने के नाते मैंने जब टटोला तो इक्‍का दुक्‍का अपवादों को छोड़कर मीडिया में मुझे स्‍वामीजी का जिक्र तक नहीं मिला। जब मन ही मन तुलना करके देखा तो ऐसे कई टटपूंजे नाम भी याद आए जिनकी जन्‍म और पुण्‍यतिथियां बाकायदा पूरे भक्ति भाव से हर साल बड़े पैमाने पर मनाई जाती हैं। और ये वो लोग हैं जो स्‍वामी विवेकानंद के पासंग भी नहीं ठहरते, लेकिन चूंकि उनका नाम सत्‍ता पाने और सत्‍ता की राजनीति को आगे बढ़ाने मे मददगार है, इसलिए वे सारे नाम आज भी पूजनीय हैं और शायद जब तक उनका यह वोट महत्‍व बना रहेगा, आगे भी वे ऐसे ही पूजे जाते रहेंगे।

माखनलाल चतुर्वेदी राष्‍ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्‍वविद्यालय से स्‍वामी विवेकानंद के संचार पर शोध करते समय मुझे स्‍वामीजी के साहित्‍य को अपेक्षाकृत अधिक तसल्‍ली और गहराई से पढ़ने का अवसर मिला और उसी आधार पर मैं कह सकता हूं कि हम आज के समाज में जिस सुख या शांति की और राजनीति की भाषा में कहें तो जिन अच्‍छे दिनों की तलाश में हैं, उन्‍हें पाने के लिए हमें कहीं जाने की जरूरत नहीं है। न तो अच्‍छे दिनों का वह सुख अथवा आनंद हमें प्रत्‍यक्ष विदेशी निवेश से मिल सकता है और न ही स्‍वयं को विदेश में निवेशित करके। कहीं और जाने के बजाय इन अच्‍छे दिनों के सूत्र हम अपने यहां ही टटोल लें तो वे आपको आज भी यहां के हर कण में मौजूद मिलेंगे। जरूरत आनंद के उन आधार कणों को पहचानने और उन्‍हें महत्‍व देने की है।

स्‍वामीजी के बारे में कहीं तो कुछ छपा होगा, यह टटोलते समय मुझे एक खबर प्रमुखता से छपी दिखी। उसमें पढ़ाई के दबाव के चलते फिर एक बालक के आत्‍महत्‍या करने के जिक्र के साथ उसके माता पिता का यह बयान भी छपा था कि हमने तो कभी उस पर कोई दबाव नहीं डाला पता नहीं फिर उसने ऐसा क्‍यों किया।

बच्‍चे ऐसा क्‍यों कर रहे हैं और हम उन्‍हें ऐसा करने से रोक क्‍यों नहीं पा रहे हैं, इन सवालों के जवाब और इन घटनाओं को रोकने के उपाय हमें इंटरनेट या मोबाइल पर नहीं बल्कि अपने इतिहास और अपनी ही संस्‍कृति में मिलेंगे। मैंने इसी कॉलम में कुछ दिन पहले लिखा था कि आज बच्‍चे जीने की कला सीखने के बजाय मरने का हुनर सीख रहे हैं। ऐसा संभवत: इसलिए है कि हमने अपने समाज और परिवार के साथ साथ अपनी संस्‍कृति के उन मूल्‍यों को बिसरा दिया है जो हमें परिस्थितियों से लड़ने की ताकत देते थे।

स्‍वामी विवेकानंद ने युवाओं को सबसे बड़ा संदेश ही यह दिया था कि निडर बनो। उन्‍होंने खुद घोर विपरीत परिस्थितियों का सामना करते हुए भी धैर्य और साहस का साथ नहीं छोड़ा। उनका जीवन इस बात का अद्वितीय उदाहरण है कि किसी भी व्‍यक्ति के सामने कैसी-कैसी चुनौतियां आ सकती हैं और व्‍यक्ति उन चुनौतियों का सामना करने के लिए कैसे सामर्थ्‍य जुटा सकता है। और चुनौतियों का सामना करने की बात भी अलग रही, स्‍वामीजी ने तो जीवन में चुनौतियों को स्‍वयं आमंत्रित किया। विश्‍व धर्म सम्‍मेलन में भाग लेने के लिए उनका शिकागो जाना भी एक चुनौती ही तो थी। उस चुनौती को स्‍वीकार करने का ही परिणाम हुआ कि समूचा विश्‍व आज स्‍वामी विवेकानंद के नाम से परिचित है।

भारत की शिक्षा पद्धति के बारे में विवेकानंद ने करीब सवा सौ साल पहले कहा था कि  ”शिक्षा का मतलब यह नहीं है कि तुम्हारे दिमाग में ऐसी बहुत सी बातें इस तरह ठूंस दी जाएं कि अंतर्द्वंद्व होने लगे और तुम्हारा दिमाग उन्हें जीवन भर पचा न सके। जिस शिक्षा से हम अपना जीवन निर्माण कर सकें, मनुष्य बन सकें, चरित्र गठन कर सकें और विचारों का सामंजस्य कर सकें, वही वास्तव में शिक्षा कहलाने योग्य है।‘’

जरा विचार करके देखें कि आज की शिक्षा क्‍या इस बात पर खरी उतरती है? साथ ही यह भी सोचें कि यदि विवेकानंद के विचार को केंद्र में रखकर शिक्षा दी जाए तो कैसा समाज निर्मित हो सकता है। और फिर निष्‍कर्ष निकालें कि आखिर क्‍यों जरूरी है हमारा अपने महापुरुषों को याद करना…

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  1. स्वामी जी के उपर लिखा गया लेख अत्यन्त ही सार्थक है। आज हमें अपने देश में हो खुशियां ढूंढने की जरुरत है। विदेशी धरती पर उगे हुए फूल हमारी संस्कृति को नहीं महका सकते।

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