कहाँ पर बोलना है और कहाँ पर बोल जाते हैं

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कहाँ पर बोलना है और कहाँ पर बोल जाते हैं
जहाँ खामोश रहना है वहाँ मुँह खोल जाते हैं

कटा जब शीश सैनिक का तो हम खामोश रहते हैं
कटा एक सीन पिक्चर का तो सारे बोल जाते हैं

ये कुर्सी मुल्क खा जाए तो कोई कुछ नही कहता
मगर रोटी की चोरी हो तो सारे बोल जाते हैं

नयी नस्लों के ये बच्चे जमाने भर की सुनते हैं
मगर माँ बाप कुछ बोले तो बच्चे बोल जाते है

फसल बर्बाद होती है तो कोई कुछ नही कहता
किसी की भैंस चोरी हो तो सारे बोल जाते हैं

बहुत ऊँची दुकानो मे कटाते जेब सब अपनी
मगर मजदूर माँगेगा तो सिक्के बोल जाते हैं

गरीबों के घरों की बेटियाँ अब तक कुँवारी हैं
कि रिश्ता कैसे होगा जबकि गहने बोल जाते हैं

अगर मखमल करे गलती तो कोई कुछ नही कहता
फटी चादर की गलती हो तो सारे बोल जाते हैं

हवाओं की तबाही को सभी चुपचाप सहते हैं
च़रागों से हुई गलती तो सारे बोल जाते हैं

बनाते फिरते हैं रिश्ते जमाने भर से हम अक्सर
मगर घर मे जरूरत हो तो रिश्ते बोल जाते हैं.

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यह कविता हमें वाट्स एप पर मिली है। आज के संदर्भ में यह काफी प्रासंगिक लगती है। आपकी क्‍या राय है?

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