हाल ही में हमारी तीन बेटियों अवनि चतुर्वेदी, भावना कंठ और मोहना सिंह ने भारतीय वायुसेना में फाइटर प्लेन उड़ाने वाली पहली महिला पायलट बनकर इतिहास रचा। भारत की बेटियों ने ऐसे कई इतिहास पहले भी रचे हैं। चाहे वो आजादी की लड़ाई में अंग्रेजों से लोहा लेकर अमर होने वाली रानी लक्ष्मीबाई हों या फिर अपनी जान पर खेल कर प्लेन में सवार सभी यात्रियों को सुरक्षित बाहर निकालने वाली एयर होस्टेस नीरजा भनोट। ऐसे नामों की सूची को किरण बेदी, मैरी कॉम, इंद्रा नूयी, चन्दा कोचर जैसे नाम और समृद्ध करते हैं।
हमारी बेटियों का यह पहलू बहुत सुखद है। लेकिन यह भारत की अधूरी तस्वीर है। इसका दूसरा पहलू बदरंग और उन बेटियों के आंसुओं से तरबतर है, जिन्हें खिलने का मौका ही नहीं दिया गया। इस बात को परखने के लिए ज्यादा दूर जाने की जरूरत नही है। आधुनिकता के तमाम दावों के बावजूद आज भी बेटियां दहेज की आग में जलाई जा रही हैं। वर्ष 2014 में 20,000 से ज्यादा शादी शुदा महिलाओं ने आत्महत्या की। 2014 में ही 5650 किसानों ने आत्महत्या की थी, जो कि दहेज हत्या/आत्महत्या के अनुपात में चार गुना कम थीं। लेकिन हमारी मरती हुई बेटियों की चीखें समाज को सुनाई नहीं दीं। यहां मकसद किसानों के मुद्दे को कमतर बताना कतई नहीं है, लेकिन शायद हम हर घटना को वोट बैंक और राजनीति के तराजू में तौलने के आदी हो चुके हैं। चूँकि हमारी बेटियाँ वोट बैंक नहीं हैं तो हमारे लिए यह मुद्दा भी नहीं है।
अगर आंकड़ों की बात करें तो हर तीन मिनट में स्त्रियों के विरुद्ध एक अपराध होता है, इसमें घरेलू हिंसा 55% है। 2001 से 2005 के बीच कन्या भ्रूण हत्या के 6 लाख 92 हजार मामले प्रकाश में आए। देश में होने वाली आत्महत्याओं का 66% विवाहितों का है। विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार विश्व भर में होने वाली आत्महत्याओं में 10% अकेले भारत में होती हैं। स्त्रियों की दशा का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि विश्व में किए जाने वाले कुल श्रम (घण्टों में) का 67% स्त्रियों के हिस्से में जाता है जबकि आमदनी में उनका हिस्सा केवल 10% है। स्त्रियों को पुरुषों से औसतन 20-40% कम वेतन दिया जाता है। “यत्र नार्यस्तुपूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवता:” की यह असलियत है।
लड़कियों को शिक्षित करने के बावजूद हम उन्हें शादी के बाद ससुराल में एडजस्ट करना सिखाते हैं। लेकिन क्या इसके विपरीत ससुराल वालों को शिक्षित करने की पहल नहीं होनी चाहिए कि वे बहू को बेटी की तरह अपने परिवार का सदस्य मानें न कि स्वार्थ पूर्ति का साधन।
कहने को दहेज प्रथा रोकने के लिए कड़े कानून हैं। क्रिमिनल एमेन्डमेन्ट एक्ट की धारा 498 के तहत विवाहित स्त्री पर उसके पति/रिश्तेदार द्वारा किया गया अत्याचार/क्रूरता दण्डनीय अपराध है और शादी के सात साल के भीतर स्त्री की मृत्यु किसी भी परिस्थिति में ससुराल वालों को कठघरे में खड़ा करती है। लेकिन कानून की धज्जियां उड़ाते हुए दहेज बलि यथावत जारी है। दूसरी तरफ दहेज एक्ट का इस कदर दुरुपयोग भी हो रहा है कि इसे ‘लीगल टेरेरिज्म’ कहा जाने लगा है।
संस्कृत में दहेज के लिए समानांतर शब्द है ‘दायज’ यानी उपहार या दान। यह वस्तुतः कन्या पक्ष की ओर से विवाह के समय उसे दिया जाने वाला उपहार या भेंट है। लेकिन समय के साथ इसका कुत्सित रूप सामने आया है। दहेज की चाह में बेटियां या तो जलाई जा रही हैं या फिर वे प्रताडि़त होकर खुद ही आत्महत्या का रास्ता चुनने को मजबूर हैं।
और उनकी आत्महत्या पलायन नहीं एक तरह का प्रतिशोध होता है। जी हाँ प्रतिशोध। चूंकि सामाजिक और आर्थिक कारणों के चलते वे खुद पर अत्याचार करने वालों से प्रतिशोध नहीं ले पाती तो यह तरीका अपनाती हैं। दरअसल दुशमन से लड़ना आसान होता है, लेकिन अपनों से बहुत मुश्किल। लाचारी में प्रतिशोध का यह तरीका अपनाने के पीछे कहीं न कहीं यह भाव भी रहता है कि मैं मर जाऊंगी तो इन्हें कानून से भी सजा मिलेगी और इन्हें समाज की बदनामी भी झेलनी होगी। लेकिन विडम्बना देखिए कि ऐसे अनेक अपराधी न सिर्फ कानून से बचने में सफल हो जाते हैं अपितु दूसरा विवाह भी कर लेते हैं।
इसलिए यह काम कानून से नहीं समाज में जागरूकता लाने से ही हो सकेगा। हमारे युवा प्रण कर लें कि न वो दहेज देंगे न लेंगे तो यह कुरीति आसानी से खत्म हो सकती है। इसके लिए आवश्यक है कि युवा स्वयं पर भरोसा करे न कि अपनी जीवन संगिनी के परिवार से मिलने वाले दहेज पर। हमारी बेटियाँ भी सुनीता विलियम बनकर आकाश की ऊंचाइयां छूने का माद्दा रखती हैं, उन्हें अनुकूल परिस्थितियां देकर उड़ने तो दें!