बलात्कार व एसिड अटैक हालांकि अब देश में रोज की घटनाएँ हो चुकी हैं। लेकिन कभी कभार मीडिया या किसी सामाजिक संगठन के कारण देश में गुस्सा भी फूट पड़ता है और कानूनी बदलाव की माँग को लेकर भावनात्मक उबाल भी! कभी फास्ट ट्रैक कोर्ट की स्थापना भी हो जाती है तो किसी भी कानूनी कमजोरी के चलते आरोपी या तो छूट जाता है या अगली कोर्ट में अपील दाखिल कर चुका होता है।
लेकिन लाख टके का सवाल यह है कि बलात्कारी व एसिड अटैक करने वाले की सज़ा आखिर क्या हो? किसी देश में संगसार करने का प्रावधान है तो कहीं कुछ। मद्रास उच्च न्यायालय ने तो सरकार को बलात्कारी को नपुंसक या बधिया बनाने पर विचार करने तक का सुझाव दे डाला है। आंध्र प्रदेश से भी कुछ इसी आशय के संकेत मिले हैं। मगर हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि पेट भरना व यौन क्रिया मनुष्य की मूल प्रवृत्तियाँ हैं। मान लो कि किसी बलात्कारी का फास्ट ट्रैक अदालत में केस चला और उसे तीन माह में नपुंसक बनाने की ‘सज़ा’ मिल जाए तो क्या वह जिंदगी भर नपुंसक बनकर घूमना सहन कर सकेगा? क्या नपुंसक व्यक्ति को घर में रखकर उसके अन्य परिजन सहज रह सकेंगे? क्या यह बोध उसे ‘सड़क’ फिल्म के महारानी नामक नपुंसक खल पात्र की तरह हिंसक नहीं बना देगा? क्या वह दुनिया और समाज से और ‘बदला’ लेने की कोशिश नहीं करेगा? क्या मात्र नपुंसक बना देने से पीड़ित और अपराधी के बीच या उनके परिवारों के बीच आगे वैमनस्यता के नए बीज नहीं पड़ जाएँगे?
दरअसल बलात्कार का दंश जिसने भोगा है उसकी व्यथा को समझना इतना आसान भी नहीं है। एक बलत्कृत स्त्री या एसिड अटैक की शिकार स्त्री (चाहे वह अवयस्क बालिका ही क्यों न हो) व अपंग बनाकर जीवित छोड़ दिए गए व्यक्ति में कोई ज्यादा अंतर नहीं होता। अरुणा शानबाग का केस इसका ज्वलंत उदाहरण है जहाँ आरोपी की छह साल बाद ही ‘शुद्धि’ हो जाती है और पीड़िता पूरे बयालीस वर्ष तक नारकीय जीवन जीती है।
इसी प्रकार भोपाल की हाल ही की घटना को देखा जा सकता है जहाँ कॉलेज की महिला टीचर पर बहिन के जेठ ने एक तरफा प्रेम प्रसंग में एसिड अटैक कर दिया। मान लो कि शानबाग प्रकरण में सोहनलाल को आजन्म कारावास की सज़ा भी हो जाती तो क्या वह चौदह वर्ष बाद स्वतंत्र विचरण नहीं कर रहा होता? ऐसे ही भोपाल के एसिड प्रकरण में अगर आरोपी को सजा हो भी जाए तो वह कुछ ही सालों में स्वतंत्र घूम रहा होगा और सज़ा आक्रमण की शिकार महिला भुगत रही होगी।
एक आशंका यह भी सामने आती है कि ऐसे प्रकरणों में अगर आरोपी आजीवन कारावास की सजा काट भी ले तो ऐसा व्यक्ति अंदर रहकर कोई कार्य कुशलता का या टेक्निकल शिक्षा का प्रमाणपत्र लेकर तो नहीं आएगा! कोई नौकरी देने के लिए तो उसे नहीं तैयार खड़ा होगा। ऐसे व्यक्ति के अच्छे मार्ग के बजाय कुमार्ग पर निकल पड़ने की संभावना ही अधिक दिखाई देती है। ऐसे में जैसे मानव जीवन के स्वास्थ्य व समृद्धि के लिए मच्छर व चूहों को मारना आवश्यक है, वैसे ही बलात्कारी व एसिड अटैक वाले के लिए सर्वाधिक उपयुक्त सज़ा अगर कोई हो सकती है तो सिर्फ और सिर्फ मृत्यु दण्ड!
यह सज़ा पीड़ित को उसका स्वाभिमान भले ही न लौटा पाए, उसकी पुरानी ज़िंदगी भले ही वापस न लौटा पाए, पर शायद थोड़ा बहुत मल्हम तो लगा ही सकेगी और किसी नए दुस्साहसी को किसी अरुणा या किसी दामिनी की ज़िंदगी बर्बाद करने से भी शायद रोक सके।
मेरे विचार से बलात्कार व एसिड आक्रमण को जिसे शरीर के साथ पीड़िता की आत्मा का भी वध कहा जा सकता है, के आरोपी को मृत्यु दण्ड से कम सज़ा का कोई प्रावधान नहीं होना चाहिए।