मध्यप्रदेश में स्वास्थ्य सेवाओं के साथ जिस तरह का सौतेला व्यवहार हो रहा है वह निंदनीय है। ऐसा लगता है कि मुख्यमंत्री और स्वास्थ्य मंत्री लोगों के स्वास्थ्य के साथ मज़ाक कर रहे है।
केवल यह कह देने से कि डॉक्टर्स नहीं मिल रहे हैं सरकार की जिम्मेदारी खत्म नहीं हो जाती। बड़ा सवाल तो यह है कि क्या सरकार वास्तव में डॉक्टरों को रखना चाहती है?
क्या सरकार यह बताएगी कि स्वास्थ्य सेवा बेहतर करने के लिए और ज्यादा से ज्यादा MBBS डॉक्टरों को सरकारी सेवा में लाने के लिए अब तक क्या और कितने गंभीर प्रयास किए गए हैं?
राज्य के अस्पताल आज डॉक्टरों की भारी कमी से जूझ रहे हैं। क्या सरकार यह मानती है कि बिना डॉक्टरों के स्वास्थ्य सेवाएं बेहतर हो सकती है? बजाय कोई समाधानकारी उपाय करने के सरकार बांड भरवाने जैसे शार्ट कट अपनाकर स्वास्थ्य सेवाओं की जड़ों को ही कमजोर कर रही है।
क्या कभी किसी ने सोचा है कि गरीब इंसान सरकारी अस्पताल में जाएगा तो –
सर्जरी कौन करेगा ?
ओपीडी में उसे कौन देखेगा ?
गिने चुने डॉक्टर्स दिन भर क्या क्या करेंगे?
एक मरीज को देखने, ट्रीट्मेंट लिखने, पुन:जांच करने और मरीज संबंधी बाकी जिम्मेदारियां पूरी करने में कितना समय लगता है? ऐसे में तत्काल और गुणवत्तापूर्ण सेवा कैसे मिल पाएगी? सीरियस मरीज़ को कितना समय दिया जाना चाहिये? अंतत: 8 घंटे लगातार कितने मरीज देखे जा सकते हैं?
जिन स्वास्थ्य केंद्रों में एक चिकित्सक है, वो ओपीडी, भर्ती मरीज़, मेडिको लीगल केस, पोस्ट मार्टम, सरकारी मीटिंग्स, कोर्ट गवाही, ट्रेनिंग, अस्पताल प्रशासन, विभिन्न राष्ट्रीय कार्यक्रम, सरकारी दौरे, मातहतों का मूल्यांकन, महामारी नियंतत्रण, वीआईपी ड्यूटी, छोटे-बड़े ऑपरेशन, सरकारी कैंप, आपातकालीन सेवा, खाना- सफाई की व्यवस्था, लड़ाई झगड़ा सुलझाने, मरीजों की भरती और छुट्टी जैसे दर्जनों काम कैसे करे?
और होशियारी देखिए- जननी सुरक्षा योजना को संभालने और कम या बिना पढ़े लिखे गांववालों से उसके ऑनलाइन पेमेंट की औपचारिकताएं पूरी करवाने का काम भी उसके माथे थोप दिया गया है। उसका अकाउंट-ऑडिट भी उसे ही देखना है, कोई बताए कि इन सब कामों का डॉक्टर से क्या लेना देना है? इनमें से हर काम एक राजपत्रित अधिकारी की मांग करता है। लेकिन हमारा डॉक्टर ‘रजनीकांत’ बनकर ये सारे काम खुद करता है। और फिर इतना करने के बाद हासिल क्या होता है? वह खुद के बच्चों और परिवार को समय तक नहीं दे पाता। उसे मिलता है घटिया स्तर का जीवन और बरबाद हुआ कॅरियर…
पिछले 10 साल का रिकार्ड उठा के देख लें। आप पाएंगे कि जितने भी नए उपस्वास्थ्य केन्द्र/स्वास्थ्य केन्द्र भवन बने हैं, वे क्रेक हो चुके/धंस चुके हैं और उनकी छतें टपकती हैं, इनमें से कोई काम के नही हैं। इनके लिए तो बजट आता है पर आजादी के 65 सालों बाद भी किसी राज्य में चिकित्सक/स्टाफ क्वार्टर के लिए पुताई का बजट भी आया हो तो बताएं?
उधर देखिए तो आईआईटी, आईआईएम या ऐसी ही प्रोफेशनल योग्यताओं वाले लोग हेल्थ कमिश्नर तक बन जाते हैं। जिनके घर ही प्राथमिक या सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्रों से बड़े हैं। इधर डॉक्टरों का यह हाल है कि उनके लिए मकान और सफाईकर्मी तक नहीं हैं।
डॉक्टरों के टीए और मेडिकल बिल सालों तक पड़े रहते हैं। सरकारें बजट ही नहीं देतीं। बिल मंजूर कराने में रिश्वतखोरी चलती है सो अलग। वर्कशॉप या ट्रेनिंग आदि में भाग लेने के लिए नियम खुद की गाड़ी का और किराया बीपीएल कार्डधारी व्यक्ति वाली साधारण बस का? डीए मिलता है मात्र 170 रुपए।
CMO /DLO/BCMO की गाड़ियां तहसीलदार से भी घटिया हैं। और टीए, डीए का बजट इतना कम कि नंगा नहाएगा क्या, निचोड़ेगा क्या ? और इनसे आईएएस स्तर के कामों की उम्मीद होती है, उनके ऑफिसों में सुबह साढ़े नौ से शाम साढ़े छ: तक बैठने के लिए कूलर तक नही हैं। मेडिकल ऑफिसर के आने जाने के लिए गाड़ी तो बहुत दूर का ख्वाब है, उसके लिए पैसे भी नहीं होते जबकि हकीकत यह है कि बेचारे को चाहे जब दौड़ा दिया जाता है।
क्या मैनेजमेंट, कैसा विजन?
प्रचार पाने के लिए दी जाने वाली दवाइयां, उपकरण आदि घटिया स्तर के होते हैं। उनसे वो कैसे काम करे, कैसे गुणवत्तापूर्ण उपचार दे? क्या इतिहास और अर्थशास्त्र जैसे विषयों से पढ़ाई कर आईएएस बन जाने वाले अफसरों का यही मैनेजमेंट है?
जहां विभाग के प्रमुख सचिव की यह सोच और नीति रही हो कि जब इतने डॉक्टरर्स की कमी है, तो कुछ और कम हो जाने से कोई फर्क नही पडेगा वहां क्या उम्मीद की जाए। डॉक्टरों पर रौब गांठने वाले प्रशासनिक अफसर सिर्फ CMHO, BMO पर चिल्लाने को ही अपना सुपरविजन मानते हैं। राज्य स्तर के स्पेशलिस्ट डॉक्टरों को जलील करके खुद को धन्य समझते हैं। प्रशासनिक अधिकारी और डॉयरेक्टर दिन भर डॉक्टरर्स को सिखाते है कि कार्यालय का काम कैसे हो, परंतु वेबसाइट खोल कर देखे कि इन्हीं बड़े साहबों की लापरवाही के कारण वर्ष 2000 से गोपनीय रिपोर्ट प्राप्त नही होने का बहाना बना कर, डॉक्टरों के प्रमोशन, इनक्रीमेंट रोके जा रहे हैं। काम तभी होता जब कुछ ‘सेवा’ हो जाए। क्या वो डॉक्टर जो सुदूर इलाकों में अपनी सेवाएं दे रहा है वो अक्षम है, जो उसे 18 साल की सेवा के बाद भी मेडिकल ऑफिसर ही बना कर रखा हुआ है। सरकार की कोई स्पष्ट तबादला नीति भी नही हैं। हां, पैसे पहुंच जाएं तो बेहतर पोस्टिंग जरूर मिल जाती है।
इन हालात में मंत्रालय में बैठे आईएएस अफसर, स्वास्थ्य मंत्री और मुख्यमंत्री कैसे उम्मीद कर सकते हैं कि डॉक्टर्स बेहतर सेवाएं दे या इन सेवाओं के लिए आगे आएं। सरकार की वेबसाई खुद कहती है कि राज्य में 7000 के विरुद्ध सिर्फ 2500 डॉक्टर्स ही हैं। कागजी वाहवाही लूट कर जनता को बेवकूफ बनाया जा रहा है। नई भरती न होने से वर्तमान स्टाफ पर दबाव और बढ़ेगा। यदि स्थिति की गंभीरता को नहीं समझा गया तो हालात इतने बिगड़ेंगे कि कोई संभाल नहीं सकेगा।