कई बार ऐसा लगता है कि मुसीबत आती नहीं, बल्कि हम उसे न्योता देते हैं। कुछ लोग यह न्योता डाक से भेज देते हैं, (वैसे आजकल इसके लिए वाट्सएप जैसे मंच भी मौजूद हैं) तो कुछ खुद पीले चावल लेकर मुसीबत के घर पहुंच जाते हैं। – बहुत दिनों से आप आईं नहीं, कभी समय निकालकर जरूर आइए…
मध्यप्रदेश सरकार भी अपने कर्मचारियों के -पदोन्नति में आरक्षण- मामले में ठीक इसी तर्ज पर मुसीबत को बुलावा देती प्रतीत हो रही है। लंबी कानूनी लड़ाई के बाद मध्यप्रदेश हाईकोर्ट ने फैसला सुनाया था कि पदोन्नति में आरक्षण नहीं दिया जा सकता। मध्यप्रदेश हाईकोर्ट से पहले सुप्रीम कोर्ट भी इसी तरह के अन्य मामलों में ऐसी ही व्यवस्था दे चुका है और कोर्ट के आदेशों का पालन करते हुए उत्तरप्रदेश और बिहार सरकारों ने पदोन्नति में दिए गए आरक्षण को रद्द तक किया है।
मध्यप्रदेश में इस मुद्दे पर कर्मचारी वर्ग दो फाड़ हो गया है। एक तरफ अनुसूचित जाति व जनजाति के कर्मचारियों का संगठन ‘अजाक्स’ है जो सरकार पर दबाव डाल रहा है कि, पदोन्नति में आरक्षण की व्यवस्था हर हाल में कायम रखी जाए। दूसरी तरफ सामान्य वर्ग के कर्मचारियों के संगठन ‘सपाक्स’ ने मांग की है कि हाईकोर्ट के फैसले को तत्काल लागू किया जाए। सरकार हाईकोर्ट के फैसले के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में चली गई है और वहां से उसने स्टे हासिल कर लिया है। इस बीच मामले का स्थायी हल निकलवाने के लिए, दोनों ही संगठनों ने अपनी ताकत झोंक दी है।
इस मामले में नया मोड़ उस समय आया जब 12 जून को ‘अजाक्स’ की ओर से ‘आरक्षण बचाओ, देश बचाओ’ रैली में पहुंचकर मुख्यमंत्री शिवराजसिंह चौहान ने घोषणा कर डाली कि- ‘’राज्य सरकार पदोन्नति में आरक्षण की पक्षधर है और मेरे रहते कोई माई का लाल आरक्षण खत्म नहीं कर सकता।‘’ चौहान ने इसके लिए नियमों में आवश्यक बदलाव के लिहाज से वन मंत्री डॉ. गौरीशंकर शेजवार की अध्यक्षता में कैबिनट की एक सब कमेटी बनाने का भी ऐलान कर दिया। पदोन्नति में आरक्षण की इस लंबी चौड़ी महाभारत में और भी बहुत सारी क्षेपक कथाएं जुड़ी हुई हैं, लेकिन उनका जिक्र अभी यहां जरूरी नहीं है।
मूल मुद्दा यह है कि चाहे सामान्य वर्ग के कर्मचारी हों या आरक्षित वर्ग के, दोनों ही सरकार के मातहत काम करते हैं। सरकार जात, बिरादरी, धर्म, संप्रदाय से परे प्रदेश के सभी कर्मचारियों की ‘कस्टोडियन’ है। उससे यही अपेक्षा की जाती है कि वह सभी को समभाव से देखे। ऐसे में वह अपने ही कर्मचारियों के एक वर्ग के समर्थन में इस तरह खुलकर कैसे खड़े हो सकती है, जबकि दूसरा वर्ग उस मुद्दे पर विरोध कर रहा हो। क्या यह खुद अपने ही कर्मचारियों में फूट डालने वाला कदम नहीं है?
निश्चित रूप से शिवराजसिंह चौहान एक संवेदनशील मुख्यमंत्री हैं। वंचितों के प्रति उनकी संवेदना ‘व्यक्ति शिवराज’ के रूप में असंदिग्ध है। लेकिन जब मामला शासन व्यवस्था या गवर्नेंस का हो तो, उसकी आचार संहिताएं और उसका अनुशासन दोनों ही अलग होते हैं। वैसे भी यह मामला अभी न्यायालय के विचाराधीन है। सुप्रीम कोर्ट ने सरकार को पदोन्नति में आरक्षण की अनुमति नहीं दी है, बल्कि केवल हाईकोर्ट के आदेश को स्थगित रखा है। यहां यह भी नहीं भूला जाना चाहिए कि जिस सुप्रीम कोर्ट के पास मध्यप्रदेश का यह मामला विचाराधीन है वही सुप्रीम कोर्ट ऐसे ही मामलों में संविधान की व्यापक व्याख्या करते हुए पदोन्नति में आरक्षण को अनुचित बता चुका है। मध्यप्रदेश के मामले में उसका फैसला क्या होगा, यह अभी से तो नहीं कहा जा सकता, लेकिन यह सवाल तो खड़ा होता ही है कि क्या सुप्रीम कोर्ट, समान मामले में, अपने ही पुराने फैसलों के विपरीत जाकर कोई फैसला देगा?
विवेकपूर्ण व्यवहार तो यही होता कि जिस तरह सुप्रीम कोर्ट ने मामले में यथास्थिति बनाए रखी है, उसी तरह सरकार भी पार्टी बनने के बजाय यथास्थिति को बनाए रखती। अजाक्स हो या सपाक्स, सरकार के पास सबसे बड़ा ब्रह्मास्त्र कोर्ट है, वह उसका सहारा लेकर अपने आपको बखूबी बचाए रख भी सकती है।
आमतौर पर ऐसे संवेदनशील मामले जब भी उठते हैं, उन्हें वोटों की राजनीति से जोड़ दिया जाता है। लेकिन शायद सरकार भी नहीं चाहेगी कि, उसके अपने ही कर्मचारियों के बीच इस तरह के किसी राजनीतिक संदेश का प्रदूषण प्रवाहित हो। खालिस राजनीतिक दृष्टि से भी, यह याद रखने लायक तथ्य है कि, पदोन्नति में आरक्षण का फैसला राज्य की पूर्ववर्ती कांग्रेस सरकार के समय का है।
यहां यह भी नहीं भूलना चाहिए कि कुछ समय पूर्व राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के सरसंघचालक मोहन भागवत ने आरक्षण की व्यवस्था पर सम्यक दृष्टि से पुनर्विचार की बात कही थी। शिवराजसिंह के पास यह अवसर है कि वे मध्यप्रदेश से ऐसा संदेश दें, जो देश में आरक्षण की बहस को नए नजरिए से देखने की नजीर बने। आज मध्यप्रदेश में शिवराजसिंह की जो पकड़ और स्थिति है, जनता में उनकी जो छवि है, उसके चलते शायद देश में वे ही एकमात्र ऐसे मुख्यमंत्री हैं, जो इतिहास बदलने वाला यह जोखिम ले सकते हैं। इस समय जब देश के अधिकांश राजनेता, वोट बैंक के लालच में, आरक्षण व्यवस्था को लेकर लीक पर चलने में ही भलाई समझ रहे हैं, उस समय लीक से हटने का हौसला दिखाकर शिवराज खुद को दूसरों से बड़ा और दूरदृष्टा नेता साबित कर सकते हैं। हां, इस काम में राजनीतिक जोखिम जरूर हैं, लेकिन इस वीरप्रसूता वसुंधरा पर कोई तो हो जो यह धनुष उठाए!
गिरीश उपाध्याय