हमारे पाठकों में से ज्यादातर, महाकवि कालिदास की कहानी से अपरिचित नहीं होंगे। फिर भी जिन लोगों की याददाश्त कमजोर हो गई है या जिन लोगों ने साहित्य अथवा संस्कृति के अध्यायों को उतना नहीं पढ़ा है, उनके लिए मैं अपनी बात कहने से पहले, वह कहानी बता दूं-
किंवदंतियों के अनुसार कालिदास अपने जीवन के आरंभिक काल में निपट अनपढ़ और मंदबुद्धि थे। उन्हीं के समय विद्योत्तमा नामक राजकुमारी ने स्वयंवर आयोजित किया। विद्योत्तमा को अपने ज्ञान पर बड़ा घमंड था, लिहाजा उसने शर्त रखी कि जो भी उसे शास्त्रार्थ में पराजित कर देगा, वह उसी से विवाह करेगी। बड़े बड़े विद्वानों ने विद्योत्तमा से शास्त्रार्थ किया, लेकिन वे उसे पराजित नहीं कर पाए और उन्हें अपमान सहना पड़ा। विद्योत्तमा के घमंड को चूर करने के लिए इन्हीं पराजित विद्वानों के समूह ने एक षड़यंत्र रचा और फैसला किया कि वे किसी निपट मूर्ख की शादी विद्योत्तमा से करवाएंगे।
इसी संकल्प के तहत वे सारे विद्वान उस संभावित मूर्ख की तलाश में निकले। कहते हैं उसी दौरान उन्होंने पेड़ पर चढ़े एक ऐसे व्यक्ति को देखा, जो उसी डाल को काट रहा था, जिस पर वह बैठा था। विद्वानों को लगा कि इससे मूर्ख व्यक्ति और कौन हो सकता है। बताया जाता है कि यही व्यक्ति कालिदास था। उन्होंने उसे उतारा और सजा धजा कर विद्योत्तमा के सम्मुख ले गए। शास्त्रार्थ के दौरान विद्योत्तमा के संकेत प्रश्नों के उत्तर में कालिदास द्वारा किए जाने वाले इशारों की, पराजित पंडितों ने शास्त्रीय और कूट व्याख्या कर, छलपूर्वक विद्योत्तमा को पराजित कर दिया। विद्योत्तमा ने कालिदास से विवाह कर लिया। लेकिन जब उसे कालिदास के अनपढ़ होने का पता चला तो उसने गुस्से में आकर उन्हें यह कहते हुए घर से निकाल दिया कि, अब वास्तविक विद्वान बनकर ही लौटना। अपमानित कालिदास ने विद्या साधना की और वे वास्तविक अर्थों में प्रकांड विद्वान बनकर लौटे। आज उनके योगदान को सारा संसार जानता है।
इतनी लंबी कहानी मैंने क्यों कही? क्योंकि मुझे वर्तमान राज्यसभा चुनाव में भाजपा के आचरण को लेकर इससे बेहतर कोई और उदाहरण नहीं सूझा। कालिदास की कहानी और भाजपा की कहानी में बस एक अंतर है। भाजपा की कहानी को समझना हो तो आप कालिदास की कहानी को रिवर्स या उलटा चलाकर देख लीजिए। आप पूरी बात आसानी से समझ जाएंगे। कालिदास की कहानी एक निपट मूर्ख से प्रकांड विद्वान बनने की कहानी है, जबकि भाजपा की कहानी एक समझदार व्यक्ति के उसी दशा में लौटने की गाथा है, जो उसी डाल को काटने पर तुला है जिस पर वह बैठा है। भाजपा उसी नाव में छेद कर रही है जिसके सहारे वह आज यहां तक पहुंची है।
एक समय था जब भाजपा को देश में लोग अपेक्षाकृत अधिक शुचिता और नैतिकता वाली पार्टी समझते थे, लेकिन आज शायद इस पार्टी ने उन सारे गुणों को जैसे तिलांजलि देने की ठान ली है। यहां कभी चाल, चरित्र और चेहरे की बात होती थी, लेकिन राज्यसभा चुनाव में जैसा खेल रचा गया वह सारे नैतिक मापदंडों को धूल धूसरित करने के लिए पर्याप्त है। तुलसीदास ने साम,दाम,दंड,भेद की नीति की बात कही थी लेकिन उसमें शायद अनैतिकता का संदर्भ नहीं था। इस बार तो नैतिक अनैतिक सारे बंधन ही टूट गए। यह ठीक है कि भाजपा ने इस सारी जोड़ तोड़ के चलते राज्यसभा में अपेक्षित संख्या से दो सीटें अधिक जीतने की ‘महान उपलब्धि’ हासिल की, लेकिन उसने जो खोया है, वह इस प्राप्त किए हुए से,कहीं अधिक है। इस पूरे प्रकरण में भाजपा ने कंगूरा तो छू लिया पर उसकी जमीन तिड़क गई।
वैसे चाहे भाजपा हो या कांग्रेस इस बार राज्यसभा चुनाव में सारा खेलकर खुलकर हुआ। आश्यर्च की बात यह रही कि अब तक ऐसी बातों पर जैसा हो हल्ला हुआ करता था, समाज में वैसी हलचल भी नहीं हुई। सबसे बड़ी चिंता का विषय यही है कि समाज भी अब अनैतिकता को स्वीकार्य मानने लगा है। सारा खेल सबकी आंखों के सामने चल रहा था और हर कोई कत्ल करने के बाद प्राण रक्षा की दुहाइयां दे रहा था। आप मानकर चलिए कि आने वाले दिनों में चुनावी राजनीति में शुचिता और नैतिकता के बचे खुचे तटबंध भी ध्वस्त होने वाले हैं।
कई बार तो ऐसा लगा कि मानो सुई और छन्नी में छेद को लेकर बहस चल रही हो। सुई और छन्नी के बीच छिद्रान्वेषण के इस राष्ट्रीय विमर्श में, ऐसे ऐसे तर्क या कुतर्क दिए गए कि पूछिए मत। मुझे लगा वास्तव में यदि सुई और छन्नी आपस में लड़ सकते तो वे भी शायद कुछ तो जरूर संकोच करते। जिस लोकतंत्र की हम दुहाई देते आए हैं, उसमें दरारें भरने और खाइयां पाटने की बात है। यहां तो छेद स्वीकार्यता पर आम सहमति दिख रही है। जीत को झपट लेने के फेर में हम शायद यह भूल गए हैं कि नैतिकता में एक छेद भी स्वीकार्य नहीं है। यह बहस ही बेमानी है कि हममें तो एक है और तुममें हजार। क्या लोकतंत्र के नए भवन का नक्शा हमने आदर्शों के रिसाव की नालियों के साथ ही मंजूर कराया है?
गिरीश उपाध्याय