मंदी के मोर्चे पर कितनी ‘सेना’ तैनात करने की तैयारी है?

तीन तलाक का बिल पास करने, फिर कश्‍मीर में धारा 370 के विशेष प्रावधानों को खत्‍म करने के बाद देश में एक ओर जहां समान नागरिक संहिता पर बहस शुरू कर दी गई है वहीं अयोध्‍या में राम मंदिर निर्माण को लेकर सुप्रीम कोर्ट में चल रही नियमित सुनवाई पर भी लोगों की निगाह लगी हुई है। लेकिन इन तमाम मुद्दों के बीच देश की अर्थव्‍यवस्‍था को लेकर चिंता पैदा करने वाली खबरों को या तो दरकिनार किया जा रहा है या फिर उसे बहस में आने ही नहीं दिया जा रहा।

दो दिन पहले मैं एनडीटीवी पर एक खबर देख रहा था जिसमें अलग-अलग क्षेत्रों का उदाहरण देते हुए अनिंद्यो चक्रवर्ती बता रहे थे कि किस तरह देश की अर्थव्‍यवस्‍था को एक घुन सा लग गया है और उसका बढ़ना तो दूर उलटे उसमें गिरावट आती जा रही है। अनिंद्यो ने हालात को समझाने के लिए दो प्रमुख क्षेत्र रियल एस्‍टेट और ऑटोमोबाइल को आधार बनाया था।

जानकारी यह है कि ‘’घरों की बिक्री थम गई है और कारों के उत्पादन और बिक्री में भारी गिरावट आई है। 30 शहरों में करीब 12 लाख 76 हजार घर बनकर तैयार हैं, जिन्हें भरने में 3 से 6 साल लगने का अनुमान है, जबकि बिल्डर्स 11 से 12 महीने का टारगेट लेकर चलते हैं। गाड़ियों की बिक्री 23 फीसदी गिर गई है। मोटर साइकिल की बिक्री 9 और स्कूटर की 16.5 फीसदी गिरी है। वहीं 2014 से 2019 के बीच कॉरपोरेट नौकरियों में सालाना बढ़त सिर्फ 0.7 फीसदी की ही हुई है।‘’

चूंकि देश इस समय कश्‍मीर में धारा 370 की समाप्ति की खुमारी में है इसलिए उसे सीमा और सेना के मोर्चों पर से ध्‍यान हटाकर आर्थिक मोर्चे पर देखने का समय नहीं मिल पा रहा। लेकिन आर्थिक मोर्चे से आ रही खबरें भविष्‍य के लिए अच्‍छे संकेत लेकर नहीं आ रही हैं। एक तरफ उत्‍पादन यानी निर्माण और मैन्‍युफैक्‍चरिंग का क्षेत्र लगातार समस्‍याओं से जूझ रहा है वहीं बेरोजगारी की बढ़ती दर समस्‍या को और भयावह बना रही है।

17 वीं लोकसभा का चुनाव संपन्‍न हो जाने के तत्‍काल बाद 31 मई को श्रम मंत्रालय की ओर से बेरोजगारी के जो आंकड़े जारी किए गए थे, वे बताते हैं कि देश में बेरोजगारी की दर पिछले 45 सालों में सबसे ज्यादा है। वित्त वर्ष 2017-18 के दौरान देश में बेरोजगारी दर 6.1 फीसदी रही। चौंकाने वाली बात यह भी है कि महिलाओं की अपेक्षा पुरुषों में यह दर अधिक है। यदि पुरुषों और महिलाओं की अलग-अलग बेरोजगारी दर देखें तो पुरुषों की दर 6.2 फीसदी है, जबकि महिलाओं की 5.7 फीसदी।

श्रम मंत्रालय द्वारा जारी इन आंकड़ों ने हमारे योजनाकारों को अब तक चली आ रही एक प्रचलित धारणा पर भी फिर से सोचने के लिए मजबूर किया है और वह धारणा यह है कि गांव के लोग रोजगार की तलाश में शहरों की ओर पलायन करते हैं, क्‍योंकि शहरों में रोजगार उपलब्‍ध है। लेकिन ताजा आंकड़ों ने बताया है कि शहरों की हालत गांवों से भी खराब है। शहरों की बेरोजगारी दर गांवों की तुलना में ढाई फीसदी ज्‍यादा है। गांवों में यदि 5.3 फीसदी युवा बेरोजगार हैं तो शहरों में 7.8 फीसदी। इसका मतलब यह हुआ कि जिस शहरीकरण को हम विकास का सूचक मान बैठे हैं वह बेरोजगारों की फौज को बढ़ा रहा है।

बीबीसी की एक रिपोर्ट कहती है कि देश के सकल घरेलू उत्पाद यानी जीडीपी में पिछले तीन वित्तीय वर्षों से लगातार गिरावट आ रही है। 2016-17 में जीडीपी विकास दर 8.2 फ़ीसद प्रति वर्ष थी, तो 2017-18 में यह घटकर 7.2 प्रतिशत रह गई। और वर्ष 2018-19 में 6.8 फ़ीसद ही दर्ज़ की गई। ताज़ा आधिकारिक आंकड़ों पर यकीन करें तो 2019 की जनवरी से मार्च की तिमाही में जीडीपी विकास दर 5.8 फ़ीसद ही रही है, जो पांच साल में सबसे कम है।

अनिंद्यो चक्रवर्ती कहते हैं कि मकानों और ऑटोमोबाइल में उठाव न होने का एक कारण यह भी है कि नॉन बैंकिंग फायनेंस कंपनियों (एनबीएफसी) को कर्ज देने के लिए अधिक राशि उपलब्‍ध नहीं हो पा रही है। जबकि खासतौर से ऑटोमोबाइल के क्षेत्र में लोन मुहैया कराने में एनबीएफसी की महत्‍वपूर्ण और व्‍यापक भूमिका है। उठाव न होने का एक और कारण यह भी है कि नई नौकरियां मिल नहीं रहीं और जो लोग नौकरियों में हैं उन्‍हें यह भरोसा नहीं है कि वे कब तक नौकरी में रह पाएंगे या फिर जिस कंपनी में वे काम कर रहे हैं उसकी माली हालत कब तक ठीक रहेगी।

अभी हाल ही में मुझसे मिलने आए मीडिया इंडस्‍ट्री में काम करने वाले एक सहयोगी ने बताया कि पिछले दो सालों से ज्‍यादातर लोगों को कोई इनक्रीमेंट नहीं मिला है। जिन लोगों को इनक्रीमेंट का लाभ दिया भी गया है तो वह 500 से 1000 रुपए के बीच ही है। बढ़ती महंगाई की तुलना में यह सालाना इनक्रीमेंट न के बराबर है। मीडिया इंडस्‍ट्री में काम का बोझ लगातार बढ़ता जा रहा है और लोगों को नौकरी से निकालने का सिलसिला भी जारी है। कर्मचारियों से कहा जा रहा है कि या तो वे जो मिल रहा है उसी वेतन में काम करते रहें या फिर दूसरी नौकरी ढूंढ लें।

एक तरफ आमदनी बढ़ नहीं रही है, दूसरी तरफ बचत भी नहीं हो पा रही है। बचत न होने का सबसे बड़ा असर बिना बिके मकानों पर पड़ा है। लोग नए कर्ज के झमेले में फंसने से बच रहे हैं। चाहे वह मकान खरीदने का मामला हो या नई गाड़ी लेने अथवा पुरानी गाड़ी बदलने का। नोटबंदी के बाद से ही घरेलू बचत पर जो मार पड़ी थी, उसके बाद से यह क्षेत्र अभी तक उठ नहीं पाया है। अब अर्थव्यवस्था के दूसरे मोर्चों पर आए संकट के चलते घरेलू बचत और अधिक प्रभावित हो रही है। वित्त वर्ष 2011-12 में घरेलू बचत, जीडीपी का 34.6 प्रतिशत थी जो 2018-19 में घटकर 30 फीसद ही रह गई।

एक तरफ सरकारी नीतियां, चाहे कृषि क्षेत्र हो या उद्योग, दोनों को कर्ज के जाल में फंसाती जा रही हैं, दूसरी तरफ घरेलू बचत के रूप में इकट्ठा होकर बैंकों तक पहुंचने वाली रकम में लगातार कमी हो रही है। छोटी छोटी बचत की यही राशि बैंकों को वह आधार देती है जिससे वे बड़े कर्ज दे पाते हैं। और जब भी बचत में गिरावट आती है, बैंकों के क़र्ज़ देने की क्षमता भी घट जाती है। ऐसे में कर्ज लेकर घी पीने की बात तो छोडि़ये पानी पीना भी मुश्किल होगा।

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