स्वामी के निशाने पर अब अरविंद सुब्रमण्यन
11 मई को वित्त मंत्री अरुण जेटली, सुब्रमण्यम स्वामी के अनुभव और ज्ञान के मुरीद थे। तब कहा था कि वे एक मशहूर अर्थशास्त्री हैं और मैं उनसे मशविरा करता हूं। एक महीने के भीतर स्वामी को लेकर अरुण जेटली को कुछ और सफाई देनी पड़ती है। भारतीय रिजर्व बैंक के बाद सुब्रमण्यम स्वामी ने मुख्य आर्थिक सलाहकार अरविंद सुब्रमण्यम को ठीक वैसे ही निशाना बनाया जैसे उन्होंने रघुराम राजन पर निशाना साधा था। उन्होंने बयान दिया कि 13-3-13 को किसने अमेरिकी कांग्रेस से कहा कि अमेरिकी दवा कंपनियों के हितों की रक्षा के लिए अमेरिका को भारत के ख़िलाफ़ कार्रवाई करनी चाहिए? वित्त मंत्रालय के अरविंद सुब्रमण्यम!! उन्हें निकालो!!!
अभी तक स्वामी के इस आरोप का किसी ने खंडन नहीं किया है। ज़ाहिर है इस बयान से सरकार सुर्ख़ हो गई होगी तभी महीने भर पहले स्वामी को मशहूर अर्थशास्त्री बताने वाले वित्त मंत्री को बुधवार को कुछ ऐसा कहना पड़ा, जिसमें उनकी और सरकार की झेंप ही ज़्यादा झलकती है। वित्त मंत्री ने कहा कि पार्टी ने कहा है कि वह डॉक्टर स्वामी के मत से सहमत नहीं है। भारतीय नेताओं के अनुशासन के लिहाज़ से मैं भी एक बात और जोड़ना चाहता हूं कि हम किस हद तक उन लोगों पर हमला कर सकते हैं, जो पद की सीमा और अनुशासन के कारण प्रतिक्रिया नहीं दे सकते और यह एक से ज़्यादा बार हो चुका है।
सवाल स्वामी को लेकर था, मगर वित्त मंत्री ने नसीहत भारतीय राजनेताओं को दे दी। जबकि स्वामी भारतीय जनता पार्टी के नेता हैं। राष्ट्रीय कार्यकारिणी के सदस्य हैं और राज्यसभा में भी भेजे गए हैं। क्या जेटली की सलाह पर स्वामी अमल करेंगे। राज्यसभा में भेजे जाने से पहले से ही वे वित्त मंत्री को भी निशाना बनाते रहे हैं। 2015 में काला धन और मुद्रास्फीति के मसले पर कहा था कि मैंने सरकार को पत्र लिखकर काला धन लाने के लिए छह उपाय बताये हैं, लेकिन वित्त मंत्री जो तरीका अपना रहे हैं उससे काला धन नहीं आएगा। स्वामी ने जेटली के कालाधन विधेयक की भी आलोचना करते हुए कहा था कि इससे कुछ नहीं होने वाला है।
कांग्रेस नेता दिग्विजय सिंह ने ट्वीट किया है कि सुब्रमण्यम स्वामी, अरविंद सुब्रमण्यम के बहाने अरुण जेटली को निशाना बना रहे हैं। वैसे स्वामी जितना जेटली को टारगेट कर लेते हैं, उससे ज्यादा खुलकर वे सोनिया गांधी और राहुल गांधी को भी निशाना बनाते हैं। 4 मई को राज्यसभा में अगुस्ता वेस्टलैड मामले में स्वामी के हमले से खुश बीजेपी को कांग्रेस नेता आनंद शर्मा की चेतावनी याद आ रही है। “ये जो तोहफा पेश किया है, इनके सबसे वरिष्ठ नेता, माननीय अटल जी, आप सभी, जो आर एस एस के लोग बैठे हैं, आर एस एस के बारे में कितनी आरती उतारी है, आप थोड़े दिन चुप रहिए यह तोप कहां मुड़ेगी फिर मैं आपसे पूछूंगा। आप में से कितने लोगो के दिल में लड्डू फूट रहे हैं और कितने लोग चिन्ता में है क्योंकि यह तोहफा ही ऐसा नायाब तोहफा है।”
जब स्वामी, रघुराम राजन के खिलाफ हमले कर रहे थे, उनके ईमेल के बाद भारतीय रिज़र्व बैंक के गर्वनर को भारत सरकार का कर्मचारी बता रहे थे, तब किसी ने नहीं कहा कि स्वामी की यह व्यक्तिगत राय है। उन्हें नहीं बोलना चाहिए। स्वामी कब ऑफिशियल हो जाते हैं और कब अनऑफिशियल पता नहीं चलता। क्या स्वामी तब भी अनऑफिशियल थे जब वे दिल्ली में अरविंद केजरीवाल के घर के बाहर बीजेपी सांसद महेश गिरी के धरने में शामिल हुए। तब स्वामी ने कहा कि मैं अभी तक राजन के पीछे थे, अब वे चले गए हैं। अब मैं दिल्ली पर फोकस करूंगा। उप राज्यपाल के पास हमारे बेकसूर सांसद को बचाने का वक्त नहीं है। मुख्यमंत्री ने दावा किया है कि वे आईआईटी के प्रतिभाशाली छात्र रहे हैं। जिस तरह उसने एडमिशन लिया है उसके दस्तावेज़ हैं मेरे पास। स्वामी तब तो ऑफिशियल थे और अरविंद केजरीवाल पर हमले की बात कर रहे थे। मगर अरविंद केजरीवाल से पहले अरविंद सुब्रमण्यम को ही निशाना बना डाला।
क्या यहां भी स्वामी अनऑफिशयल हैं, जब पिछले साल अक्टूबर में जयप्रकाश नारायण की 113वीं जयंती के मौके पर विज्ञान भवन में एक कार्यक्रम हुआ था। इसमें प्रधानमंत्री मोदी ने स्वामी को सम्मानित करते हुए उनकी खूब तारीफ की कि कैसे आपातकाल के वक्त स्वामी ने विदेशों में जाकर इंदिरा गांधी की छवि को चुनौती देने का काम किया। इस कार्यक्रम में कई राज्यपाल, पंजाब के मुख्यमंत्री और गांधीनगर के सांसद और पूर्व उप प्रधानमंत्री लालकृष्ण आडवाणी को भी सम्मानित किया गया था। स्वामी की तारीफ में दिया प्रधानमंत्री का भाषण यूट्यूब पर मौजूद है।
आज जैसे ही स्वामी ने मुख्य आर्थिक सलाहकार अरविंद सुब्रमण्यम पर हमला किया यह तर्क दिया जाने लगा कि उनकी व्यक्तिगत राय है। क्या बीजेपी में अन्य नेताओं को भी यह छूट है कि सरकार के मुख्य आर्थिक सलाहकार पर व्यक्तिगत रूप से हमला कर सकता है। क्या अन्य नेता भी सरकार के किसी हिस्से की राष्ट्रीयता या राष्ट्रभक्ति पर संदेह करने की छूट ले सकते हैं। स्वामी ने अरविंद सुब्रमण्यम को सिर्फ अमरीकापरस्त ही नहीं बताया, बल्कि यह भी कहा कि आप गेस कीजिए कि किसने कांग्रेस को जीएसटी के प्रावधानों को लेकर अड़ जाने के लिए प्रोत्साहित किया। जेटली के आर्थिक सलाहकार अरविंद सुब्रमण्यम ऑफ वाशिंगटन डीसी।
वित्त मंत्री के सलाहकार को वाशिंगटन डीसी का बताना और जीएसटी पर कांग्रेस को अड़ जाने के लिए उकसाने का आरोप अनऑफिशियल व्यक्ति का नहीं हो सकता है। इलाहाबाद की कार्यकारिणी में भारतीय जनता पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह ने कहा था कि एनडीए की सरकार निर्णय लेने वाली सरकार है। राजनीतिक नेतृत्व और नौकरशाही के बीच का कंफ्यूज़न दूर हो गया है। सरकार निर्णय लेती है और नौकरशाही लागू करती है। अगर यह सही है तो क्या यह मुमकिन है कि वित्त मंत्रालयल का एक मुख्य नौकरशाह अपनी ही सरकार की नीति के खिलाफ विपक्ष को उकसा रहा हो। वैसे स्वामी ने जो कहा हमने उसकी पड़ताल करने की कोशिश की।
अमरीका के हाउस ऑफ रिप्रज़ेंटिव की कमेटी ऑन वेज एंड मीन्स की अपनी एक वेबसाइट ही है। यहां पर सुब्रमण्यन टेस्टमनी नाम से 25 पन्नों की एक फाइल मिलेगी। वाशिंगटन डीसी स्थित Peterson Institute for International Economics and Center for Global Development के सीनियर फेलो के तौर पर मार्च 2013 में अरविंद सुब्रमण्यन ने अमरीकी संसद की कमेटी को अपनी समीक्षा पेश की थी। इसका टॉपिक है डीपनिंग यूएस इंडिया ट्रेड रिलेशंस। इसमें उन बातों का ज़िक्र है कि अमरीका की कंपनियों को भारत में काराबोर करने में क्या-क्या दिक्कतें आती हैं। दूसरे मुल्कों के साथ भारत के व्यापार समझौते के कारण अमरीकी हितों को नुकसान होता है। वे बता रहे हैं कि भारत का टैक्स वातावरण कमज़ोर है और अनिश्चित है। जिसकी वजह से सिविल न्यूक्लियर बिजनेस, बुनियादी क्षेत्र और दवाओं के क्षेत्र के कारोबार में असर पड़ता है। अरविंद सुब्रमण्यन ने साफ-साफ कहा है कि Combined with the fact of India’s large and growing market, US suppliers can really be disadvantaged। मतलब वे कह रहे हैं कि भारत के विशाल और बढ़ते बाज़ार के संदर्भ में अमरीकी सप्लायर वाकई घाटे की स्थिति में हो सकते हैं। अरविंद सुब्रमण्यन सलाह दे रहे हैं कि अमरीका को भारत के खिलाफ विश्व व्यापार संगठन में जाना चाहिए। ये और बात है कि विश्व व्यापार संगठन में भारत का रिकॉर्ड अच्छा है। वे अमरीका के व्यापार संगठनों को राय दे रहे हैं कि किस तरह से भारतीय कंपनी और नियार्तकों को मजूबर करें, ताकि भारत दबाव में आकर अपनी नीतियों में बदलाव करे।
अमरीकी संसद में अरविंद सुब्रमण्यन द्वारा दिए गए बयान का लिंक :
http://www.cgdev.org/doc/ways_means_testimony_march_11_2013.pdf
हर दूसरी तीसरी बात को राष्ट्रवादी की नज़र से देखने की वकालत करने वाली बीजेपी, उसकी सरकार के मंत्री और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ इस रिपोर्ट को कैसे देखेंगे। क्या वे भारत के मुख्य आर्थिक सलाहकार की तीन साल पहले की एक रिपोर्ट को उसी राष्ट्रवाद के चश्मे से देखना चाहेंगे। स्वामी से पहले भी ये बात उस वक्त उठी जब अरविंद सुब्रमण्यन आर्थिक सलाहकार बने थे। तब स्वामी ने इस तरह से सक्रिय हमला क्यों नहीं बोला था।
21 अक्टूबर, 2014 के दिन फर्स्टपोस्ट पर जी प्रमोद कुमार ने अरविंद सुब्रमण्यन के बारे में एक लेख लिखा था जिसका शीर्षक था कि भारत या अमरीका, मुख्य आर्थिक सलाहकार सुब्रमण्यन किसके हितों की सेवा करेंगे। इस लेख में सुब्रमण्यन की इस रिपोर्ट का ज़िक्र है। पत्रकार जी प्रमोद कुमार ने अपने लेख में सवाल उठाये हैं कि एक व्यापार विशेषज्ञ जो अमरीका के हितों के लिए काम कर रहा था, वो आर्थिक सलाहकार बना है। अरविंद सुब्रमण्यन ने यूं ही चलते फिरते कोई बात नहीं कही थी, बल्कि बकायदा अमरीका की संसद की कमेटी के सामने अपना प्रतिवेदन पेश किया था जो भारत के खिलाफ और अमरीका के व्यापारिक हितों के पक्ष में था।
स्वामी को यह भी बताना चाहिए कि क्या भारत सरकार ने अरविंद सुब्रमण्यन को किसी दबाव में अपना आर्थिक सलाहकार नियुक्त किया है। अगर हर अर्थशास्त्री को हम उनके विश्व बैंक और अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष से जुड़े होने के आधार पर देखेंगे तो मोदी सरकार को स्वामी को ही रिज़र्व बैंक से लेकर आर्थिक सलाहकार बनाना पड़ जाएगा। क्या इसके पीछे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और स्वदेशी ब्रिगेड की बेचैनी हो सकती है कि कब तक बाहर से आए ये अर्थशास्त्री नीतियों पर छाये रहेंगे। अगर ऐसा है तो उसकी वो उग्र प्रतिक्रिया कहां है, जब प्रधानमंत्री यह एलान कर रहे हैं कि भारत दुनिया की सबसे खुली अर्थव्यवस्था है। मधुमक्खीपालन तक में विदेशी निवेश की अनुमति दी गई है। हमें यह भी देखना चाहिए कि क्या स्वामी व्यक्तिगत तौर पर खुली अर्थव्यवस्था के आलोचक हैं। मीडिया से वे कहते रहे हैं कि 90 के दशक में उदारीकरण का ब्लूप्रिंट उन्होंने तैयार किया, लेकिन श्रेय मनमोहन सिंह को मिल गया। क्या यह सवाल करने का कोई मतलब है कि वो ब्लूप्रिंट स्वदेशी था या अमरीकी। ख़ुद स्वामी भी तो कई साल अमरीका में पढ़ा चुके हैं।
उनके ट्वीटर पर मौजूद तमाम तस्वीरें बताती हैं कि स्वामी अपने राजनीतिक अतीत से नहीं भागते। उनके हैंडल पर जनता दल के दौर की तस्वीरें हैं, राजीव गांधी के साथ की तस्वीरे हैं। मैं यू-ट्यूब पर मौजूद रेडियो बोस्टन पर उनका एक इंटरव्यू सुन रहा था। उस साल स्वामी के एक लेख के कारण हार्वर्ड ने उनका कोर्स रद्द कर दिया और उन्हें निकाल दिया था। हार्वर्ड का मानना था कि स्वामी ने अपने लेख के ज़रिये सांप्रदायिक हिंसा उकसाने का काम किया है। इस इंटरव्यू में स्वामी कहते हैं कि वे हार्वर्ड से प्यार करते हैं। हार्वर्ड को समझना चाहिए कि मैं भारत में राजनेता हूं और अमरीका में एकडेमिक की तरह आता हूं। खुद स्वामी अपने लिए अमरीका और भारत में अलग-अलग रोल को समझने की मांग करते हैं लेकिन क्या वे यह छूट राजन या अरविंद सुब्रमण्यन को देना चाहेंगे कि अमरीका में व्यापार विशेषज्ञ की तरह उनकी राय एक बात है और भारत के आर्थिक सलाहकार के रूप में उनका काम अलग, जैसे स्वामी भारत में नेता हैं और अमरीका में एकडेमिक।
स्वामी के आरोपों को खारिज करना अलग बात है और सरकार की सुविधा के अनुसार भारतीय जनता पार्टी या मोदी सरकार या संघ परिवार के स्कीम से उन्हें निकाल देना अलग बात है। सुब्रमण्यम स्वामी भी अर्थशास्त्री हैं। मगर वे राजनीति के भावुक मुद्दों में भी दखल रखते हैं और अर्थशास्त्र के नीरस मसलों को भी राजनीतिक रूप से भावुक बना देते हैं। क्या मुख्य आर्थिक सलाहकार अरविंद सुब्रमण्यन ने अमरीकी संसद के सामने भारत के हितों के खिलाफ गवाही दी थी। इस सवाल का स्वामी कौन है। मतलब जवाब कौन देगा।
(रवीश कुमार के ब्लॉग कस्बा से साभार)