प्राचीन भारत के प्रमुख सांस्कृतिक नगरों में उज्जयिनी की गणना थी। धर्म, दर्शन एवं साहित्य, संगीत, नाट्य आदि ललित-कलाओं के विकास में इस नगरी ने बड़ा योगदान दिया। मालव जनपद का राजनीतिक केन्द्र बनने का इसे शताब्दियों तक गौरव प्राप्त रहा। पहले गणतंत्र और फिर दीर्घ काल तक नृप तंत्र का यहाँ उन्नयन हुआ।
सांस्कृतिक तथा राजनीतिक महत्व के अतिरिक्त उज्जयिनी का आर्थिक महत्व भी बहुत था। यहाँ से पश्चिमी समुद्र-तट बहुत दूर था। पर उत्तर तथा दक्षिण भारत को जाने वाले मुख्य राजमार्गों पर स्थित होने के कारण उज्जयिनी को बड़ा लाभ प्राप्त था। शिप्रा नदी भी उसके आर्थिक विकास में सहायक सिद्ध हुई।
उज्जयिनी से एक बड़ा व्यापारिक मार्ग भरुकच्छ (भड़ोंच) जाता था। भरुकच्छ तथा शूर्पारक (सोपारा) से मालवा तथा गुजरात क्षेत्र का माल विदेश को भेजा जाता था। इन दोनों बन्दरगाहों के माध्यम से मध्य भारत का संबंध विदेशों से था।
उज्जैन नगर और उसके आसपास के पुराने सिक्के हजारों की संख्या में मिले हैं। चांदी के प्राचीनतम आहत सिक्के यहाँ ई.पू. चौथी शती से मिलने लगते हैं। उज्जयिनी में टकसाल-घर थे और यहाँ धनी श्रेष्ठियों के अनेक संगठन थे। इन संगठनों द्वारा मुद्रा-निर्माण, बाजार की व्यवस्था, व्यवसायों तथा व्यापार की उन्नति के लिये विविध कार्य संपादित किये जाते थे।
उज्जैन से ई. पूर्व दूसरी और पहली शती के कुछ ऐसे सिक्के मिले हैं, जिन पर नगर का नाम ‘उजिनो’ या ‘उजिनिये’ प्राकृत भाषा में लिखा है। ये सिक्के उक्त संगठनों द्वारा जारी किये गये। इनके अतिरिक्त सैकड़ों जनपदीय सिक्के यहाँ मिले हैं, जिन पर उज्जयिनी के प्रमुख देवता शिव के विभिन्न रूप प्रदर्शित हैं।
कुछ पर उन्हें उमादेवी के साथ अंकित किया गया है। अनेक सिक्कों पर धन की देवी लक्ष्मी तथा कार्तिकेय के मनोहर चित्रण हैं। उज्जैन का एक प्रमुख चिन्ह वज्र था, जिसे ‘उज्जैन चिह्न’ कहा जाता है। यह इन सिक्कों पर प्रचुरता से मिलता है। उसके अतिरिक्त वेदिका वृक्ष, शिप्रा नदी, मंडूक, पर्वत आदि के रोचक चित्रण उज्जैन के सिक्कों पर मिलते हैं।
शुंग-सातवाहन काल से लेकर क्षहरात-क्षत्रप वंशी राजाओं तक के सिक्के उज्जैन में बड़ी संख्या में मिले हैं। गुप्तवंशीय शासकों, सासानियों, गुर्जर-प्रतिहारों, परमारों तथा मध्यकालीन मुस्लिम शासकों के सिक्के यहाँ प्रचुरता से मिलते हैं। इनसे पता चलता है कि व्यवसाय और व्यापार की दृष्टि से उज्जैन का बड़ा महत्व था।
यहाँ विदेशी व्यापारी बड़ी संख्या में रहते थे, विशेषकर रोमन व्यापारी। पश्चिमी देशों के साथ प्राचीन भारतीय व्यापार में उज्जैन की भूमिका विशेष उल्लेखनीय थी। सम्पन्न तथा विशाल व्यावसायिक नगरी होने के कारण उज्जयिनी के प्राचीन नाम हिरण्यवती, भोगवती तथा विशाला बहुत सार्थक थे।
वैदिक-पौराणिक तथा बौद्ध साहित्य के अलावा, प्राचीन जैन साहित्य में उज्जयिनी के बहुत उल्लेख मिलते हैं। उनसे इसके आर्थिक समृद्धि पर प्रकाश पड़ता है। इस नगरी को जैन कहकोसु (11,4-5) में उत्तरापथ के व्यापार का एक बड़ा केन्द्र कहा गया है। यहाँ सार्थवाह व्यापारिक सामग्री (भांड) लेकर आते-जाते थे (24,8)।
जैन कहकोसु में उज्जैन को पट्टन और महानगरी कहा है। पट्टन से तात्पर्य उस नगर से था, जहाँ बड़े व्यापारिक लेन-देन होते थे। उसमें हाट (बाजार), वैश्यावाट (वैश्याओं के मुहल्ले) थे (33,7)। बड़ा व्यापारिक केन्द्र होने के कारण उज्जैन में चोर भी रहते थे। दृढ़सूर्य नामक एक बड़ा चोर था। अन्त में वह पकड़ा गया। सूर्य मंत्र का जप कर उसने शूली पर अपने प्राण दिये। जहाँ उसे शूली दी गयी, उसे शूलेश्वर नाम से पूजा जाने लगा। यह स्थान उज्जैन में अब भी विद्यमान है।
तृतीय शताब्दी ई.पू. में उज्जयिनी बड़ी समृद्ध नगरी थी। मौर्य शासक अशोक के समय में उज्जयिनी मौर्य साम्राज्य के अवन्ति प्रांत की राजधानी थी। शुंग काल में उज्जयिनी का वैभव बहुत बढ़ा-चढ़ा था। शुंग-सातवाहन काल में साँची के जगत्-प्रसिद्ध स्तूपों का निर्माण और परिष्कार हुआ। उनमें लगे हुए अभिलेखों से ज्ञात होता है कि इस निर्माण में एरिकिपा मधुवन, नंदिनगर विदिशा तथा उज्जयिनी के श्रेष्ठि-कुटुम्बों ने विशेष योगदान दिया। इन दान-दाताओं की सूची को देखने से विदित होता है कि दान का प्रमुख भाग उज्जयिनी के निवासियों द्वारा प्रदत्त था। इनमें कुल-वधुओं तथा तपस्विनियों का विशेष हाथ था।
उज्जयिनी के राजनीतिक तथा आर्थिक महत्व के कारण गुप्त सम्राटों ने उस पर अपना अधिकार बनाये रखना आवश्यक समझा। चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य के द्वारा पश्चिमी भारत के अंतिम-क्षत्रप राजा रुद्रसिंह तृतीय को परास्त किया गया। चन्द्रगुप्त ने अवन्ति क्षेत्र तथा पश्चिमी-भारत से शक-क्षत्रपों का पूर्णत: उन्मूलन कर दिया। उसने इस क्षेत्र में अपने सिक्के चलाये। चन्द्रगुप्त के पश्चात् कुमारगुप्त द्वितीय और फिर उसके पुत्र स्कन्दगुप्त का भी शासन इस क्षेत्र पर कायम रहा।
पाँचवीं शताब्दी के अंतिम चतुर्थांश में मालवों ने फिर अवंति क्षेत्र पर अपना अधिकार स्थापित कर लिया। उस समय उत्तर-पश्चिम से हूणों के प्रबल आक्रमण मध्यभारत पर होते रहे। अवंति क्षेत्र के प्रतापी शासक यशोधर्मा ने हूणराज तोरमाण के पुत्र मिहिरकुल को करारी पराजय दी। यशोधर्मा की इस महाविजय का उल्लेख दशपुर (वर्तमान मन्दसौर) के निकट स्थापित उसके जयस्तम्भों में उपलब्ध है। यशोधर्मा तथा उसके वंशजों के कारण इस क्षेत्र का नाम भारत में बहुत प्रसिद्ध हुआ। औलिकर वंश के शासकों ने मालवा तथा उज्जयिनी की समृद्धि को बढ़ाने में बड़ा योगदान दिया।
औलिकर-शासकों के पश्चात् इस क्षेत्र पर क्रमश: कलचुरियों, गुर्जर-प्रतिहारों तथा परमारों का आधिपत्य हुआ। ईसवीं सातवीं शती के प्रारंभ से लेकर बारहवीं शती तक के काल में उज्जयिनी और उसके आसपास के प्रदेश की बड़ी श्रीवृद्धि हुई। यहाँ बहु-संख्यक मंदिरों तथा विविध धर्मों से संबंधित कलापूर्ण प्रतिमाओं का निर्माण हुआ। आर्थिक दृष्टि से उज्जयिनी की पूर्व मध्यकाल में बड़ी उन्नति हुई।