राकेश दुबे
बदलते वक्त के साथ भारतीय समाज में रिश्तों के स्वरूप में आ रहे बदलावों व महिला अधिकारों के विस्तार की दृष्टि से देश का सर्वोच्च न्यायलय व्यवस्था देता रहता है। रोष की बात यह है कि तमाम प्रगतिशील फैसले व्यवहार में उतने प्रभावकारी नहीं हो पाते। समाज और खास तौर पर राजनीतिक तबका अपना वर्चस्व बनाये रखने के लिए निर्णयों की मनमानी व्याख्या और क्रियान्वयन में अडंगे तक लगाने के काम करता रहता है। एक ताज़ा फैसले में सर्वोच्च न्यायलय ने महिलाओं के अपने शरीर पर अधिकार की अवधारणा को एक बार फिर स्थापित ही किया है। निश्चय ही इस फैसले के आलोक में भविष्य में महिला अधिकारों को मजबूत करने में मदद मिलेगी।
वैसे तो भारत की परम्परा महिला अधिकारों को लेकर दुनिया के तमाम देशों से आगे रही है, जिसे समय-समय पर आने वाले शीर्ष अदालत के फैसलों ने संबल दिया। अब महिलाओं के अपने शरीर पर अधिकार की अवधारणा को एक बार फिर स्थापित किया गया है। सर्वोच्च न्यायलय ने गर्भ का चिकित्सीय समापन अर्थात एमटीपी अधिनियम के तहत विवाहिताओं के साथ ही अविवाहित महिलाओं को गर्भावस्था के 24 माह तक सुरक्षित व कानूनी रूप से गर्भपात का अधिकार दिया है।
न्यायलय की दलील थी कि महिलाओं के साथ विवाहित व अविवाहित होने के आधार पर किसी तरह का भेदभाव संवैधानिक रूप से तार्किक नहीं कहा जा सकता। वहीं इसके अलावा न्यायलय ने यह भी कहा कि बलात्कार के अपराध की व्याख्या में वैवाहिक बलात्कार को भी शामिल किया जाये जिससे एमटीपी अधिनियम का मकसद पूरा हो सके।
बदलते वक्त के साथ भारतीय समाज में रिश्तों के स्वरूप में आ रहे बदलावों व महिला अधिकारों के विस्तार मकसद को अदालत ने परिभाषित किया है। निस्संदेह, जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़, जस्टिस जेबी पारदीवाला तथा जस्टिस एएस बोपन्ना की पीठ के इस ताजा फैसले ने महिला सशक्तिकरण की अवधारणा को ही संबल दिया है। साथ ही स्पष्ट किया कि महिला के शरीर पर पहला हक महिला का ही है, जिसको विवाहित व अविवाहित होने के चलते किसी अधिकार से वंचित नहीं किया जा सकता।
एमटीपी अधिनियम के तहत गर्भपात के जिन नियमों का उल्लेख है सर्वोच्च न्यायलय ने उन्हें अधिक स्पष्टता दी है। जिसका संदेश यह भी कि नये दौर के भारत में स्त्री को अपनी देह से जुड़े फैसले लेने का पूरा हक है। यह बात अलग है कि देश के एक बड़े तबके में अभी यह प्रगतिशील सोच विकसित नहीं हो पायी है।
पुरुष वर्चस्व वाले समाज में स्थितियां आज भी काफी जटिल हैं, जिसके मूल में अशिक्षा व गरीबी की बड़ी भूमिका रही है। यह वजह है कि सर्वोच्च न्यायालय के तमाम प्रगतिशील फैसले व्यवहार में उतने प्रभावकारी नहीं हो पाते। यदि देश में पुख्ता कानून सामाजिक बदलाव के वाहक नहीं बनते तो उन्हें क्रियान्वित करने वाली एजेंसियों की कारगुजारियों का मूल्यांकन करना समय की जरूरत है। साथ ही लोगों की सोच बदलने के लिये रचनात्मक पहल करने की जरूरत भी। जिससे महिलाओं से जुड़े कानूनों का वास्तविक लाभ उन्हें मिल सके। तभी महिलाओं की सुरक्षा को हकीकत बनाया जा सकेगा।
महिलाओं को जानना होगा कि उनकी सहमति के विशिष्ट मायने हैं ताकि वे किसी भी तरह की ज्यादती का प्रतिरोध कर सकें। उल्लेखनीय है कि ताज़ा फैसला एक पच्चीस वर्षीय अविवाहिता की याचिका पर आया, जिसे उच्च न्यायालय में याचिका दायर करने पर राहत नहीं मिल सकी थी। जिसके बाद वह सर्वोच्च न्यायालय पहुंची, इस मामले के आलोक में नयी व्याख्या सामने आई। जिसके बारे में तीन सदस्यीय पीठ की स्पष्ट राय है कि किसी महिला को यह अधिकार न देना उसकी अस्मिता से खिलवाड़ ही है।
जब अमेरिका समेत तमाम विकसित देशों में भी महिलाओं को गर्भपात से जुड़े पर्याप्त अधिकार नहीं मिल पाये हैं, भारतीय न्यायिक व्यवस्था की प्रगतिशीलता हमें शेष दुनिया से आगे ले जाती है। दुनिया में सौ देश भी ऐसे नहीं हैं जहां गर्भपात को लेकर स्पष्ट कानूनी दृष्टि हो। ऐसे में यह व्याख्या महिलाओं के अधिकारों को मजबूती देती है। जो एक तरफ स्त्री की व्यक्तिगत स्वायत्तता को स्थापित करती है वहीं उसको प्रजनन विकल्पों को चुनने की आजादी देती है।
(मध्यमत)
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