अहमदाबाद, मई 2014/ भारत के अगले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की यात्रा एक ऐसे व्यक्ति की असाधारण गाथा है, जिसकी विरोधियों ने जितनी लानत मलामत की उतना ही उसके समर्थकों ने उसे चाहा। जिसके समर्थकों का कहना है कि एक वही हैं जो देश को झंझावातों से निकाल ले जाएगा।

नरेंद्र मोदी को सत्ता के शीर्ष पर पहुंचाने वाले उनके अथक और लक्ष्य केंद्रित चुनाव अभियान के दौरान उन्होंने कहा था, ‘मुझे विश्वास है कि ईश्वर ने मुझे चुना है।’ अपने जबरदस्त चुनाव प्रचार अभियान के दौरान 63 वर्षीय मोदी ने खुद अपनी आंखों से कांग्रेस विरोध और उसके साथ ही एनडीए के जोरदार समर्थन की आंधी को महसूस किया।

तानाशाह होने के आरोप को खारिज करते हुए मोदी ने प्रचार अभियान के दौरान कहा था कि वह टीम वर्क में विश्वास रखते हैं और जो लोग उनके साथ काम कर चुके हैं वह जानते हैं कि वह एक मजबूत इच्छाशक्ति वाले निर्णय लेने वाले व्यक्ति हैं।

मोदी ने अपने विरोधियों पर आरोप लगाया था कि वह उनपर हमले करने के लिए बहुत ही अस्पष्ट, वैयक्तिक और फिजूल आरोप लगाते हैं और उन्हें तानाशाह, विभाजनकारी और बेहद कट्टर बताते हैं। उनका कहना था कि उनके खिलाफ भ्रष्टाचार, भाई-भतीजावाद या अक्षम होने जैसा कोई भी गंभीर आरोप नहीं है।

पार्टी के केंद्रीय नेतृत्व के ‘दिल्ली क्लब’ में एक बाहरी व्यक्ति की हैसियत रखने वाले मोदी ने पार्टी के भीतर और बाहर उन्हें लेकर हुए सारे विरोध को, बीजेपी के लिए केंद्र में सरकार बनाने के वास्ते जरूरी बहुमत से भी ज्यादा सीटें जुटाकर एक तरह से धता बता दी।

बीजेपी ने उनके नेतृत्व में जबरदस्त बहुमत प्राप्त करने का ऐसा कारनामा अंजाम दिया है, जैसा 1984 में राजीव गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस ने 400 से ज्यादा सीटों पर जीत दर्ज कर किया था और ऐसा इस बीच कोई भी अन्य दल नहीं कर पाया।

लालकृष्ण आडवाणी जैसे पार्टी के वरिष्ठ नेता और अन्य के विरोध का सामना करने के बावजूद 63 साल के संघ प्रचारक मोदी ने सोलहवीं लोकसभा के चुनाव के लिए देशभर में ऐसा अथक अभियान चलाया जिस पर सवार होकर भारतीय जनता पार्टी ने अपना अब तक का सबसे बढ़िया प्रदर्शन किया। देश की राजनीति में पिछले तीन दशक से मौजूद रही, पार्टी अभी तक कभी इतनी शानदार जीत दर्ज नहीं कर पाई थी।

मोदी को जब सितंबर में पार्टी का प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित किया गया, तब भी उनका काफी विरोध हुआ था, लेकिन यह विरोध उन्हें बीजेपी को 2004 के बाद दोबारा सत्तासीन करने के उनके लक्ष्य से डिगा नहीं पाया।

शुरुआत में इस बात को लेकर काफी संदेह जताया गया था कि मोदी वरिष्ठ भाजपा नेता अटल बिहारी वाजपेयी के प्रभामंडल की बराबरी कर पाएंगे या नहीं। वाजपेयी को उनके प्रतिद्वंद्वी भी काफी उदारवादी मानते थे और उनकी वजह से सहयोगी दल भी एनडीए के साथ जुटते थे। लेकिन, बीजेपी ने मोदी पर पूरा भरोसा किया और उस भरोसे के बदले में पार्टी को चुनाव से पूर्व ही पहले से ज्यादा दलों का सहयोग मिलना शुरू हो गया। खासतौर से उन दलों का भी, जिन्होंने 2002 के गुजरात दंगों के लिए मोदी को आरोपी ठहराकर एनडीए से नाता तोड़ लिया था।

दूसरे दल या उनके विरोधी बेशक मोदी को समाज को बांटने वाले, ध्रुवीकरण करने वाले और कट्टर हिंदुत्ववादी और गुजरात के मुसलमान विरोधी दंगे के लिए आरोपी जैसे संबोधनों से संबोधित करते हों, लेकिन मोदी के समर्थक उन्हें ‘एक ऐसा मजबूत नेता’ मानते हैं, जो कभी भी विपक्षियों द्वारा अपनाई जाने वाली तुष्टिकरण की राजनीति नहीं करेगा।

गुजरात के मुख्यमंत्री के पद पर अपने करीब 12 साल के कार्यकाल के दौरान मोदी ने अपनी छवि एक ऐसे नेता के रूप में गढ़ी जिसके पास पिछले कुछ वर्षों से ‘नीतिगत जड़ता’ से जूझ रहे देश का शासन चलाने के लिए एक वैकल्पिक दृष्टिकोण है। अपने प्रचार अभियान के दौरान विकास को अपना मुख्य मुद्दा बनाते हुए मोदी ने देश की युवा शक्ति, मध्यवर्ग और ग्रामीण लोगों को ‘बदलाव की बयार’ लाने का भरोसा दिलाने के लिए संपर्क साधने की पुरजोर कोशिश की और शायद उनकी यही कोशिश रंग लाई, हालांकि बीच-बीच में कभी कभार भगवा ताकतों के कुछ पसंदीदा विषयों को उठाकर मतदाताओं का ध्रुवीकरण करने की कोशिशें भी उनके अभियान में दिखीं।

एक कुशल योजनाकार मोदी ने, रेलवे स्टेशन पर चाय बेचने वाले से लेकर भारत का एक लोकप्रिय नेता बनने तक का सफर बड़ी सफलता से पूरा किया, हालांकि उनके बहुत से विरोधी उनके इस दावे से सहमत नहीं हैं कि वह कभी चाय भी बेचा करते थे।

संघ परिवार की ‘हिंदुत्व की प्रयोगशाला’ माने जाने वाले राज्य में मोदी ने मुख्यमंत्री के तौर पर अपनी छवि एक कट्टरपंथी की बनाई थी, जो लगातार तीन बार चुनाव दर चुनाव अपनी विजय का परचम लहराता रहा।

लोकसभा चुनाव में अल्पसख्यकों, खासतौर पर मुसलमानों का समर्थन हासिल करने के लिए उन्होंने जानते बूझते अपनी कट्टर हिंदुत्ववादी छवि को त्याग दिया और अपना पूरा ध्यान विकास के मुद्दे, खासतौर से गरीब मुसलमानों के विकास पर केंद्रित किया।

पार्टी का प्रधानमंत्री पद का प्रत्याशी घोषित किए जाने को लेकर हुए विरोध से बेपरवाह मोदी ने आम चुनाव के लिए चतुराई से एक ऐसा अथक और हाईटेक प्रचार अभियान चलाया जैसा पहले कभी नहीं देखा गया। इस अभियान के तहत उन्होंने देशभर में 450 से ज्यादा रैलियों को संबोधित किया।

गुजरात के मेहसाणा के ऐतिहासिक वाडनगर शहर में पिछड़े ‘मोध घांची’ (तेली) समुदाय में जन्में मोदी का उभार एक असाधारण घटना है, हालांकि उनके बहुत से विरोधी उनके पिछड़े समुदाय से संबद्ध होने की बात को भी नहीं मानते।

संघ के प्रचारक औेर 1985 में बीजेपी में काम करने के लिए भेजे गए मोदी गुजरात के मुख्यमंत्री पद पर अक्तूबर 2001 में काबिज होने से पहले तक पार्टी के ऐसे पदाधिकारी थे, जो पर्दे के पीछे काम करते थे ओैर पार्टी के लिए रणनीति तैयार करते थे। उनके मुख्यमंत्री का पद संभालने के सिर्फ पांच महीने बाद 2002 में साबरमती एक्सप्रेस के एक डिब्बे में आग लगने और उसमें 59 कारसेवकों की मौत होने के बाद भड़के गुजरात दंगों के मामलों में उनकी छवि एक विवादास्पद नेता की बनी।

उनपर दंगों के दौरान अकर्मण्य बने रहने का आरोप लगा, लेकिन उस कांड की जांच के लिए बनी सभी जांच समितियों ने जांच के बाद उन्हें सभी आरोपों से मुक्त कर दिया। इनमें सुप्रीम कोर्ट की सीधी निगरानी में गठित विशेष जांच दल की रिपोर्ट भी शामिल है।

गुजरात में हुई फर्जी मुठभेड़ों के मुद्दे पर भी मोदी पर लगातार आरोप लगते रहे हैं ओैर उनके करीबी सहयोगी अमित शाह ने तो हाल तक इन आरोपों का सामना किया, लेकिन मोदी प्रतिकूलता परिस्थितियों को अवसरों में बदलने की कला को बखूबी जानते हैं। उन्होंने गुजरात में कुछ ऐसी विकास योजनाओं को अंजाम दिया, जिनके चलते उन्हें 2007 और 2012 में अपार जनसमर्थन मिला। मोदी का दावा है कि उन्होंने अपनी पहचान को नए सिरे से तलाशने की प्रक्रिया में विकास के मुद्दे को समूची राजनीति के केंद्र में ला दिया है।

सुप्रीम कोर्ट द्वारा नियुक्त विशेष जांच दल की ओर से गुजरात में 2002 में हुए दंगों के मामले से उन्हें पाक साफ करार दिए जाने के बाद मोदी ने गुजरात में मुसलमानों तक पहुंच बनाने के लिए ‘सद्भावना उपवास’ रखा। ऐसे ही उपवास उन्होंने गुजरात के अन्य शहरों में भी किए।

मोदी गुजरात के विकास मॉडल का खूब ढिंढ़ोरा पीटते रहे हैं और साथ ही अपनी सरकार की उद्योगों के अनुकूल नीति का भी प्रचार कर रहे हैं, हालांकि इसके भी कुछ आलोचक हैं।

उद्योगपति और कारोबारी मोदी को प्रधानमंत्री बनते देखना चाहते हैं, क्योंकि उन्हें ऐसा महसूस होता है कि खासतौर से ऐसे समय जब यूपीए के शासन में देश में ‘नीतिगत जड़ता’ विद्यमान है, वह एक निर्णय लेने में सक्षम व्यक्ति साबित हुए हैं।

एक मौके पर एक मुस्लिम धर्मगुरु द्वारा पेश की गई इस्लामिक टोपी पहनने से इनकार करने के कदम के लिए आलोचना का शिकार हुए मोदी ने इस आरोप को खारिज करते हुए कहा कि वह अपने प्रतिद्वंदी द्वारा की जाने वाली ‘प्रतीकों की राजनीति’ का अनुसरण नहीं करेंगे।

गौतम बुद्ध और स्वामी विवेकानंद के जीवन और शिक्षाओं से सबक लेने वाले मोदी ने काफी युवावस्था में ही अपना वाडनगर का घर छोड़ दिया था और एक प्रचारक के तौर पर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ में शामिल हो गए थे। काफी कम उम्र में वह अपने गांव के रेलवे स्टेशन पर, जहां उनके पिताजी की चाय की दुकान थी, और बाद में अहमदाबाद शहर के बस अड्डे पर चाय बेचा करते थे।

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