तीन ताजा प्रसंग लीजिए-
पहला प्रसंग टीकमगढ़ का है जहां सूखे के कारण अपनी फसलें बरबाद हो जाने के बाद किसानों ने इलाके को सूखाग्रस्त घोषित करने की मांग को लेकर 3 अक्टूबर को जिला मुख्यालय पर प्रदर्शन किया।
मीडिया रिपोर्ट्स के अनुसार किसानों का यह ‘खेत बचाओ-किसान बचाओ’ आंदोलन कांग्रेस ने आयोजित किया था और इसका नेतृत्व नेता प्रतिपक्ष अजयसिंह कर रहे थे। प्रदर्शन के दौरान कांग्रेस नेता और किसान कलेक्टर को ज्ञापन देने की बात पर अड़े थे, लेकिन कलेक्टर अभिजीत अग्रवाल 45 मिनट तक अपने दफ्तर से नीचे नहीं उतरे।
बताया जाता है कि लंबे इंतजार के बाद प्रदर्शनकारियों का धैर्य जवाब दे गया और हालात लगातार बिगड़ते चले गए। देखते ही देखते पत्थरबाजी शुरू हो गई और पुलिस ने किसानों पर लाठीचार्ज शुरू कर दिया। आरोप है कि पुलिस कुछ आंदोलनकारियों को थाने ले गई और वहां उनके कपड़े उताकर और उनकी जमकर पिटाई की।
इसके बाद मामला राजनीतिक तौर पर बिगड़ा और गृहमंत्री से लेकर मुख्यमंत्री तक को हस्तक्षेप करना पड़ा। मुख्यमंत्री ने बयान दिया कि प्रदर्शन करने वाले किसान नहीं, कांग्रेसी थे जो हालात को बिगाड़ना चाहते थे। उधर गृह मंत्री ने डीजीपी को मामले की जांच के आदेश दिए। जांच के दौरान पुलिस ने अपने बचाव में यह पोची दलील दी कि उसने प्रदर्शनकारियों के कपड़े इसलिए उतरवा लिए थे कि कहीं कोई अपने ही कपड़ों से फांसी न लगा ले।
खैर उस मामले का ताजा अपडेट यह है कि शुक्रवार को टीकमगढ़ थाने का पूरा स्टाफ लाइन अटैच कर दिया गया है। मामले में थाने के टीआई को हटाकर जिले से बाहर पदस्थ करने के निर्देश दिए गए हैं।
दूसरा मामला गुना जिले का है। वहां मुंगावली के गणेश शंकर विद्यार्थी कॉलेज में प्राचार्य ने क्षेत्र के सांसद ज्योतिरादित्य सिंधिया को एक कार्यक्रम में बोलने के लिए बुला लिया। उस घटना के बाद प्राचार्य बी.एल. अहिरवार को सस्पेंड कर दिया गया है। प्राचार्य पर आरोप है कि उन्होंने अपने यहां एक दल विशेष का कार्यक्रम आयोजित करवाया और छात्रों को पैसों का लालच देकर उन पर एक दल को वोट देने का दबाव डाला।
यह बात इसलिए उठी कि सिंधिया ने कॉलेज के कार्यक्रम में मध्यप्रदेश के व्यापमं घोटाले का जिक्र कर दिया। इसके अलावा उन्होंने छात्रों की मांग पर कॉलेज में फर्नीचर आदि के लिए सांसद निधि से तीन लाख रुपए की सहायता राशि देने की घोषणा कर दी।
तय था कि इस मामले में तगड़ी राजनीति होगी और वैसा ही हुआ। दरअसल विधानसभा में मुंगावली का प्रतिनिधित्व करने वाले कांग्रेस के वरिष्ठ नेता एवं विधायक महेंद्रसिंह कालूखेड़ा का हाल ही में निधन हुआ है और जल्दी ही वहां उपचुनाव होने वाला है। दलित वर्ग से आने वाले प्राचार्य के निलंबन पर तीखी प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए सिंधिया ने कहा कि इस कार्रवाई ने साफ जता दिया है कि यह सरकार दलित विरोधी मानसिकता से काम कर रही है।
प्राचार्य का कहना है कि उन्होंने क्षेत्र के सांसद को कॉलेज में बुलाकर कोई अपराध नहीं किया है क्योंकि सांसद भी प्रोटोकॉल में आते हैं और सिंधिया को पार्टी नेता के रूप में नहीं बल्कि जनप्रतिनिधि के तौर पर बुलाया गया था। कांग्रेस ने शुक्रवार को प्रेस कॉन्फ्रेंस कर प्राचार्य का निलंबन तत्काल वापस लेने की मांग की है और चेतावनी दी है कि यदि ऐसा नहीं हुआ तो पूरे प्रदेश में आंदोलन किया जाएगा।
तीसरा किस्सा रीवा जिले का है। वहां के सांसद जनार्दन मिश्रा शुक्रवार को अपने समर्थकों व कार्यकर्ताओं के साथ कलेक्टर को ज्ञापन देने पहुंचे थे। राष्ट्रपति के नाम का यह ज्ञापन केरल में चल रही भारतीय जनता पार्टी की जन रक्षा यात्रा के समर्थन में दिया जाना था। मीडिया रिपोर्ट्स के मुताबिक मिश्रा उस समय भड़क गए जब कलेक्टर ने खुद न आते हुए एसडीएम को ज्ञापन लेने भेज दिया। एसडीएम से पहले एक नायब तहसीलदार को ज्ञापन लेने भेजा गया था।
बताया जाता है कि कलेक्टोरेट के गेट पर करीब आधे घंटे से ज्ञापन देने के लिए इंतजार कर रहे सांसद ने एसडीएम को फटकारते हुए कहा की हम इतनी देर से गेट पर खड़े है और तुम अब आ रहे हो। कलेक्टर ने पहले नायब तहसीलदार को भेजा और अब तुम आये हो, तुमने भी जहमत क्यों उठाई किसी चपरासी को भेज दिया होता। अगर हमारी सरकार नहीं होती तो हम आपको बताते की इस उपेक्षा का नतीजा क्या होता है।
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इन तीनों घटनाओं का ब्योरा मैंने मीडिया रिपोर्ट्स से लिया है। हो सकता है संबंधित पक्षों के तर्क अलग अलग हों और वे जायज भी हों। लेकिन मैं घटनाओं की वैसी तफसील में जाना नहीं चाहता, इनका उल्लेख करने का मेरा मकसद घटना में शामिल पक्षों को सही या गलत ठहराने का नहीं है। मैं दूसरा सवाल उठाना चाहता हूं।
सवाल यह कि क्या मध्यप्रदेश में जनप्रतिनिधियों की कोई औकात है या नहीं। टीकमगढ़ और रीवा की घटनाएं बताती हैं कि कलेक्टरों को जनप्रतिनिधियों की कोई परवाह ही नहीं है। उन्हें यदि सांसदों और विधायकों से भी मिलने में परहेज है तो आम आदमी से ये लोग क्या तो मिलते होंगे और उनकी कितनी सुनवाई करते होंगे। यह सारा मामला सरकार और राजनीतिक नेतृत्व की कमजोरी को दर्शाता है। आखिर नौकरशाही की इतनी हिम्मत कैसे होने लगी कि वे विधायकों और सांसदों तक की उपेक्षा करें। यह किसी दल विशेष का मामला नहीं है। आज यदि कांग्रेस के जनप्रतिनिधि के साथ हो रहा है तो कल यही व्यवहार भाजपा के प्रतिनिधि के साथ भी हो सकता है, जैसाकि रीवा में शुक्रवार को हुआ।
यदि व्यवस्था ने खुद ही नेताओं की इज्जत दो कौड़ी की करने की ठान ली हो तो हथेली लगाने आएगा भी कौन?