सोने से बनवाई महंगी, आंखें सीधी हैं या भेंगी

यह बहुत पुरानी कहावत है कि सोने से बनवाई महंगी। यानी जितने मूल्‍य का सोना नहीं है, उससे ज्‍यादा उसका आभूषण बनवाने में खर्च हो गया। मध्‍यप्रदेश में संकट में पड़े प्‍याज उत्‍पादक किसानों से प्‍याज की सरकारी खरीद का मामला भी कुछ वैसा ही साबित हो रहा है। प्‍याज खरीदी और बिक्री को लेकर नित नए खुलासे हो रहे हैं। ये खुलासे बता रहे हैं कि सरकार के इस फैसले में भी उतने ही छिलके हैं जितने प्‍याज में होते हैं। आप एक परत को हटाएं तो दूसरी परत सामने आ जाती है, दूसरी को हटाएं तो तीसरी और तीसरी हटे तो चौथी… और आखिर में जो बचता है वह भी छिलका ही होता है।

प्‍याज का मामला भगवान सत्‍यनारायण की कथा की तरह है। आप वह पूरी कथा सुन लें, उसमें कहीं पता नहीं चल पाता कि लकड़हारे ने, ब्राह्मण ने, वैश्‍य ने या राजा ने अलग अलग स्‍थानों पर जो कथा सुनी वह कथा क्‍या थी? कथा में जो कुछ भी कहा सुना जात वह बस कथा का महात्‍म्‍य है। उसमें कथा सुनने वालों को होने वाले नफे नुकसान का जिक्र है, लेकिन मूल कथा कहीं नहीं। प्‍याज में भी यही हुआ है, उसमें भी खाली कथा का महात्‍म्‍य है, परदे के पीछे जो कथा है, वह सामने नहीं आ रही, अपितु उससे होने वाले भांति-भांति के नफे नुकसान की खबरें जरूर सामने आ रही हैं।

ऐसा ही एक ताजा छिलका यह उतरा है कि वर्ष 2016 में हुई प्याज खरीदी में हम्माली और तुलाई का 25 गुना से अधिक भुगतान कर दिया गया। पिछले साल सरकार ने किसानों को राहत पहुंचाने के लिए 10.40 लाख क्विंटल प्याज़ 62.45 करोड़ रुपये में खरीदी थी। जबकि उसके भंडारण, परिवहन, हम्माली एवं तुलाई पर 44.24 करोड़ रुपये खर्च कर दिए। खास बात यह है कि इसमें अकेले हम्माली की रकम 22 करोड़ रुपए है।

कांग्रेस के विधायक बाला बच्‍चन ने विधानसभा में यह मामला उठाया था। बच्‍चन का कहना है कि “हैरानी इस बात की है कि यह गड़बड़झाला किसी की पकड़ में भी नहीं आया और अतिरिक्त भुगतान कर दिया गया। यह भी अच्‍छा ही हुआ क्‍योंकि यदि यह किसी के ध्यान में आता तो शायद इसकी जानकारी भी विधानसभा तक पहुंचने नहीं दी जाती।‘’

यह खेल कैसे हुआ इसे यूं समझिए। सरकार ने इस साल किसानों से प्‍याज आठ रुपए किलो खरीदी, जबकि पिछले साल यह खरीद छह रुपए किलो के हिसाब से की गई थी। उस समय 100 किलो यानी 600 रुपए की प्याज खरीदने के दौरान हम्माली और प्‍याज के परिवहन पर प्रति क्विंटल 220 रुपए खर्च कर दिए। जबकि मंडियों में एक क्विंटल की हम्माली और तुलाई की दर आठ रुपए से भी कम है, यानी भुगतान 25 गुना अधिक की दर से किया गया।

इतना ही नहीं, प्याज भंडारण में भी अफसरों ने सरकार को चूना लगाया। उन्‍होंने 140 रुपए प्रति क्विंटल की दर तक भुगतान किया जो भंडारण की प्रचलित दरों से 28 गुना अधिक है।

दिलचस्‍प बात यह है कि जब प्याज़ की हम्माली, तुलाई और भंडारण पर कई गुना राशि खर्च की जा रही थी,उस समय भी नागरिक आपूर्ति निगम में प्‍याज खरीदने का काम श्रीकांत सोनी ही देख रहे थे। ये वही महाप्रबंधक सोनी हैं जो पिछले दिनों एक स्टिंग ऑपरेशन में प्‍याज की दलाली करवाते हुए पकड़े गए थे।

प्याज परिवहन के मामले में चौंकाने वाली बात यह भी है कि सरकार ने इसके लिए जो दरें तय की थीं, आपूर्ति निगम में उन दरों को भी बदल दिया गया। दरअसल किसानों के विरोध को ठंडा करने के लिए सरकार ने निगम को निर्धारित दरों से 25 फीसदी अधिक रेट पर प्याज के परिवहन की छूट दी थी, ताकि बिना समय गंवाए प्‍याज का परिवहन हो सके। इसी बीच निगम के स्‍तर पर परिवहन दर 40 प्रतिशत तक बढ़ाने का आदेश जारी कर दिया गया। और इस तरह कथित तौर पर करीब 22 करोड़ रुपये का भुगतान निर्धारित दरों से अधिक हुआ।

ऐसा ही एक छिलका इस साल हुई प्‍याज खरीदी का है। सरकार ने प्‍याज खरीद तो लिया लेकिन वह न तो उसे बाजार में बेच पाई, न ही उसका भंडारण हो सका। कई जगह तो प्‍याज का पूरा परिवहन ही नहीं हो पाया। ऐसे में प्‍याज पड़े पड़े ही सड़ गई। अब यह सड़ी हुई प्‍याज कलेक्‍टरों के गले की हड्डी बन गई है। इसे ठिकाने लगाने में प्रशासन को हजार पापड़ बेलने पड़ रहे हैं। कहीं सड़ी प्‍याज से बिजली बनाने टाइप शेखचिल्‍ली योजनाओं की बात चल रही है, तो कहीं उससे खाद बनाने की। भोपाल में ऐसी करीब 22 हजार क्विंटल प्‍याज को शहर के कचरा मैदान भानपुर खंती में दफनाने के लिए भी प्रशासन को पसीने आ रहे हैं।

मैं इस बात का विरोधी नहीं हूं कि सरकार ने जरूरतमंद किसानों से प्‍याज क्‍यों खरीदी? जो लोग इस खरीद को गलत बता रहे हैं, उन्‍हें ध्‍यान रखना होगा कि देश के उद्योगपति जब लाखों करोड़ का कर्जा डकार जाते हैं, तब आवाज नहीं उठती लेकिन सरकार यदि प्‍याज के किसानों की उपज खरीदती है तो उस पर खर्च होने वाली राशि को लेकर हल्‍ला मचने लगता है।

लेकिन मूल मुद्दा खरीदी के फैसले के पीछे उचित प्रबंधन का है, किसानों को कुछ करोड़ के भुगतान का नहीं। सवाल यह है कि क्‍या यह खरीद वास्‍तविक किसानों से ही की गई और इस फैसले का फायदा किसानों को कितना और सरकारी अफसरों व बिचौलियों को कितना मिला? यदि अफसरों और बिचौलियों की ही चांदी होनी है तो सरकार को जनता की गाढ़ी कमाई यूं लुटाने का कोई हक नहीं है।

 

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