देश के जाने माने स्तंभकार पी. साईंनाथ ने करीब डेढ़ साल पहले जो आशंका जाहिर की थी वह सच होती दिखाई दे रही है। उन्होंने 5 अगस्त 2015 को अपने आलेख The Slaughter of suicide data (आत्महत्या के आंकड़ों की हत्या) में खुलासा किया था किस तरह राष्ट्रीय अपराध अभिलेख ब्यूरो (एनसीआरबी),किसानों की आत्महत्या के आंकड़ों से खिलवाड़ करते हुए, भारत की बदतर होती खेती किसानी के कारण जान देने वाले किसानों के आंकड़ों को कम करने की साजिश रच रहा है।
साईंनाथ ने बाकायदा एनसीआरबी के आंकड़ों का विश्लेषण करते हुए बताया था कि किस तरह सरकार ने ब्यूरो के आंकड़ों को प्रस्तुत करने का तरीका बदलते हुए किसानों की आत्महत्याओं को वहां से हटाकर अन्य आत्महत्याओं के शीर्षक के तहत डाल दिया था। उन्होंने इस बात पर भी आपत्ति जताई थी कि किसानों की आत्महत्या के मामलों की गंभीरता कम करने के लिए किसान और खेतिहर मजदूर जैसी दो श्रेणियां बना दी गई हैं।
हाल ही में एनसीआरबी ने वर्ष 2015 के अपराधों के जो आंकड़े जारी किए हैं वे भी देश की ग्रामीण अर्थव्यवस्था की असलियत पर काला परदा डालने वाले ही हैं। इनके मुताबिक देश भर में वैसे तो खेती किसानी से जुड़े 1262 लोगों ने वर्ष 2015 में आत्महत्या की, लेकिन ब्यूरो कहता है कि इनमें से भी वास्तविक किसान 8007 ही थे और बाकी 4595 खेतिहर मजदूर।
अब यदि मध्यप्रदेश की बात की जाए तो वर्ष 2015 में खेती किसानी से जुड़े कुल 1290 लोगों ने अपनी जान दी। इनमें से 581 वास्तविक किसान थे और 709 खेतिहर मजदूर। यानी राष्ट्रीय स्तर पर खेतिहर मजदूरों द्वारा आत्महत्या किए जाने की संख्या वास्तविक किसानों की तुलना में आधी से भी कम है,जबकि मध्यप्रदेश में वास्तविक किसान कम और खेतिहर मजदूर ज्यादा जान दे रहे हैं। (क्या सचमुच ऐसा है?)
किसानों की आत्महत्या के कारणों में सबसे ज्यादा विवाद इस बात पर होता रहा है कि उसने कर्ज या खेती बिगड़ने के कारण जान दी या किसी और कारण से। ब्यूरो के ताजा आंकड़ों का हवाला देते हुए खबरें आ रही हैं कि मध्यप्रदेश में किसानों की आत्महत्या की बड़ी वजह खेती या कर्ज नहीं, बल्कि घरेलू विवाद हैं।
कर्ज के चलते केवल छह किसानों के जान देने की बात कही गई है। इसके अलावा गरीबी के चलते तीन और दीवालिया हो जाने के कारण 13 किसानों ने आत्महत्या की।
आंकड़े कहते हैं कि राज्य में घरेलू विवाद के कारण 183 किसानों ने जान दी। 24 ने वैवाहिक संबंध बिगड़ने के कारण और चार ने विवाहेतर संबंधों के कारण खुदकुशी की। दहेज प्रताड़ना के चलते छह महिला किसानों ने आत्महत्या की। 47 मामलों में किसानों की आत्महत्या की असली वजह पता नहीं चल सकी। समाज में इज्जत खोने के डर से भी दो किसानों ने मौत को गले लगाया।
घरेलू विवाद के बाद सबसे ज्यादा 300 किसानों ने बीमारी से तंग आकर जान दी। इनमें से 108 ने लंबी बीमारी से त्रस्त होकर और 42 ने मानसिक बीमारी के कारण मौत को गले लगा लिया। नशे व शराब की लत के चलते 74 ने जान दी। रिपोर्ट बताती है कि मप्र में फसल न बिकने के कारण कोई आत्महत्या नहीं हुई। हां, फसल ना लग पाने के विभिन्न कारणों के चलते जरूर 29 किसानों ने जान दी।
दरअसल किसानों की आत्महत्या का मूल कारण कहीं न कहीं उनकी खेती किसानी से ही जुड़ा होता है, लेकिन चूंकि यह मुद्दा राजनीतिक रूप से बहुत संवेदनशील है इसलिए कोई सरकार नहीं चाहती कि उसके राज्य से ऐसी खबर पैदा हो जो कहती हो कि इतने किसानों ने कर्ज के कारण आत्महत्या कर ली। या कि फसल खराब होने के कारण इतने किसान अपनी जान दे बैठे।
मध्यप्रदेश का ही उदाहरण लें तो मीडिया रिपोर्ट्स के अनुसार ब्यूरो के आंकड़े राज्य में कर्ज के कारण वर्ष 2015 में सिर्फ 6 किसानों की आत्महत्या की बात कह रहे हैं। लेकिन पिछले माह यानी दिसंबर 2016 में हुए मध्यप्रदेश विधानसभा के संक्षिप्त शीतकालीन सत्र में खुद सरकार ने किसानों की आत्महत्या से जुड़े एक सवाल के जवाब में बताया था कि अकेले सागर संभाग में वर्ष 2015 में कर्ज के बोझ से दुखी होकर 4 किसानों ने आत्महत्या की। इनमें दमोह और छतरपुर का एक-एक किसान और टीकमगढ़ जिले के दो किसान शामिल हैं।
अब यह बात कतई गले उतरने वाली नहीं है कि जब सिर्फ एक संभाग के तीन जिलों में चार लोग (वह भी सरकारी आंकड़ों के अनुसार) कर्ज के कारण आत्महत्या कर रहे हैं, तो क्या 51 जिलों वाले इस प्रदेश के बाकी 48 जिलों में सिर्फ दो ही किसानों ने यह दुर्भाग्यपूर्ण कदम उठाया होगा? एनसीआरबी के आंकड़े तो यही कह रहे हैं।
आंकड़ों का यही लोचा सरकार की मंशा और खेती किसानी की वास्तविकता छुपाने की साजिश की ओर संकेत करता है। ऐसा लगता है कि या तो किसानों के जान देने के मामलों को ठीक से रिपोर्ट नहीं किया जा रहा या फिर उन्हें ‘बहुत ठीक ठाक करके’ ही रिपोर्ट किया जा रहा है, ताकि असलियत पर परदा डाला जा सके।