अपने ही घर में उपवास करके, अपने ही लोगों द्वारा उपवास तोड़ने का आग्रह करवा कर, परिवार के ही लोगों के हाथों जूस पीकर मुख्यमंत्री शिवराजसिंह चौहान ने 27 घंटे बाद अपना ‘गांधीवादी’ उपवास खत्म कर दिया। उपवास खात्मे के बाद उन्होंने ऐलान किया है कि अब वे किसानों के बीच जाएंगे, उनकी समस्याएं सुनेंगे और उनका समाधान करने की कोशिश करेंगे।
दुनिया में कहीं भी ऐसा नहीं हुआ कि कोई भी आंदोलन कभी खत्म न हुआ हो। आंदोलन शुरू होते हैं और अपनी अच्छाइयों और बुराइयों के निशान छोड़ते हुए, समय की धार के साथ बह जाते हैं। उनकी याद केवल उनके परिणामों के आधार पर ही इतिहास में दर्ज होती है। गांधीजी के सत्याग्रह, सविनय अवज्ञा या विदेशी वस्तुओं के बहिष्कार जैसे आंदोलनों को इसलिए याद किया जाता है कि उन्होंने पूरी दुनिया पर अपनी अमिट छाप छोड़ी। आजाद भारत में जयप्रकाश नारायण का आंदोलन इसलिए याद आता है कि उसने सत्ता के दंभ को उखाड़ फेंकने में निर्णायक भूमिका निभाई।
अब जरा आ जाइए मध्यप्रदेश के किसान आंदोलन पर। किसान संगठनों ने एक से 10 जून तक अपनी दो प्रमुख मांगों को लेकर आंदोलन किया था। पहली मांग थी कि किसानों को उनकी फसला का उचित मूल्य मिले और दूसरी किसानों का कर्ज माफ किया जाए। इसके साथ क्षेपक के तौर पर और भी छोटी मोटी मांगे रहीं लेकिन मुख्य जोर इन्हीं दो बातों पर था।
इस आंदोलन में दो पक्ष आमने सामने खड़े हुए थे। एक तरफ थे किसान, जिनके पाले में, बाद में सत्तारूढ़ दल ने, विपक्षी दल कांग्रेस को भी धकेल दिया और वे असामाजिक तत्व जिन्होंने इस मौके का फायदा अपना ‘हिंसक हुनर’ दिखाने में उठाया। दूसरी तरफ थी सरकार जो सबकुछ पता होने के बावजूद आंदोलन के होने का इंतजार करती रही और छह लोगों की पुलिस गोली से मौत के बाद भी जब हालात नहीं सुलझे तो पहले से तय आंदोलन के अंतिम दिन शांति बहाली के लिए उपवास पर बैठी। जी हां, कायदे से तो यह आंदोलन अपनी तय हुई मियाद में ही खत्म हुआ है। (यदि उसे खत्म हुआ माना जा रहा है तो…)
अब समय है यह पूछने का कि इन दस दिनों में जो कुछ घटा उससे किसको क्या हासिल हुआ? क्या किसानों की फसल के उचित मूल्य की मांग पूरी हो गई? क्या उनकी कर्ज माफी की मांग मान ली गई? उलटे सरकार के उपवास की शुरुआत ही प्रदेश के कृषि मंत्री गौरीशंकर बिसेन के इस दंभी बयान के साथ हुई कि कर्ज माफी का सवाल ही नहीं उठता। जब हम किसानों से कोई ब्याज ही नहीं ले रहे हैं तो कैसी कर्ज माफी? और आप तमाम वीडियो उठाकर देख लीजिएगा, उपवास के मंच से भी जितने भाषण हुए उसमें सरकार और उसकी किसान कल्याण मंशा का गुणगान ही ज्यादा था।
दरअसल इन दस दिनों में सरकार की ओर से दो ही बातें हुईं। पहली बात पूरे आंदोलन में हिंसा भड़काने के लिए कांग्रेस को दोषी ठहराना और दूसरी बात बार-बार यह स्थापित करने की कोशिश करना कि मध्यप्रदेश सरकार तो किसानों के लिए ही जी रही है! खेती का रकबा बढ़ाने से लेकर सिंचाई सुविधाओं का विस्तार किए जाने तक और फसल उत्पादन की वृद्धि दर लगातार दो अंकों में बनी रहने से लेकर पांच बार कृषि कर्मण अवार्ड प्राप्त करने तक के कई उदाहरण इस दौरान गिनाए गए।
पर यह सामान्य सा सवाल अब भी जवाब मांग रहा है कि जब मध्यप्रदेश सरकार किसानों के लिए ही जी रही है तो फिर यह किसान कमबख्त क्यों मरा जा रहा है? यदि सचमुच किसानों के लिए इतना सबकुछ किया गया है, (और सरकार यदि सीना ठोक कर कह रही है तो उसने किया ही होगा) तो फिर यह सब किसानों को दिख क्यों नहीं रहा, उन्हें अनुभव क्यों नहीं हो रहा? बंपर फसलें लाने के बावजूद वे आत्महत्या पर मजबूर क्यों हो रहे हैं? कृषि कर्मण सम्मान की स्वर्णिम आभा उनके घरों का अंधेरा दूर क्यों नहीं कर पा रही है?
वैसे अब इस तरह के सवाल पूछने वाले बागी माने जाएंगे। क्योंकि बकौल सरकार, अब पूरे प्रदेश में अमन चैन है, शांति का जो टापू किसानों के दर्द की सुनामी के कारण अतल गहराइयों में चला गया था वह दर्द की सारी लहरें और उफान उतर जाने के बाद फिर से यथास्थान स्थापित हो गया है। सरकार को मुश्किल में डालने वाली ‘विपक्ष’ की एक और चाल को नाकाम करते हुए, आंदोलन ‘ठंडा’ कर एक और ‘मोरपंख’ अपनी पगड़ी में खोंसने के लिए अर्जित कर लिया गया है।
आने वाले दिनों में किसान चर्चा में रहें या न रहें लेकिन यह ‘मोरपंख’ जरूर चर्चा में रहेगा। राजस्थान हाईकोर्ट के एक जज साहब ने पिछले दिनों अपने बहुचर्चित फैसले में मोरों को लेकर एक टिप्पणी की थी। उस समय ताे मैंने उस पर कुछ नहीं लिखा था। पर आज कहने को मन कर रहा है कि वो जज साहब शत प्रतिशत सही थे। मोरों की संतानें आंसुओं से ही जन्म लेती हैं…
क्या अब भी आपका ‘मन मयूर’ नाचने को नहीं मचल रहा?