भाषा के विषय में निर्मला जोशी जी के बेहद खूबसूरत शब्द
‘माता की ममता यही, निर्मल गंगा नीर
इसका अर्चन कर गए तुलसी, सूर, कबीर’
आज भारत की राजनीति ने उस भाषा को जिस स्तर तक गिरा दिया है वह वाकई निंदनीय है।
उत्तर प्रदेश भाजपा के उपाध्यक्ष दयाशंकर सिंह ने 20 जुलाई को मायावती को वेश्या से भी बदतर कहा। जवाब में बसपा कार्यकर्ताओं ने जगह जगह रैलियाँ निकाल कर हिंसात्मक प्रदर्शन किए बेहद आपत्तिजनक नारे लगाए दयाशंकर की बेटी व बहन का अभद्रता के साथ जिक्र किया। इतना ही नहीं सड़कों पर प्रदर्शन के दौरान लड़कियों एवं महिलाओं को भी नहीं बख्शा गया। उनके साथ भी अभद्रता की गई।
इस सबको मायावती सही मानती हैं यानी खून के बदले खून और गाली के बदले गाली उनकी नीति है। अभद्र भाषा का प्रयोग एक पुरुष ने एक महिला के खिलाफ किया। बात महिलाओं के सम्मान की थी, मौसम चुनाव का था। बात निकली तो दूर तलक गई और मुकदमा दलित को आधार बनाकर दर्ज हुआ।
वो मुद्दा ही क्या जो खत्म हो जाए! बात और दूर तलक निकली और दया शंकर की बेटी ने पूछा-
“नसीम अंकल बताएं मुझे कहाँ पेश होना है।”
हमारा देश विश्व का सबसे बड़ा लोकतांत्रिक देश है और अनेक देशों के लिए एक मिसाल भी है। किन्तु आज भारत में राजनीति जिस स्तर तक गिर चुकी है वह अत्यंत दुर्भाग्य पूर्ण है। भाषा ही वह माध्यम है जिससे हम अपने आप को एवं अपनी भावनाओं को व्यक्त करते हैं। आपके शब्दों का चयन आपके व्यक्तित्व को दर्शाता है।
आज भारतीय राजनीति में जिस प्रकार की भाषा शैली का प्रयोग हो रहा है वह बहुत ही चिंताजनक एवं निराशाजनक है। जिस तरह की भाषा हमारे नेता बोल रहे हैं, उससे उनकी दूषित शब्दावली ही नहीं अपितु दूषित मानसिकता का भी प्रदर्शन हो रहा है। उससे भी अधिक खेदपूर्ण यह है कि परिवार की महिलाओं एवं बेटियों को भी नहीं बख्शा जा रहा। हर बात पर वोट बैंक की राजनीति, चुनावों का अंकगणित, सीटों का नफा नुकसान! इससे ऊपर क्यों नहीं उठ पा रहे हम?
नेताओं द्वारा दूषित भाषा का प्रयोग पहली बार नहीं हो रहा। इससे पहले भी चुनावी मौसम में अनेक आपत्तिजनक शब्दों का प्रयोग हो चुका है। कोई भी पार्टी इससे अछूती नहीं है। चाहे वो कांग्रेस के सलमान खुर्शीद हों, जिन्होंने प्रधानमंत्री मोदी को ‘नपुंसक’ तक कह डाला हो या भाजपा के वीके सिंह हों जो पत्रकारों के लिए अभद्र भाषा का प्रयोग करते हों। चाहे साक्षी महाराज और योगी आदित्यनाथ हों या फिर ओवैसी हों जो एक दूसरे के लिए स्तरहीन भाषा का इस्तेमाल करते हों। चाहे समाज वादी पार्टी के मुलायम सिंह यादव हों अथवा आरजेडी के लालू प्रसाद यादव हों। चाहे मध्य प्रदेश के पूर्व सीएम दिग्विजय सिंह हों, जिन्होंने अपनी ही पार्टी की महिला सांसद को ‘टंच माल’ की उपाधि देते हुए खुद को पुराना जौहरी बताया हो।
बात महिला अथवा पुरुष तक सीमित नहीं है, जाति अथवा धर्म की नहीं है आप पत्रकार हैं या नेता हैं इसकी भी नहीं है। बात है मर्यादाओं की, नैतिकता की, सभ्यता की, संस्कारों की,शिक्षित होने के मायने की, समाज के प्रति अपने कर्तव्यों की। बात है भावी पीढ़ी के प्रति हमारे दायित्वों की ! हम उन्हें क्या सिखा रहे हैं? हम उन्हें कैसा समाज दे रहे हैं?
सोचिए क्या बीती होगी एक बारह वर्ष की लड़की पर जब उसने बसपा महासचिव नसीमुद्दीन से वह प्रश्न पूछा होगा! क्या बीती होगी उस माँ पर जिसकी नाबालिग बेटी ऐसा सवाल पूछ रही हो?
एक नेता के रूप में एक महिला के लिए प्रयोग किये गये शब्दों की कीमत एक पिता को चुकानी होगी, इस बात की कल्पना तो निःसंदेह दयाशंकर ने भी नहीं की होगी। दयाशंकर को तो शायद अब कहे हुए शब्दों की कीमत पता चल गई होगी। किन्तु मायावती?
कहते हैं बेटियाँ तो साँझी होती हैं। क्या एक बेटी के लिए उनके कार्यकर्ताओं द्वारा उपयोग किए गए इन शब्दों को वह सही मानती हैं? क्या इसी आचरण से वे स्वयं को देवी सिद्ध करेंगी?
एक महिला होने के नाते कम से कम उन्हें महिलाओं को इस मुद्दे से अलग ही रखना चाहिए था। महिलाओं का सम्मान जब एक महिला ही नहीं करेगी तो वह इस सम्मान की अपेक्षा पुरुषों से कैसे कर सकती है? शायद वह भी नहीं जान पाईं कि जिस बात को उन्होंने महिला सम्मान से न जोड़ कर दलित रंग में रंग कर वोट बटोरने चाहे, वह उन्हीं की अति उग्र प्रतिक्रिया के फलस्वरूप एक बेटी द्वारा पूछे गए प्रश्न से ‘बेटी के सम्मान‘ का मुद्दा बन जाएगा।
एक सवर्ण पुरुष से एक दलित महिला तो शायद जीत भी जाती लेकिन मैदान में सामना एक महिला और एक बेटी से होगा यह तो शायद मायावती ने भी नहीं सोचा होगा।
एक महिला से भी वो शायद जीत जातीं लेकिन भारतीय राजनीति के रंगमंच पर उनका सामना अब एक माँ से है! क्रिया की प्रतिक्रिया करते समय संयम रखने का पाठ संभवतः मायावती को भी मिल ही गया होगा।
आज बशीर बद्र की पंक्तियों से हमारे नेताओं को नसीहत लेनी चाहिए-
‘दुश्मनी जम कर करो लेकिन यह गुंजाइश रहे
जब कभी हम दोस्त हो जाएं तो शर्मिंदा न होना पड़े’
हम कैसी भाषा का प्रयोग करते हैं यह स्वयं हम पर निर्भर करता है। भाषा की मर्यादा की सीमा रेखा भी हमें स्वयं ही खींचनी है। यह नैतिकता एवं स्वाध्याय का प्रश्न है। जिस समाज में भाषा की मर्यादाओं का पालन कानून की धाराएँ अथवा राजनैतिक लाभ और हानि कराएँ यह उस समाज के लिए यह अत्यंत ही चिंतन का विषय होना चाहिए।