मध्यप्रदेश विधानसभा के जब चुनाव चल रहे थे तो प्रचार के अंतिम दिनों में प्रदेश कांग्रेस कार्यालय में अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी के मीडिया प्रभारी रणदीप सुरजेवाला सहित कुछ अन्य पदाधिकारी और प्रवक्ता प्रतिदिन एक मुद्दे पर प्रेस कान्फ्रेंस किया करते थे। इन मुद्दों के जरिए कांग्रेस ने तत्कालीन भाजपा सरकार को घेरने की कोशिश की थी।
एक दिन ऐसी ही एक प्रेस कॉन्फ्रेंस में मैं अनायास ही पहुंच गया। रणदीप सुरजेवाला ने उस दिन बुंदेलखंड पैकेज की बात की। उन्होंने बहुत तफसील से बताया कि किस तरह राहुल गांधी के प्रयासों से तत्कालीन मनमोहन सिंह सरकार ने बुंदेलखंड के समग्र विकास के लिए बुंदेलखंड पैकेज मंजूर किया था और कैसे मध्यप्रदेश की सरकार ने उस पैकेज के पैसों का दुरुपयोग कर करोड़ों रुपए का भ्रष्टाचार किया।
याद रखें, उस समय तक प्रदेश में नई सरकार नहीं बनी थी और कांग्रेस व भाजपा दोनों के लिए चुनाव में अवसर खुले हुए थे। कांग्रेस कोशिश कर रही थी कि शिवराज सरकार को चौतरफा मुद्दों पर घेरे और कठघरे में खड़ा करे। कांग्रेस पार्टी और उसके प्रवक्ताओं का मानना रहा होगा कि इस कोशिश के बहाने ही सही वे मीडिया की चर्चा में बने रहेंगे।
उस दिन जितने समय वो प्रेस कॉन्फ्रेंस चली मैं वहां बैठा सोच रहा था कि सुरजेवाला जो कह रहे हैं उसका क्या कोई मतलब भी मध्यप्रदेश में बचा है? क्या कांग्रेस इतनी भोली है कि वह भ्रष्टाचार के आरोप लगाकर मध्यप्रदेश की शिवराज सरकार को हरा सकती है? मैंने अपने ठीक बगल में बैठे एक पत्रकार से कहा जब व्यापमं जैसा मुद्दा शिवराज सरकार का कुछ नहीं बिगाड़ पाया तो यह बुंदेलखंड पैकेज क्या कर लेगा?
संयोग से उस प्रेस कॉन्फ्रेंस के दो दिन बाद मेरी सुरजेवाला से मुलाकात हो गई और मैंने ठीक यही सवाल उनसे किया। उन्होंने कहा हम तो मुद्दे उठा रहे हैं, तय जनता को करना है। और उस समय मैंने सुरजेवाला से जो कहा, आज वही बात मैं मध्यप्रदेश में कमलनाथ के नेतृत्व में बनी नई सरकार के सामने एक सवाल के रूप में रखना चाहता हूं।
मैंने सुरजेवाला से कहा कि आपने शिवराज सरकार के खिलाफ कई मामले उठाए, इनमें व्यापमं जैसा मुद्दा भी शामिल था जिसकी देश नहीं विदेश में भी चर्चा हुई। इस मुद्दे को लेकर कांग्रेस ने सड़कों से लेकर अदालत तक लड़ाई लड़ी लेकिन नतीजा क्या निकला? 2013 के चुनाव में भी तो कांग्रेस ने व्यापमं को प्रमुख मुद्दा बनाया था पर भाजपा 165 सीटों के प्रचंड बहुमत से सत्ता में आ गई।
दरअसल राजनीतिक आरोप प्रत्यारोप को थोड़ी देर के लिए अलग रख दें तो दो बातों को ध्यान में रखना जरूरी है। पहला इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि पिछले पंद्रह सालों में मध्यप्रदेश ने तरक्की तो की है। कोई यह नहीं कह सकता कि इन सालों में मध्यप्रदेश और ज्यादा पिछड़ा, और ज्यादा बीमारू बना है।
लेकिन दूसरी बात समान रूप से उतनी ही गंभीर है कि इन सालों में भ्रष्टाचार ने प्रदेश में एक संस्थानिक रूप ले लिया। निजी बातचीत में खुद भाजपा के लोग ही यह कहते मिल जाते थे कि बगैर लिए दिए कुछ होता ही नहीं। पिछले पंद्रह सालों के दौरान छोटे से छोटे सरकारी कर्मचारी से लेकर आईएएस और क्लास वन अफसर तक के यहां छापों में बरामद करोड़ों अरबों की संपत्तियां इस बात का प्रमाण हैं।
शिवराज सरकार ऐसी तमाम कार्रवाइयों और बरामदगियों पर अपने बचाव में तर्क (?) देती रही कि इससे पता चलता है कि हम भ्रष्टाचार के खिलाफ कार्रवाई कर रहे हैं। लेकिन इस सवाल को हमेशा पीछे धकेला जाता रहा कि इतने बड़े पैमाने पर भ्रष्टाचार आखिर संभव कैसे हो पा रहा है? कैसे सरकारी कर्मचारी जनता को लूट कर करोड़ों के मालिक बन रहे हैं? कौन है जो उन्हें संरक्षण दे रहा है?
पिछली सरकार को यदि प्रदेश के विकास का श्रेय जाता है तो चाहे अनचाहे एक और श्रेय उसके खाते में दर्ज होगा कि उसने बड़ी चतुराई या सफाई से प्रदेश में भ्रष्टाचार को मुद्दा ही नहीं बनने दिया। आप मानें या न मानें पूरे पंद्रह सालों में और इस दौरान हुए चुनावों (2018 के चुनाव सहित) किसी चुनाव में ऐसा नहीं लगा कि लोगों ने भ्रष्टाचार को केंद्रीकृत मुद्दा मानकर वोट डाले हों।
चुनाव से पहले तत्कालीन सरकार के कामकाज और नई सरकार से अपेक्षाओं को लेकर एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफार्म्स द्वारा प्रदेश में कराए गए एक सर्वे में ग्रामीण क्षेत्र के सिर्फ 6 फीसदी लोगों ने भ्रष्टाचार मिटाने को मुद्दा माना था जबकि शहरी क्षेत्र के महज 18 फीसदी लोगों ने। यानी दोनों तरह की आबादी को मिला लिया जाए तो प्रदेश के औसत 12 फीसदी लोग ही भ्रष्टाचार के खात्मे को एक मुद्दे के तौर पर देखते हैं।
यह स्थिति बहुत चिंता में डालने वाली है। प्रदेश के 88 फीसदी लोग यदि भ्रष्टाचार को चाहे अनचाहे स्वीकार कर रहे हैं या मानकर चल रहे हैं कि सरकारी सिस्टम में इतना तो चलता ही है, तो यह खतरनाक संकेत है। आप याद करें सागर के महापौर वाला मामला जिसमें भाजपा सरकार ने अपनी ही पार्टी के महापौर के सारे वित्तीय अधिकार सीज कर दिए थे। इसलिए क्योंकि एक ठेकेदार ने शिकायत की थी कि वह प्रचलित मान्यता के अनुसार दस फीसदी कमीशन देने को तैयार था लेकिन उससे 25 फीसदी मांगा जा रहा था।
इसका मतलब यह हुआ कि सरकारी सिस्टम में काम कराने का मान्य रेट कम से कम दस फीसदी तो था ही। अब यदि प्रदेश के एक लाख 86 हजार 665 करोड़ से अधिक के बजट में से न्यूनतम 40 फीसदी राशि भी आयोजना व्यय की मानी जाए तो यह 74 हजार 674 करोड़ रुपए होती है। और इसका दस प्रतिशत होता है करीब 7500 करोड़। यानी प्रदेश में हर साल 7500 करोड़ का भ्रष्टाचार या कालाधन तो पैदा हो ही रहा है।
क्या नई सरकार इस भ्रष्टाचार और कालेधन को रोकने के लिए कुछ करेगी?