मेरी नई कविता विख्यात कवि दुष्यंत कुमार से क्षमायाचना सहित-----------तुम किसी पुल सी बनती रहती होमैं ढह जाने के डर से थरथराता हूंतुम किसी फाइल सी अटकी रहती होमैं किसी नोट सा तुम्हें धकाता हूंतुम किसी गुमटी सी राह में अड़ जाती होमैं किसी सड़क सा सिकुड़ता जाता हूंतुम कभी नीट कभी नेट बन के आती होमैं रोज तैयारी का अलार्म लगाता हूंहर बारिश में तुम नाले सी अटक जाती होमैं हर साल घर में चप्पू तलाशता हूंतुम किसी खांसी की तरह बनी रहती होमैं हर बार नया कफ सीरप खरीद लाता हूंतुम किसी वोट सी बिक जाती होमैं संविधान सा कसमसाता हूंलोग तुम्हें व्यवस्था कहते हैंमैं तुम्हें व्यथा कह कर बुलाता हूं- गिरीश उपाध्याय