क्‍या बस्‍तर में वैसी ‘सर्जिकल स्‍ट्राइक’ संभव हो पाएगी?

छत्‍तीसगढ़ के बस्‍तर इलाके में 24 अप्रैल को नक्‍सलियों के हमले में सीआरपीएफ के 25 जवानों के मारे जाने की घटना ने जो संकेत दिए हैं वे भयावह हैं। घटना के बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने ट्वीट किया- ‘’सीआरपीएफ जवानों की वीरता पर हमें गर्व है। उनकी शहादत बेकार नहीं जाएगी।‘’ जबकि गृह मंत्री राजनाथसिंह का ट्वीट था- ‘’यह बहुत दुखद घटना है और इसे हमने एक चुनौती के रूप में लिया है।‘’

अब जरा याद करें 18 सितंबर 2016 को जम्‍मू कश्‍मीर के उरी में सेना के कैंप पर हुए आतंकी हमले में 20 भारतीय सैनिकों के मारे जाने की घटना के बाद किया गया प्रधानमंत्री का ट्वीट जिसमें उन्‍होंने कहा था- ‘’हम उरी में किए गए कायराना हमले की कड़ी निंदा करते हैं। मैं देश को भरोसा दिलाता हूं कि इस बर्बर और घृणित घटना को अंजाम देने वाले बख्‍शे नहीं जाएंगे।‘’

उरी की इस घटना के दस दिन बाद 29 सितंबर 2016 को भारतीय सेना ने सर्जिकल स्‍ट्राइक को अंजाम देते हुए सीमा पार स्थित पाकिस्‍तानी आतंकियों के कई अड्डे तबाह कर दिए थे। भारतीय सैनिकों की उस कार्रवाई की पूरी दुनिया में चर्चा हुई थी और विपक्षी दलों के तमाम आरोप प्रत्‍यारोप से अलग, देश की जनता ने उस कार्रवाई का खुलकर समर्थन किया था।

तो बस्‍तर अंचल के सुकमा जिले में 24 अप्रैल को हुई नक्‍सली हमले की घटना के बाद प्रधानमंत्री ने जब यह कहा कि जवानों की शहादत बेकार नहीं जाएगी और गृह मंत्री का बयान आया कि हमने इस घटना को एक चुनौती के रूप में लिया है तो सहज ही लगा कि हो सकता है, सरकार के मन में नक्‍सली आतंकियों के खिलाफ भी वैसी ही सर्जिकल स्‍ट्राइक जैसी कोई बात हो, जो उरी की घटना के बाद अंजाम दी गई थी।

जैसा कि प्रधानमंत्री का स्‍वभाव है, वे हमेशा अपने एक्‍शन से देश को चौंकाते रहे हैं, इसलिए संभव है बस्‍तर की ताजा घटना के बाद नक्‍सल विरोधी ‘नीति’ और ‘रणनीति’ में हमें व्‍यापक बदलाव देखने को मिले। इसमें सर्जिकल स्‍ट्राइक जैसी मैदानी कार्रवाई से लेकर बड़े पैमाने पर पॉलिटिकल ऑपरेशन जैसे कदम भी शामिल हो सकते हैं। सरकार के लिए एडवांटेज यह है कि ऐसी कोई भी कार्रवाई होने पर उसे बहुत ज्‍यादा विरोध का सामना नहीं करना पड़ेगा, बल्कि समर्थन ही मिलेगा, क्‍योंकि जनमत अब ऐसी सख्‍त कार्रवाई चाहता है।

लेकिन सवाल यह है कि क्‍या बस्‍तर जैसे इलाके में वैसी कोई सर्जिकल स्‍ट्राइक संभव है? इस संबंध में मैंने छत्‍तीसगढ़ और खासतौर से बस्‍तर में अपने कुछ सूत्रों से बात की तो उनकी राय अलग थी। उनका कहना है कि भारत-पाक सीमा के पार जाकर आतंकियों के अड्डे नष्‍ट करना आसान है, लेकिन देश के भीतर घने जंगलों में ऑपरेट करने वाले नक्‍सली दलों पर ऐसा हमला बहुत मुश्किल है।

सीमा पार के आतंकवादियों के मामले में तो उनकी पहचान तय होती है, लेकिन बस्‍तर में मुश्किल यह है कि यहां कौन सामान्‍य ग्रामीण है और कौन नक्‍सली इसकी पहचान लगभग नामुमकिन है। 24 अप्रैल की सुकमा की घटना का शिकार होने वाले सीआरपीएफ के जवानों का भी बयान है कि नक्‍सलियों ने ग्रामीणों को आड़ या ढाल बनाकर उन पर हमला किया।

सुरक्षा बलों के साथ एक मुश्किल यह भी है कि उन्‍हें अपनी कार्रवाई कानून के दायरे में रहकर करनी होती है, जबकि नक्‍सली हों या आतंकी, उनके लिए कोई कानून कायदा नहीं होता। किसी भी सूरत में और किसी भी तरीके से लोगों को मौत के घाट उतार देना ही उनका कानून है और कायदा भी। इसलिए कई बार सुरक्षा बलों के हाथ बंध जाते हैं, जैसा हम कश्‍मीर में देख रहे हैं।

विचार इस बात पर भी होना चाहिए कि नक्‍सली हमलों में आखिर हर बार सीआरपीएफ के जवान ही इतनी बड़ी संख्‍या में क्‍यों मारे जाते हैं? सूत्र बताते हैं कि नक्‍सली जंगल के गुरिल्‍ला वॉर में पारंगत हैं। जबकि सीआरपीएफ के जवान मूल रूप से शहरी क्षेत्र की कानून व्‍यवस्‍था की स्थिति से निपटने की ट्रेनिंग पाए होते हैं। नक्‍सलियों से यदि निपटना है तो उसके लिए जंगलों की वैसी ही ‘गुरिल्‍ला वॉर’ की विशेष ट्रेनिंग देकर, विशेष फोर्स तैयार करना होगा।

एक और मामला नक्‍सली इलाकों में मूवमेंट को लेकर बनाए गए कायदों का है। जैसे समूह में न चला जाए, जिस रास्‍ते से जाएं उसी से वापस न लौटें, वाहनों के काफिले में न चलें आदि। लेकिन इन बातों का पालन न होने की आत्‍मघाती चूक कई बार होती रही है। यह बात शायद हर बार भुला दी जाती है कि नक्‍सलियों का मुखबिर तंत्र या इंटेलीजेंस, सुरक्षा बलों की तुलना में अधिक तगड़ा और मजबूत है।

ताजा घटना में एक मुद्दा सीआरपीएफ और पुलिस में तालमेल की कमी का भी सामने आया है। बस्‍तर के अपने संपर्कों से मुझे पता चला कि दोरनापाल से जगरगुंडा तक बन रही करीब 58 किमी की सड़क के आसपास एक सप्‍ताह से भी अधिक समय से नक्‍सलियों का मूवमेंट हो रहा है, इसकी सूचना सुकमा पुलिस के पास थी। यदि यह सच है तो आखिर वे कौनसी वजहें थी जिनके चलते पुलिस और सीआरपीएफ में तालमेल नहीं हो पाया और जिसकी कीमत देश को 25 जवानों की शहादत से चुकानी पड़ी।

 

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