राव श्रीधर
सवाल ये है कि इस देश में सच को कहने का मैकेनिज्म क्या है? फिर सच को सुनने का तरीका क्या है? फिर सच से सच को समाधान में कैसे बदला जाये? जिसमें न्याय की भावना निहित हो, न्याय ऐसा हो जिसमें हर पक्ष को तृप्ति मिले। मेरी समझ से तो उसका एक ही सिद्धांत है, एक ही समाधान है और वो है हर हाल में सच को परिभाषित और प्रकाशित किया जाय।
हाल ही की सिर्फ तीन घटनाओं से हम देश में सत्य और न्याय की गति, स्थिति और परिणाम को जानने की कोशिश करते हैं। एक मामला है बीएसफ के तेजबहादुर का, फेसबुक पर खराब खाने की शिकायत लिखी तो नौकरी चली गई। एक और मामला है छत्तीसगढ़ की डिप्टी जेलर वर्षा डोंगरे का, आदिवासियों पर हो रहे पुलिसिया जुल्म की दास्तान फेसबुक पर लिखी और वो नौकरी से निलंबित हो गईं।
सबसे ताजा मामला है गोरखपुर की अतिरिक्त पुलिस अधीक्षक चारू निगम का। स्थानीय विधायक से सरेआम बेज्जती झेलने के बाद चारू ने फेसबुक पर लिखा है कि “मेरे आँसुओं को मेरी कमज़ोरी न समझना, कठोरता से नहीं कोमलता से अश्क झलक गए। महिला अधिकारी हूँ, ये तुम्हारा गुरूर न देख पाएगा, सच्चाई में है ज़ोर इतना अपना रंग दिखलाएगा।” इस मामले में स्थिति और गति के बाद परिणाम की प्रतीक्षा है।
पुलिस अधिकारी चारू निगम और स्थानीय विधायक के बीच हुई बातचीत और गरमा-गरमी के वीडियो से एक बात तो स्पष्ट हो गईं कि विधायक जी नेतागीरी कर रहे थे और चारू अपना काम। कानून व्यवस्था से बेपरवाह हो विधायक जी सिर्फ और सिर्फ अपनी तेरतर्रार छवि का पोषण कर रहे थे। सीधे-सीधे समझ में आ रहा था कि कैसे विधायिका, कार्यपालिका के काम में दखलंदाजी करती है और इस हद तक करती है कि कार्यपालिका के आंसू निकल पड़ते हैं।
जब समाज, राजनीति और मीडिया, कार्यपालिका के आंसुओं का हिसाब लगाने बैठते हैं, आंसुओं के पीछे के सच को खोजते हैं तो प्रथमदृष्टया यही समझ में आता है कि लोकतंत्र में जब तक नेता तमाशा नहीं खड़ा करेगा तब तक उसकी तथाकथित हैसियत ही स्थापित नहीं होगी।
भारत जैसे लोकतांत्रिक देश में नेता इस बात का फायदा उठाते हैं कि भीड़ अगर आपके साथ है तो आप सीधे-सीधे चौराहे पर खड़े होकर संविधान को चुनौती दीजिए, कानून झाड़िये क्योंकि विधानसभा और संसद के सत्र तो आप लोग स्थगन की भेंट चढ़ा आते हैं। फिर बीच सड़क पर खड़े होकर कार्यपालिका को झुकने के लिए मजबूर कीजिए। फिर चाहे हालात बिगड़ें या बनें बस कैसे भी करके सुबह के अखबार में सुर्खियां बन जाइये।
दिलचस्प ये है कि जिस कार्यपालिका को आप जलील कर रहे हैं, उसके आंसू निकाल रहे हैं, दरअसल वो व्यवस्था आप से ही निकली है, लेकिन समस्या ये है कि आप विधायक बन कर खुश नहीं है, आप कार्यपालिका भी बनना चाहते हैं। तभी तो विधायक जी गोरखपुर में बीच-बाजार में चौधरी बन बैठे।
लेकिन विधायक जी, उस महिला पुलिस अधिकारी ने अपने आंसुओं का हिसाब मांगा है और सीधे-सीधे आपके गुरूर को ललकारा है वो भी सच की दुहाई देकर। अब आपके समर्थक आपको उकसायेंगे कि साहब! चारू निगम को संस्पेंड नहीं करवाया तो आपकी साख पर बट्टा लगना तय है। एक व्यक्ति की व्यक्तिगत साख के चक्कर में विधायिका और कार्यपालिका दोनों की साख दिन-ब-दिन गिरती जा रही है। देश में ऐसी परंपरा सी स्थापित हो गई हैं।
अगर हमारे पास सच को जानने, समझने का व्यावहारिक मैकेनिज्म होता तो छत्तीसगढ़ की डिप्टी जेलर वर्षा डोंगरे को संस्पेंड करने की जरूरत नहीं पड़ती। वर्षा डोंगरे ने तो वही लिखा जो उन्होंने महसूस किया। उन्होंने आदिवासियों के साथ पुलिस की अमानवीयत को खोलकर रख दिया। अगर वो सच कह रही हैं तो उसके मूल में जाने की जरूरत थी, लेकिन सिस्टम का सारा फोकस समाधान से ज्यादा पुलिस की साख बचाने का था। क्या वर्षा के सस्पेंशन से समस्या खत्म हो गईं?
ठीक इसी तरह सीमा सुरक्षा बल के जवान तेजबहादुर की शिकायत में हमने शायद समाधान नहीं खोजा, बल्कि सारा ध्यान सीमा सुरक्षा बल की साख को बचाने में लगा दिया। समाधान में गये होते तो तेजबहादुर की नौकरी शायद नहीं जाती।
सवाल ये है कि हम कब तक फेसबुक पर बोलते चारू, वर्षा और तेजबहादुर जैसे लोगों को संस्पेंड और बर्खास्तगी के दायरे में लाते रहेंगे? अगर किसी दिन ये आंदोलन बन गया तो..। अब भी वक्त है संभल जाइये। फेसबुक पर उठती इन आवाजों को नज़रअंदाज मत करिए, इनकी बातों को समझिए औऱ इनका समाधान प्रस्तुत करिए वरना किसी दिन आप इस भीड़तंत्र में अपनी ही पैदा की हुई अराजकता का शिकार बन सकते हैं।