आप खुद को ‘जिल्‍लेइलाही’ क्‍यों बनाना चाहते हैं?

किसी भी पत्रकार के लिए वह स्थिति बहुत सुखद होती है जब उसके लिखे पर पाठकों की प्रतिक्रिया हो। मानव स्‍वभाव अपनी प्रशंसा ज्‍यादा सुनना चाहता है,लेकिन पत्रकारिता में यह कतई जरूरी नहीं कि आपके लिखे को लोग सराहना या प्रशंसा की दृष्टि से ही देखें। कई बार तो सिर्फ और सिर्फ आलोचना ही खाते में आती है और वह भी इतनी तीखी और मारक कि तेजाब की तेजी भी फीकी पड़ जाए।

पिछले कुछ दिनों से हम प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा की गई नोटबंदी की घोषणा के अलग अलग पहलुओं के बारे में लिख रहे हैं। हाल ही में इसी सिलसिले में फेसबुक के मेरे एक वरिष्‍ठ मित्र ने फोन करके मुझसे काफी लंबी बहस कर डाली। उनका सीधा आरोप था कि मैं देश से कालेधन और भ्रष्‍टाचार मिटाने की मोदीजी की मुहिम को पंचर करने में लगा हूं। उन्‍होंने सीधा सवाल दागा आप काले चोरों की जमात के साथ हैं या उन पर चोट करने वाले प्रधानमंत्री के साथ। इसी तरह एक पाठक ने इस कॉलम के एक शीर्षक में नोटबंदी को ‘नोट त्रासदी’ की संज्ञा दिए जाने को असंवेदनशीलता कहा। प्रतिक्रिया व्‍यक्‍त करने वाले ज्‍यादातर लोगों का अभिमत यह है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 500 और 1000 के नोट बंद करके कालेधन पर अभूतपूर्व प्रहार किया है और इसकी सिर्फ और सिर्फ सराहना ही की जानी चाहिए।

दरअसल आप इसे नोटबंदी, नोट त्रासदी या नोट क्रांति कोई भी नाम दे दीजिए,सरकार के इस फैसले पर देश दो खेमों में बंटा नजर आ रहा है। पहला खेमा इसका धुर समर्थक है तो दूसरा धुर विरोधी। दोनों पक्ष एक दूसरे की बात सुनने या समझने को तैयार नहीं हैं। इस बात में कोई दो राय नहीं है कि प्रधानमंत्री की घोषणा कालेधन पर एक बड़ा प्रहार है। लेकिन इसके साथ ही यह भी समझना होगा कि कालाधन रोकने का न तो यह एकमात्र उपाय है और न ही अंतिम उपाय। नोटबंदी एक जरिया हो सकती है, एकमेव विकल्‍प नहीं। इस बात को अंधभक्ति और अंधविरोध दोनों से अलग हटकर देखना होगा।

मोदी सरकार आने के बाद से ही यह वातावरण बनाया जाता रहा है कि सरकार जो कर रही है, वही अंतिम सत्‍य या मोक्ष का मार्ग है। जिसने भी उसमें कोई अन्‍यथा राय देनी चाही या प्रधानमंत्री अथवा सरकार के कथन से असहमति व्‍यक्‍त की वह देशद्रोही बना दिया गया। नोट के मामले में लोगों की तकलीफें सामने लाए जाने के उपक्रम को भी इसी दृष्टि से देखा जा रहा है।

मैं बिलकुल मानता हूं कि जो लोग आज नोटबंदी के विभिन्‍न पहलुओं से जुड़े सवाल उठा रहे हैं, उनमें से कई लोगों के राजनीतिक स्‍वार्थ हो सकते हैं। बिलकुल संभव है कि उनका विरोध यथार्थ के धरातल पर न हो कर राजनीतिक हितों पर टिका हो, लेकिन कई लोग ऐसे भी तो हो सकते हैं जो सरकार के शुभचिंतक हों और उसी दृष्टि से उसके निर्णय की खामियां गिना रहे हों। मुश्किल यह है कि ऐसे सारे लोग दुश्‍मनों या देशद्रोहियों की श्रेणी में डाल दिए जा रहे हैं।

मुगले आजम फिल्‍म का एक मशहूर डायलॉग है- ‘’सलीम तुझे मरने नहीं देगा और हम तुझे जीने नहीं देंगे अनारकली!’’ आज नोटबंदी ने कई लोगों की हालत अनारकली जैसी कर दी है। वे आखिर अपना दर्द या अपनी तकलीफें कहां लेकर जाएं। समझ में नहीं आता कि ये लोग प्रधानमंत्री को ‘जिल्‍लेइलाही’ बनाने पर क्‍यों तुले हैं। लोकतंत्र में क्‍या यह कहना भी गुनाह है कि अनारकली को जिंदा दीवार में चुनवाने का शहंशाह अकबर का फैसला मानवीय नहीं था। जो लोग परेशान हैं वे यही तो कह रहे हैं ना कि नोटबंदी को लेकर पैदा हुई उनकी मुश्किलों का अंत जल्‍द किया जाए। दूसरे, इस मामले में खुद सरकार के स्‍तर पर रोज अलग अलग दिए जाने वाले बयानों से पैदा हो रही भ्रम की स्थिति को रोका जाए। सरकार इस धारणा में कैसे जी सकती है कि उसके वहां बैठे सारे लोग साहूकार हैं और जो लोग बैंको या एटीएम की लाइन में लगे हैं वे सारे चोर हैं।

अथ नोटबंदी कथा

नोटबंदी को लेकर लोग सोशल मीडिया पर रोज हजारों की संख्‍या में अपनी राय और टिप्‍पणियां दर्ज कर रहे हैं। इनमें से कई इतनी चुटीली और सटीक होती हैं कि न सिर्फ आम आदमी को बल्कि नीति नियंताओं को भी सोचने पर मजबूर कर दे। नोटबंदी मुहिम के अंजाम तक पहुंचने तक हम कोशिश करेंगे कि अपने पाठकों से ऐसी ही कुछ रोचक टिप्‍पणियां शेयर करें। आज की कथा हमारे एक पाठक ने वाट्सएप पर भेजी है, आप भी सुनिए और सोचिए-

दो भाई हैं रामलाल और श्यामलाल। दोनों साल भर में एक-एक करोड़ कमाते हैं और 50-50 लाख खर्च कर देते हैं। रामलाल देशभक्त आदमी है और हर साल 30-35 लाख इनकम टैक्स भी देता है। तीन साल में उसने 1 करोड से ज़्यादा टैक्स दिया। आज उसके खाते में खर्चे और टैक्स के बाद बची रकम 15X3 =45 लाख है। जबकि श्यामलाल चोरकट टाइप आदमी है। टैक्‍स चोरी के चलते उसके पास खर्चे के बाद भी 1.5 करोड़ बचे हैं। नोटबंदी से जुड़े राष्ट्रवादी फ़ैसले के बाद उसने सरकार से फिफ्टी-फिफ्टी कर लिया। उसकी अंटी में अब भी 75 लाख हैं। अब बताइए, कौनसा आचरण ठीक है और कौन सा धन ठीक है??

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