मुझे लगता है, देश में वह दिन ज्यादा दूर नहीं जब व्यक्ति खुले में शौच की तो छोडि़ए, शौच से ही मुक्ति मांगने लगेगा। इन दिनों खुले में शौच के खिलाफ ऐसी ‘उत्साहबाजी’ चल रही है कि पूछिए मत। सही मायने में साफ सफाई हो रही है या नहीं,इस पर ध्यान देने के बजाय आंख मूंदकर स्वच्छता अभियान का लट्ठ घुमाया जा रहा है। साफ सफाई होनी चाहिए, इसमें कोई दो राय नहीं हो सकती, लेकिन किसी भी बात को लेकर ऐसा भी क्या तूफान मचाना कि आप सही गलत की पहचान का विवेक ही खो दें। स्वच्छता अभियान में यही हो रहा है।
हाल ही में मेरे हाथ राजस्थान का एक ऐसा दस्तावेज लगा है जो यह बताने के लिए पर्याप्त है कि, ऐसे अभियान आखिर अपेक्षित परिणाम लाए बिना क्यों दम तोड़ देते हैं। पहले जरा उस दस्तावेज का मजमून देख लीजिए। दरअसल यह एक आदेश है, जो राजस्थान की मुख्यमंत्री के गृह जिले झालावाड़ के जिला शिक्षा अधिकारी (माध्यमिक) ने जिले के शिक्षकों और ग्राम पंचायत पदाधिकारियों को भेजा है। इसमें कहा गया है-
‘’संबधित ग्राम पंचायत के संस्था प्रधानों को आदेशित किया जाता है कि, जिले की सभी ग्राम पंचायत समितियों की प्रस्तावित, खुले में शौच से मुक्त होने वाली ग्राम पंचायतों में, संलग्न परिशिष्ट ‘अ’ के अनुसार, ग्राम पंचायतों को 30 जून 2016 तक खुले में शौच से मुक्त करने के लिए, श्रीमान जिला कलेक्टर महोदय के आदेश की पालना में संबंधित संस्था प्रधान मोर्निंग फोलोअप से संबंधित गांव में अपने समस्त कर्मचारियों एवं अध्यापकों को अनिवार्य रूप से साथ लेकर,प्रात:कालीन 5:00 बजे से फोलोअप सुनिश्चित कर, प्रतिदिन जगमग झालावाड़ एवं अधोहस्ताक्षरकर्ता के वाट्सअप पर प्रात: 5:00 बजे फोटो भिजवाना सुनिश्चित करें। उक्त कार्य को पूर्ण जिम्मेदारी निष्ठापूर्वक करके अधोहस्ताक्षरकर्ता को प्रतिदिन सूचित करेंगे।”
3 जून के इस आदेश की प्रतिलिपि जिला कलेक्टर, मुख्य कार्यकारी अधिकारी, अतिरिक्त मुख्य कार्यकारी अधिकारी, जिला स्वच्छता मिशन और संबंधित संस्था के प्रधानों को भेजी गई है।
सवाल यह है कि इस तरह के शेखचिल्ली निर्देश जारी करने से पहले ये अफसर कुछ सोचते भी हैं या नहीं। अव्वल तो इस बात पर ही आपत्ति है कि शिक्षकों को आप किस-किस काम में लगा रहे हैं? ऐसा लगता है कि वर्तमान व्यवस्था उनसे पढ़ाने के अलावा बाकी सारे काम करवा लेना चाहती है। उनसे अपेक्षा है कि वे अच्छी शिक्षा देकर भावी पीढ़ी का निर्माण करें। लेकिन उनके लिए स्थितियां ऐसी निर्मित की जा रही हैं कि वे सब कुछ करें, बस पढ़ाई न करवाएं।
दूसरे आप इस आदेश की भाषा देखिए, इसमें एक जिला शिक्षा अधिकारी पंचायत प्रमुखों को आदेशित कर रहा है? पंचायती राज व्यवस्था मे पंच सरपंच जनता के चुने हुए नुमाइंदे हैं। आप उन्हें इस तरह भेड़ बकरी की तरह कैसे किसी भी काम के लिए ठेल सकते हैं।
तीसरी और सबसे महत्वपूर्ण बात यह कि आप खुले में शौच की वास्तविक स्थिति जानने के लिए पंचायत अमले और शिक्षकों से फोटों खींचकर भेजने को कह रहे हैं। क्या आपने इसके नैतिक और कानूनी पहलुओं को ठीक से जांच लिया है?जरा सोचकर देखिए कि मजबूरी में कोई महिला इस स्थिति में हो, और आपके निर्देशानुसार कोई फोटोग्राफी करने लगे तो क्या होगा? स्वच्छता तो गई भाड़ में, उसे सौ जूते खाने पड़ेंगे। लोग उसका जुलूस निकालेंगे सो अलग। तो क्या आप अपने शिक्षकों को ऐसी स्थिति में लाना चाहते हैं? आपके निर्देशानुसार शिक्षकों को सुबह पांच बजे इस काम के लिए अनिवार्य रूप से जाना है। जब वो बेचारा सुबह पांच बजे ‘शौच परीक्षण’ के लिए निकलेगा, तो ‘प्रतिभा परीक्षण’ के लिए समय कैसे निकालेगा? और भाई यह सुबह पांच बजे का मुहूर्त किसने निकाला है? क्या शौच के लिए कोई समय तय होता है? मान लीजिए, लोग भी चालाक हों और शौच परीक्षण के लिए निकली आपकी टोली के लौटने के बाद, उनकी टोली निवृत्त होने के निकले तो आप अभियान के बारे में क्या रिपोर्ट देंगे?
स्वच्छता अभियान को लेकर मुझे एक और बात कहनी है। मीडिया में इन दिनों, देश के कई राज्यों में चल रहे सूखे के कारण, रोज ही पानी की किल्लत के फोटो छप रहे हैं। कहीं लोग 60-70 फुट गहरे कुएं में उतरकर जान जोखिम में डालते हुए बमुश्किल एक बाल्टी पानी जुटाते दिख रहे हैं, तो कहीं जमीन में गहरा गड्ढा खोद कर बच्चे छोटी कटोरी से घंटों बूंद बूंद पानी जमा कर रहे हैं। ऐसे हालात में जरा कोई इन नीति नियंताओं से यह तो पूछे कि आपके इस खुले में शौच न करने के ‘पवित्र अनुष्ठान’ का निर्वाह लोग कैसे करें? जहां पीने के पानी की जुगाड़ करना मुश्किल है, वहां घर में शौच धोने का पानी वे कहां से लाएं?
प्यास बुझाने लायक पानी तो आप दे नहीं पा रहे और ऊपर से पानी की बचत के उस उपाय को दांडिक अपराध बना रहे हैं,जो कई जगह लोगों का शौक नहीं उनकी मजबूरी है। मैं भी खुले में शौच की प्रवृत्ति को उचित नहीं मानता, लेकिन उसके लिए आवश्यक संसाधन भी तो हों। घर में शौचालय का ढांचा खड़ा कर देने से तो काम नहीं चल सकता। इधर कंठ गीला करने के लिए पानी नहीं और उधर आपको वाहवाही लूटने की पड़ी है। भले ही मामला ‘शौच’ का है, पर थोड़ा दिमाग भी लगा लीजिए, थोड़ा ‘सोच’ भी लीजिए हुजूर।
गिरीश उपाध्याय
आलेख पर अपनी प्रतिक्रिया आप नीचे कमेंट बॉक्स के अलावा [email protected] भी भेज सकते हैं।